आदिवासी लेखिका सीता रत्नमाला की आत्मकथा ‘वियोंड द जंगल’ के प्रकाशन के पचास वर्ष पूरा होने पर स्थानीय प्रेस क्लब में ‘अखड़ा’ द्वारा एक समारोह का आयोजन हुआ जिसमें प्रख्यात साहित्यकार अश्विनी पंकज द्वारा इस आत्मकथा के अनुवाद ‘जंगल के आगे’ का लोकार्पण भी हुआ. इस समारोह में पहली बार साहित्य अकादमी से सम्मानित निर्मल मिंज को सुनने का अवसर मिला. समाज और साहित्य पर केंद्रित उनके सारगर्भित वक्तव्य को सुन कर इतना मुग्ध हुआ कि उनके साथ एक फोटो खिंचवाने के लोभ का संवरण नहीं कर सका. बाद में उस फोटो को देख कर पहली अनुभूति यह हुई कि मैं अपने अग्रज साहित्यकार के साथ खड़ा हूं जो उम्र में मुझसे लगभग तीस वर्ष बड़े हैं और अगले तीस वर्षों में या उससे पहले ही मैं भी पूरी तरह उन जैसा ही हो जाउंगा.
लेकिन उससे ज्यादा गहरी अनुभूति इस बात को लेकर हुई कि नितांत अलग परिवेश में रहने और उम्र के फासले के बावजूद हमारी चिंतनधारा मिलती जुलती है. मैंने उनका लिखा नहीं पढ़ा है. लेकिन यह जानकारी है कि वे अपनी मातृभाषा के अलावा हिंदी और अंग्रेजी में लिखते हैं, हालांकि उन्हें कुड़ुख भाषा में लेखन और एक शिक्षाविद के रूप में काम के लिए साहित्य अकादमी का भाषा सम्मान दिया गया है. वे विशप भी रहे हैं और प्रतिष्ठित गाॅस्नर कालेज के प्राचार्य भी. लेकिन आज की राजनीति और समाज पर भी उनकी गहरी पकड़ उनके वक्तव्य से दिखाई देती है.
उन्होंने कहा कि ईसाई मिशनरियों के खिलाफ जो द्वेष और नफरत की भावना फैलाई जा रही है, वह किसी भी तरह से उचित नहीं. ईसाई मिशनरियों और उनसे जुड़े विद्वानों ने आदिवासी समाज, भाषा और साहित्य के लिए बहुत सारे काम किये. यदि मिशनरी यहां नहीं आये होते तो पीओ बडिंग की संथाली, हाॅफमैन की इनसाईक्लोपीडिया मुंडारिका किसने लिखा होता? इसलिए सरना और ईसाई आदिवासी के बीच जो घृणा और वैमनष्य फैलाया जा रहा है, वह ठीक नहीं. उन्होंने आदिवासी और कुड़मी के बढ़ते विवाद पर भी गहरी चिंता व्यक्त की. उनका कहना था कि यह आत्मधाती होगा झारखंडी समाज के लिए.
‘द हिंदू’ में हाल में प्रकाशित एक आलेख का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि नवीनतम पुरातात्वि प्रमाण यह बताते हैं कि घास के मैदानी इलाकों से भारत में प्रवेश करने वाले मोहनजोदड़ों और हड़प्पा की सभ्यता से बाद में आये. आदिवासी ही इस देश के प्रथम नागरिक हैं, इस बात को दृढ़ता से कहने के लिए आदिवासी बुद्धिजीवियों और युवा लेखकों को अभी बहुत कुछ करना है. लेकिन यह बहुत कठिन भी नहीं. बस दिल, दिमाग और दर्शन को एक करने की जरूरत है.
उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि आदिवासी सात्यिकारों को तीन भाषाओं में काम करना होगा. अपनी मातृभाषा में, राष्ट्रभाषा हिंदी में और साथ ही अंग्रेजी में. यह एक बड़ी चुनौती है.
डा. मिंज का वक्तव्य आज के सामाजिक-राजनीतिक स्थिति पर एक सशक्त टिप्पणी है, बल्कि यह भविष्य की राजनीति व साहित्य कर्म के लिए दिशा निर्देश भी देता है.