सोशल मीडिया पर ख्यातिप्राप्त संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप की इस बात के लिए आलोचना हो रही है कि उन्होंने पत्थरगड़ी आंदोलन को असंवैधानिक करार दिया, इस रूप में कि पेसा कानून के तहत मिले कानूनी प्रावधानों की इसमें गलत व्याख्या और पत्थर लेखन पत्थरगड़ी आंदोलनकारी कर रहे हैं. वाल्टर कंडुलना जैसे झारखंडी बुद्धिजीवी का तो मानना है कि झारखंड की भाजपा सरकार की पेसा कानून पर कार्यशाला का एक प्रमुख उद्देश्य ही डा. कश्यप जैसे संविधान विशेषज्ञ से पत्थरगड़ी आंदोलन को संविधान के विरुद्ध कहलवाना था. लेकिन यदि हम थोड़ी सूक्ष्मता से देखें तो डा. कश्यप एनडीए सरकार की आदिवासी नीति की ही जाने अनजाने बखिया उधेड़ गये और कई अनुत्तरित सवाल छोड़ गये जिसका जवाब आदिवासी जनता सरकार से चाहती है.

उल्लेखनीय है कि 10 नवंबर को रांची में पेसा कानून पर आयोजित की गई कार्यशाला के लिए सरकार ने 16 जिलों के उपायुक्तों सहित राज्य के वरिष्ठ अधिकारियों और सत्ता पोषित बुद्धिजीवियों को आमंत्रित किया था. लेकिन चर्चा पेसा कानून से ज्यादा पत्थरगड़ी पर हुई और अखबारों ने पत्थरगड़ी के मुद्दे को और उस पर सुभाष कश्यप ने क्या कहा, इसे ही प्रमुखता से छापा. यह सही है कि सुभाष कश्यप ने पत्थरगड़ी को सही ठहराते हुए भी इस बात के लिए उसकी आलोचना की कि इसके द्वारा आंदोलनकारी बहिरागतों को या दूसरे गांव के लोगों को अपने गांव में प्रवेश करने से रोक रहे थे और यह पेसा कानून के प्रावधानों की गलत व्याख्या है. ग्राम सभा के सशक्तिकरण का आंदोलन चलाना गलत नहीं, लेकिन यदि आंदोलनकारी विधानसभा और लोकसभा को ही अमान्य करने लगे तो यह गलत होगा.

लेकिन इसके अलावा उन्होंने जो बातें कहीं वह एनडीए सरकार के चल रहे आदिवासी नीति की धज्जियां उड़ाने जैसी थी. मसलन, उन्होंने कहा कि ‘ औपनिवेशिक व्यवस्था अभी भी जारी है, बस गोरे साहबों की जगह अपने साहबों ने ले लिया है.’

उन्होंने कहा कि आदिवासी अधिकारों के लिए कस्टोडियन राज्यपाल को बनाया गया है जिसे आदिवासी परामर्शदात्री समिति की मदद से निर्णय लेने हैं, लेकिन यह काम झारखंड में मंत्रिमंडल कर रही है. राज्यपाल को प्रतिवर्ष आदिवासी विकास पर एक रिपोर्ट राष्ट्रपति को भेजनी है, लेकिन यह काम भी सरकारी महकमा ही करता है.

उन्होंने यह भी कहा कि आदिवासियों की परंपरागत स्वशासन व्यवस्था को ध्यान में रखते हुए पेसा कानून तो बन गया, लेकिन, कानून तो तभी लागू हो सकेगा जब नियमावली बने, लेकिन राज्य सरकारों ने अब तक यह काम नहीं किया है.

उन्होंने समता जजमेंट का भी जिक्र किया और कहा कि 1997 में सर्वोच्च न्यायालय ने खनन का अधिकार आदिवासी समुदाय को दिया है. इसके आलोक में नियमगिरि में भी एक फैसला आया, लेकिन इन फैसलों की अवहेलना करके पांचवीं अनुसूचि के इलाकों में खनन का काम चल रहा है.

कुल मिला कर उन्होंने आदिवासियों के प्रति चल रही एनडीए सरकार की दोरंगी नीति की जमकर आलोचना की, लेकिन मीडिया की रुचि इस बात में दिखी कि पत्थरगड़ी को किन शब्दों में डा. कश्यप ने अमान्य किया. वरना वे शीर्षक बना सकते थे- ‘गोरे साहब चले गये, देशी साहब आ गयेः कश्यप’, ‘समता जजमेंट को नजरअंदाज कर खनन जारी: डा. कश्यप’, ‘पेसा कानून की नियमावली नहीं बनी अब तक’ आदि आदि.

और अनुत्तरित सवाल यह है कि यदि पत्थरगड़ी ही मुद्दा था आंदोलनकारियों और आदिवासी आंदोलन के समर्थकों को ‘देशद्रोही’ करार देने का तो फिर प्रशासन ने बलात्कार, सुरक्षा गार्डों के अपहरण को मुद्दा क्यों बनाया? क्या उन्हें खुद भरोसा नहीं कि ‘पत्थरगड़ी’ को असंवैधानिक करार देने के लिए उनके पास यथेष्ट प्रमाण नहीं. या फिर इतने मात्र से किसी ग्रामीण इलाके को पुलिस छावनी में नहीं बदला जा सकता था.

अनुत्तरित सवाल यह भी कि क्या संविधान सिर्फ जनता के लिए है या सत्ताधारियों व ब्यूरोक्रैशी के लिए भी है? क्या संविधान का अनुपालन सिर्फ जनता को करना है या उसकी पाबंद प्रशासन पुलिस और सरकार भी है? क्योंकि जिन बातों का जिक्र डा.कश्यप ने किया, उससे यह तो स्पष्ट ही की आदिवासी नीतियों को लागू करने में सरकारी अधिकारियों ने आपराधिक लापरवाही बरती है.