उस दिन हम सुबह 10 बजे घर से निकल गए। अप्रैल का माह था पर वहां हल्की ठंड थी। बारिश होने के आसार थे। बीच-बीच में बादलों के छंट जाने से सूरज अपना चेहरा दिखाता था। औऱ शहर की आंखे चमक उठती थी। मैंने निकलते वक्त ही गर्म कपड़े पहन लिए थे।

हर आधे घंटे में घर के पास से गुज़रने वाली बस सही वक्त पर घर के पास आकर रुकी थी। वह जर्मनी के योहानेस नामक शहर का एक छोटा सा गांव “हार्ट” था। औऱ पास से गुजरने वाली सड़क कई गांवों को जोड़ने वाली उस शहर की सबसे पुरानी सड़क थी।

बस मुख्य शहर पहुँचते ही बस स्टैंड पर जाकर खड़ी हो गई। चारों ओर हल्की धुप में लोग ऐसे पसरे थे जैसे पिकनिक मनाने निकले हों। पहली बस के रुकते ही हमने दूसरी बस ले ली। यह दूसरी बस हमें उस पहाड़ तक ले जाने वाली थी जहां हम जाना चाहते थे। बस पूरी तरह भरी हुई थी। एक नज़र चारों ओर दौड़ाने पर सिर्फ़ बुजुर्ग स्त्री-पुरूष ही दिखे। सब स्टिक लेकर पहाड चढ़ने को तैयार। क़रीब आधे घण्टे में पहाड़ के पास बस के रूकते ही लोग बस से उतरने लगे। हम भी उतरकर धीरे-धीरे पहाड़ चढ़ने लगे।

वह नई कोमल पत्तियों के आने का समय था। पूरा जंगल सुगापंछी रंग से ढंका था। पहाड़ पहली बार बहुत नाज़ुक दिख रहे थे। सूरज की रोशनी से जंगल का चेहरा दमक रहा था। पहाड़ की एक पूरी श्रृंखला से घिरा है जर्मनी का वह छोटा सा शहर था “योहानेस”।

जर्मनी के राइनलैंड प्लाटिनेट स्टेट का छोटा सा शहर है “योहानेस”। सदियों से अंगूर की खेती करता हुआ। अंगूर की खेती का सबसे पुराना इलाका। राइनलैंड का पूरा इलाका इस देश का सबसे बड़ा अंगूर की खेती का इलाका है। छोटे-बड़े सभी किसान यहाँ अंगूर की खेती करते हैं। कुछ खुद के लिए औऱ कुछ बाजार के लिए। राइनलैंड प्लाटिनेट स्टेट पुराने समय में कई राजाओं का पसंदीदा जगह था। अलग से उनके किले इस इलाके में हुआ करते थे।

1815-16 में बवेरिया के राजा ने राइनलैंड को अपने अधिकार क्षेत्र में ले लिया था। औऱ पहाड़ की चोटी पर अपना किला बनवाया था। (बवेरिया की राजधानी म्यूनिख है)। किले के अवशेष आज भी हैं पर यह किला किसी राजा के किले के रूप में इतिहास में याद नहीं किया जाता। लोग इसे हमबाख किला कहते हैं।

इतिहास में जर्मनी के इस छोटे से शहर ने अपनी अमिट छाप छोड़ी है। यह वही शहर है जहां सबसे पहले राजशाही के ख़िलाफ़ लोगों ने आवाज़ उठाई थी। “डेमोक्रेटिक जर्मन मूवमेंट” की शुरुआत इसी शहर से हुई। 1832 को हमबाख किले के पास हमबाख उत्सव या जुटान का आयोजन किया गया था। इसका उद्देश्य “डेमोक्रेटिक जर्मन मूवमेंट” पर विचार-विमर्श करना था। क़रीब तीस हज़ार लोगों ने पहली बार हमबाख किले की ओर प्रोटेस्ट मार्च किया था। यह पहला डेमोक्रेटिक जर्मन मूवमेंट था और उन दिनों एक लोकतांत्रिक देश की मांग के लिए तीस हजार लोगों की जुटान एक विशाल जुटान थी। इस दौरान काले, लाल और सुनहरे रंग के झंडे का प्रयोग पहली बार हुआ था। आगे चलकर यही तीन रंगों वाला झंडा डेमोक्रेटिक जर्मनी के प्रतीक चिन्ह के रूप में राष्ट्रीय झंडा बनकर उभरा।

आज भी पहाड़ पर स्थित हमबाख किला उसी प्रथम “डेमोक्रेटिक जर्मन मूवमेंट” की स्मृति को समेटे खड़ा है। 2015 में उसे युरोपियन हेरिटेज का दर्ज़ा दिया गया। आज यहां उसी मूवमेंट के अवशेषों का एक संग्रहालय है।

मेरे साथ जर्मन शुभचिंतक और अनुवादक जोहानेस लापिंग थे। वे योहानेस के चप्पे चप्पे से वाक़िफ थे। उनका बचपना इसी शहर में बीता था। वे अपने बचपन की यादों में डूब रहे थे। उसी हमबाख किले में खेलते हुए उन्होंने अपना बचपना गुज़ारा था। और उन्होंने देखा था जिन शक्तियों के ख़िलाफ़ संघर्ष करते हुए वह पहाड़ और उस पर खड़ा वह हमबाख़ किला इतिहास में मशहूर हुआ था कालांतर में कैसे उन्हीं शक्तियों ने उसे किसी संग्रहालय में बदल दिया और उसकी रक्षा की जिम्मेदारी उठाते हुए इसे अपनी उपलब्धि घोषित कर दिया। जोहानेस के माता पिता योहानेस की पहाड़ी तराई में रहते थे। और उन्हीं पहाड़ियों पर चेस्टनट के फल जमा करते हुए उन्होंने अपने बचपन के दिन बिताए थे। उनके माता पिता के साथ कच्ची उम्र में उन्हें वह जगह छोड़नी पड़ी थी और अब एक लंबे अरसे के बाद वे फिर उसी इलाके में लौटे थे। उनकी आंखें बार बार नम होती थीं। योहानेस का हर कोना उनकी यादों से भींगा था। बाज़ार का सेंटर जहां उनके दादाजी सब्जी बेचने आया करते थे। वह पोस्ट ऑफिस जहां उनके पिता काम करते थे। शहर के एक कोने में बने राक्षसों जैसे मुंह वाले काल्पनिक पक्षियों के झुंड की आकृति जिनसे बचपन में वे बहुत डरते थे। सफ़ेद रंग की दो बकरियां उनके जेहन में बसी हुई थी। जिनकी तस्वीर वे अपने पास हमेशा रखते। उनकी मां ने बचपन में उन्हीं सफेद बकरियों के साथ उनकी पहली तस्वीर खींची थी। नौसडत की वो सारी जगहें उन्हें बार बार उन्हें उनके अतीत में खींच ले जाती थी।

हामबाख़ किले से लौटते वक्त हमने पहाड़ का रास्ता चुना। पहाड़ की ज़मीन चेस्टनट, ओक और मेपल के पुराने पत्तों से ढकी थी। पत्तों पर हम चलते रहे। जोहानेस बच्चों की तरह दौड़- दौड़ कर सूखे चेस्टनट चुन रहे थे जो पत्तों के नीचे दबी हुई थीं। वे अंगुली से इशारे कर अपने पुराने घर के वहीं कहीं आस- पास होने की संभावना जता रहे थे। वे नए पत्तों को सूंघते थे और खुशी से झूमते थे। पहाड़ पर पेड़ की डालियां हवा से झूमते हुए एक दूसरे से टकरा रही थी और कोई संगीत सा बज उठता था। वे रुककर उस आवाज़ को ध्यान से सुनते और चिल्लाते— सुनो सुनो..यह जंगल की कोई धुन है। मैं उनकी ख़ुशी में कोई दखल नहीं देना चाहती थी। वे अपनी धुन में बहुत पीछे छूट गए थे। मेरी चिंता थी कि कहीं बारिश न होने लगे। मैं चलते -चलते आगे निकल गई थी। रुक- रुक कर मैं भी रास्ते भर अलग अलग पेड़ से एक एक पत्ता तोड़ रही थी किताबों में रखने के लिए।

तभी अचानक जंगल हिल गया। जैसे बुरी तरीके से बादल गरजा हो। जंगल के ठीक उपर हवाई जहाज की तेज़ आवाज़ गूंजी थी। मैंने जोहानेस को आवाज़ लगाई और चिल्लाकर पूछा ये हमारे सिर के ऊपर हवाई जहाज़ क्यों मंडरा रहे हैं? वे जल्दी जल्दी पास आए और बताया - यह विडंबना है कि इस पहाड़ से क़रीब 30 किलोमीटर की दूरी पर अमेरिकेन एयरबेस है। जहां आम आदमियों का जाना मना है। ये अमेरिकन हवाई जहाज़ हैं और इनकी आवाज़ मेरा दम घोंटती हैं। अब वे बेहद उदास दिखे।

वे जर्मनी में क्यों हैं? मैंने पूछा।

अमेरिका ने जर्मनी में अपनी कुछ गतिविधियों के लिए समझौते किए हैं जिसके तहत अपना एयरबेस यहां बना रखा है। अब भी उनका प्रभाव है यहां। और ऐसा नहीं है सिर्फ जर्मनी में ऐसे एयरबेस हैं। दूसरे देशों में भी है जो इससे बड़े हैं। उन्होंने कहा।

क्या करते हैं यहां से वे? मैंने पूछा

वे यहीं से सीरिया सहित दूसरे इलाकों पर नज़र रखते हैं। इटली और दूसरे कुछ देशों में भी उनके ऐसे ही एयरबेस हैं। उनके आर्मी अस्पताल भी हैं। बाहर से उनके घायल सैनिक यहां लाए जाते हैं। उन्होंने कहा। उन्होंने मेरी तरफ़ देखकर बुरा सा मुह बनाया औऱ चुपचाप चलते रहे। फ़िर धीरे से कहा - यह एक बेबस गुस्सा है। हमने ऐसे लोकतंत्र के सपने नहीं देखे थे।

पहाड़ से उतरते हुए मैंने पूछा - लोकतंत्र में जनता की सरकार, जनता के लिए और जनता द्वारा है ऐसा कहा जाता है। और यह भी कि लोकतंत्र में जनता ही मूलतः सरकार की शुत्रधार होती है। फिर लोग जिसे सरकार चुनते हैं वह उसी जनता के ख़िलाफ़ क्यों रहती है? जनता के बीच से निकली वह कैसी जनता की सरकार होती है जो किसी भी देश की आधी आबादी के ख़िलाफ़ रहती है? वह मुट्ठी भर लोगों के हितों को साधती रहती है। अगर जनता की सरकार जनता की ही प्रतिबिंब है तो फिर इस जनता पर ही सवाल उठता है। क्या देश की ही जनता नहीं चाहती कि लोकतंत्र की आड़ में पूंजीवाद फले फूले, कुछ लोगों की सुख सुविधा के लिए आधी जनता को विकास के नाम पर उनका बलिदान चढ़ाया जाता रहे। अगर किसी देश की पूरी जनता ऐसा नहीं चाहती तो क्या ऐसी कोई सरकार बन सकती थी? लोकतंत्र का प्रयोग हथियार की तरह मज़बूत वर्ग कमज़ोर वर्ग के लिए कर रहा है यह कुछ ऐसा ही दिखता है ख़ासकर भारत में। हम सरकार पर दोष मढ़ते रह जाते हैं और वह बड़ी आबादी जो ऐसा चाहती है और ऐसी सरकार को भीतर से स्वीकृति देती है वह आलोचना से हमेशा बची रहती है। सरकार तो ऐसी ही जनता का चेहरा भर है।

उन्होंने एक लंबी और गहरी सांस खींची और कहा - इस देश के लोगों के मन में ऐसे सवाल पैदा नहीं होते और आधे लोगों की स्थति दिनों दिन बुरी होती जा रही है। आने वाले समय में यह और बुरी होगी। और यह सच है एक बड़े तबके के मन में ऐसे सवाल नहीं उठते और आधी आबादी नहीं जानती इस देश के भीतर क्या हो रहा है। डेमोक्रेसी सिर्फ़ वोट देने तक सिमट गई है हर देश में। अपनी मुक्ति औऱ बेहतरी के सिर्फ़ सपने हैं हमारे पास और अपने को गुलाम बनाए रखने के लिए अपना मालिक चुन लेने का अधिकार।

अब योहानेस का रेलवे स्टेशन दिखने लगा था। मुझे रह रहकर रामशरण जोशी जी की किताब नवउदारवाद के दौर में की पंक्तियां याद आ रही थी।

जब जनता और सरकार के परस्पर संबंध और परस्पर आश्रिता को रेखांकित किया जाता है तब बड़ी मक्कारी के साथ इस सच्चाई को छुपा लिया जाता है कि आख़िर कौन सी सामाजिक- आर्थिक- राजनीतिक शक्तियां इन संबंधों का चरित्र निर्धारण करती हैं? कल्पना कीजिए यदि राजे रजवाड़ों को भारत की कमान सौंप दी जाती तो वे कैसा संविधान गढ़ते? यदि हिन्दुत्व वादी सत्ता में जाएं तो उनका संविधान कैसा होगा?

लोकतंत्र कई प्रकार के होते हैं, पूंजीवादी लोकतंत्र, बुजुर्वा लोकतंत्र। लोकतंत्र औऱ संविधान से पूंजीवाद को शक्ति नहीं मिलती यह नितांत अवैज्ञानिक है। ये पूंजीवाद के ही नही समाजवाद के भी रक्षक होते हैं लेकिन मूल बात यह है कि राज्य, लोकतंत्र और संविधान का चरित्र कैसा है। प्रतिस्पर्धात्मक या चुनावी राजनीति में इनके चरित्र से जुड़े सवालों को हाशिये में फेंक दिया जाता है और राज्य के तीनों अंग अपने-अपने ढ़ंग से उनकी हिफ़ाज़त में सक्रिय रहते हैं । इसी लोकतंत्र में गरीबों की आबादी बढ़ने के साथ साथ अरबपतियों की संख्या भी बढ़ती है। क्या संवैधानिक व्यवस्थाओं के अभाव में यह संभव है?

आह! सोचते- सोचते मन भारी होने लगा कि तभी हल्की बारिश शुरू हो गई। मैंने छाता हटा दिया और हल्की बारिश में भींगते हुए घर की ओर लौटने लगी…।