केंद्र सरकार आधार कानून में संशोधन लाकर आधार कार्ड को व्यक्ति के पहचान के लिए अनिवार्य नहीं, बल्कि ऐच्छिक विकल्प के रूप में प्रस्तुत करना चाहती है. इस संशोधन के बाद व्यक्ति को यह आजादी होगी कि वह अपने बने हुए आधार कार्ड को वापस ले ले या आगे कोई आधार कार्ड बनाना चाहे तो वह उसकी इच्छा पर निर्भर होगी. सरकार की यह संशोधन प्रक्रिया अंतिम चरण में है.
सरकार के इस फैसले का आधार सितंबर माह में सर्वोच्च न्यायालय का दिया वह फैसला है, जिसमें उसने आधार की वैधता पर विचार किया. आधार नंबर कुछ सरकारी योजनाओं के लाभुकों के लिए अनिवार्य होगा, लेकिन न्यायालय ने आधार कानून के 57 प्रावधान को खारिज करते हुए यह कहा कि आधार कार्ड का उपयोग गैर सरकारी संस्था या तीसरी पार्टी नही ंकर सकती. इस फैसले के अनुसार कोई भी मोबाईल कंपनी आधार कार्ड नहीं मांग सकती है, किसी विद्यालय में भर्ती करते समय भी आधार कार्ड की जरूरत नहीं होगी. बैंक खातों के लिए भी नहीं, लेकिन पैन नंबर के साथ आधार कार्ड को जोड़ने की जरूरत नहीं है.
आधार कानून का एक और प्रावधान 33-2 के अनुसार राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए सरकार किसी भी व्यक्ति के आधार नंबर के द्वारा उसके संबंध में सारी जानकारी ले सकती है. इसके लिए केवल संयुक्त सचिव स्तर के अधिकारी के आदेश की जरूरत होगी. न्यायालय ने फैसला लिया कि सरकार राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए आधार की जानकारी ले सकती है, लेकिन इसके लिए संयुक्त सचिव से उपर का अधिकारी आदेश दे सकता है. आदेश के पहले उसे सरकारी कानून पदाधिकारी से सलाह लेना अनिवार्य है. दोनों साथ ही कोई निर्णय ले सकते हैं.
सभी भारतीयों के लिए एक समान पहचान पत्र बनाने की यह योजना मूलतः यूपीए सरकार की थी जिसे कानूनी जामा एनडीए सरकार ने पहनाई. तीन मार्च 2016 में सरकार ने इसे लोकसभा में प्रस्तुत किया जहां उसका बहुमत था और यह कानून बन गया, हालांकि, विरोधी पार्टियों ने उस समय इसको एक वित्तीय कानून के रूप में पेश करने और पास कराने की प्रक्रिया का विरोध किया था. सरकार ने आधार को सभी भारतीयों के लिए अनिवार्य कर दिया. बैंक खातों, सिम कार्ड, सभी के साथ उसे जोड़ने का आदेश दिया. इसके लिए समय सीमा मार्च 18 तक रखी गई.
इसके विरोध में जनहित याचिका लेकर लोग कोर्ट में पहुंचे. सुप्रीम कोर्ट ने इस समय सीमा को पहले स्थगित किया. सितंबर 18 में इस कानून के दो प्रावधानों 57 और 33-2 पर विशेष रूप से विरोध जताते हुए इनको खारिज कर दिया, क्योंकि ये व्यक्ति के निजता के अधिकार का अतिक्रमण करती हैं. आधार कार्ड में मनुष्य के नाम पता के साथ साथ उसके शारीरिक चिन्हों का भी संकलन होता है. इसी के आधार पर कई कंप्यूटर विशेषज्ञों ने नामी लोगों के आधार कार्ड द्वारा इनके सारे विवरण निकाल कर सरकार की गोपनीयता की बात को निराधार साबित किया. सरकार का यह तर्क था कि आधार से प्राप्त व्यक्तिगत विवरण राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से बहुत जरूरी है. इसके द्वारा उग्रवाद, नक्सलवाद, घुसपैठ आदि को रोका जा सकता है. लोक कल्याण की योजनाओं को गरीबी रेखा से नीचे के लोगों तक पहुंचाने में भी आधार नंबर बहुत महत्वपूर्ण है.
राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे को तो कोर्ट ने सशर्त स्वीकृति दी, सरकारी सेवाओं को प्राप्त करने के मामले में 2013 के अपने फैसले में ही कोर्ट ने कहा था कि सरकारी योजनाओं से लाभ पाने के लिए आधार के अभाव में किसी को वंचित नहीं किया जा सकता है.
इतने सारे विवादों-फैसलों पर टिकी इस आधार कानून में अब संशोधन कर सरकार को इसे वैकल्पिक बनाने पर मजबूर होना पड़ रहा है. इस सारी प्रक्रिया में लोगों को अपने व्यक्तिगत विवरणों का सार्वजनिक होने का डर सताता रहा, दूसरी ओर सरकारी योजनाओं का लाभ कई लोगों को आधार कार्ड के अभाव में नहीं मिल पाया. ‘राईट टू फुड’ के अधिकार के लिए काम करती एक संस्था ने पलामू जिले के मनिका तथा सतबरबा प्रखंडों में रह रहे आदिम जानजाति के लोगों का सर्वेक्षण कर यह पता लगाने की कोशिश की कि आधार के अभाव में कैसे गरीब सरकारी लाभों से वंचित रहे. सुखनी देवी के पास आधार कार्ड नहीं है, इसलिए लगभग एक साल से उसका विधवा पेंशन बंद है. सुखनी देवी आधार कार्ड नहीं बना पाई, क्योंकि वह अंधी है.
राधू परहेया का राशन कार्ड रद्द कर दिया गया, क्योंकि उसका राशन कार्ड आधार से जुड़ा नहीं था.
विनोद परहेया का नामांकन नरेगा के काम के लिए नहीं हो सका, क्योंकि उसके पास आधार कार्ड नहीं था.
इस सर्वेक्षण में ऐसे कई और उदाहरण हैं जो आधार के अभाव में हुए कष्टों को बताते हैं.
सरकार अब तक इस आधार योजना पर 5650 करोड़ रुपये खर्च कर चुकी है और 78.65 करोड़ आधार कार्ड बने हैं. अब सरकार की यह स्थिति है कि उसे इस कानून को ही संशोधित कर इसे ऐच्छिक बनाना पड़ रहा है. अब सरकार ही बताये कि इस तरह सरकारी खजाने का दुरुपयोग करने के पीछे उसका उद्देश्य क्या है?