संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1948 में ‘10 दिसंबर’ को ‘मानवाधिकार दिवस’ घोषित किया है. यह अवसर है कि हम अपने देश में मानवाधिकार की मौजूदा स्थिति पर गौर करें और उस पर मंडरा रहे संकट को चिन्हित कर प्रतिकार के उपायों पर संगठित होकर विचार करें. हमें दो बातें याद रखनी चाहिए- मानवाधिकार के तहत विश्व मानव आज जिन अधिकारों का उपभोग कर रहा है, वे उसे सहज रूप से प्राप्त नहीं हुए हैं. उसके लिए हजारों वर्षों तक मनुष्य जाति को संघर्ष करना पड़ा और कुर्बानियां देनी पड़ी. और यह कि मानवाधिकार के नाम पर जो अधिकार आज उन्हें प्राप्त हैं, वे बची रहें, उसके लिए उन्हें सतत सचेष्ट भी रहना पड़ेगा. वरना वे कपूर की तरह उड़ जायेंगी.
क्या हैं वे मानवाधिकार? मूल रूप से कहें तो मानवाधिकार मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार है, जिनमें शामिल हैं- आजादी और समानता का अधिकार, भेदभाव से मुक्ति का अधिकार, जीवन का अधिकार, दास-प्रथा पर प्रतिबंध, शारीरीरिक यातना और उत्पीड़न से मुक्त रहने का अधिकार, कानून के समक्ष एक व्यक्ति के रूप में पहचान और समानता का अधिकार, देश निकाला और मनमानी गिरफ्तारी से मुक्त रहने का अधिकार, जब तक प्रमाणित न हो जायंे, तब तक निर्दोष माने जाने का अधिकार, निजता का अधिकार, देश के बाहर और भीतर विचरण का अधिकार, विदेश में शरण लेने का अधिकार, राष्ट्रीयता और उसे चुनने का अधिकार, विश्वास और धर्म चुनने का अधिकार, विचार अभिव्यक्ति और सूचना प्राप्त करने का अधिकार, शांतिपूर्ण जमावड़ा और संगठन बनाने का अधिकार, निष्पक्ष चुनाव में भाग लेने का अधिकार, सामाजिक सुरक्षा का अधिकार, इच्छित काम और ट्रेड यूनियन बनाने का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, संस्कृति और सामुदायिक जीवन का अधिकार. आदि, आदि.
क्या आज ये सहज सुलभ दिखने वाले अधिकार सबों को हमेशा से प्राप्त रहे हैं? या आज भी गरीबी और विषमता से आक्रांत मनुष्यों की एक विशाल आबादी के लिए ये सुलभ हैं? इतिहास के पन्ने हमे उन बर्बर युगों में ले जाते हैं जब मुट्ठी भर कुलीन तबका इनका उपभोग करता था और विशाल आबादी कीड़े मकोड़ों जैसा जीवन व्यतीत करने के लिए अभिशप्त थी. व्यक्तिगत आजादी एक दुर्लभ अवधारणा थी और मनुष्य द्वारा मनुष्यों को गुलाम की तरह खरीदा और बेचा जाता था. यह बहुत पुरानी बात भी नहीं कि जब यूरोप और अमेरिका के जहाजी बेड़े दक्षिण अफ्रिका से काले लोगों को मवेशियों की तरह हांक कर और बेड़ियों में जकड़ कर ले जाते थे और अमेरिका व यूरोपीय देशों के बंदरगाहों पर उनकी नीलामी होती थी. उन गुलामों को खेतों में जोता जाता था. और यदि किसी ने भागने की कोशिश की तो उन्हें भीषण यातनायें देने और यहां तक कि मार देने तक का कानूनी अधिकार उनके मालिकों को प्राप्त था. एक सामान्य धारणा है कि औद्योगिक क्रांति के लिए पूंजी का निर्माण कालों के श्रम के निर्मम शोषण से ही हुआ था. और यह सब 1948 तक होता रहा, जब संयुक्त राष्ट्र संघ ने कानून बना कर दास प्रथा का अंत नहीं किया.
भारत में दास-प्रथा नहीं थी, लेकिन यहां की वर्ण- व्यवस्था ने एक विशाल आबादी को गुलामो से भी बदत्तर अवस्था में पहुंचा दिया था. वर्ण व्यवस्था के चैथी श्रेणी में रखे गये शूद्रो को मानवीय जीवन का कोई अधिकार नहीं था. वे मनुष्य से एक दर्जा नीचे जीने के लिए मजबूर थे. जीवन के संसाधनों पर उनका हक नहीं, शिक्षा का उन्हें अधिकार नहीं, हथियार वे नहीं रख सकते थे. वे सिर्फ उच्च जातियों की सेवा के लिए बने थे. उनका श्रम भी उनका नहीं था. दलितों में भी ऐसे दलित भी थे जो नागर समाज से दूर रहते और सफाई कर्म के लिए नगर में प्रवेश करते तो उन्हें गले के ढ़ोल को बजा कर यह सूचना देनी पड़ती थी कि वे वहां से गुजर रहे हैं, उनकी छाया किसी पर न पड़े, इसके लिए सावधान हो जायें. उनकी स्त्रियां सामंतों के भोग का सामान थी, देश के कई हिस्सों में तो दलित महिलाओं को शरीर के उपरी हिस्सों को नंगा रखने की व्यवस्था थी.
लंबे संघर्ष और आंदोलनों के बाद आजाद भारत के लिए हम ऐसे संविधान का निर्माण करा सके जिसमें सबके लिए समता, न्याय और आजादी की उद्घोषणा संभव हो सकी. भारत एक धर्म निरपेक्ष समाजवादी गणतंत्र बन सका, जिसमें सभी के लिए वगैर भेदभाव के समता और न्याय का अधिकार था. जिसमें संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा उद्धोषित तमाम मानवाधिकारों को शामिल किया गया था.
ल्ेकिन आजादी के बाद जिस तरह गरीबी और विषमता बढ़ी है, उसने तमाम मानवाधिकारों को बेमानी बना कर रख दिया है. यह सही है कि एक अलग सामाजिक आर्थिक व्यवस्था और अपने इलाके में जल, जंगल, जमीन पर अधिकार होने की वजह से देश में आदिवासियों की स्थिति दलितों से बेहतर थी, लेकिन औद्योगीकरण का दौर शुरु होने के साथ उनके इलाके में खनिज संपदा के साथ-साथ जल, जंगल, जमीन पर भी आक्रमण शुरु हुआ और विस्थापन का वह दौर शुरु हुआ जिसने आदिवासियों की सदियों से चली आ रही सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था को तहस-नहस करके रख दिया. देश की एक तिहाई आबादी यदि गरीबी रेखा के नीचे अमानवीय परिस्थितियों में जी रही है तो उसमें एक बड़ी आबादी आदिवासी और दलितों की है. और जब उन्होंने प्रतिरोध करना शुरु किया तो मानवाधिकारों की धज्जियां उड़ा कर उनके प्रतिरोध को कुचलने का सिलसिला चल पड़ा.
वगैर किसी ठोस आधार के गिरफ्तारी, हाजत में कई-कई दिनों तक रख कर टार्चर करना, किसी को मार डालना, मुठभेड़ के नाम पर हत्या, बिना किसी सुनवाई बरसों जेल में बंद रखना, देश के कई हिस्सों में आतंकवाद का हौवा खड़ा कर विशेष सैन्य कानूनों द्वारा मानवाधिकारों का हनन एक सामान्य प्रक्रिया हो गई है और इसके शिकार सामान्यतः गरीब लोग होते हैं, आदिवासी, दलित, औरत व अल्पसंख्यक होते हैं. और यह सिलसिला किसी एक राजनीतिक दल की सरकार के दौरान नहीं, बल्कि यह सत्ता का चरित्र बनता जा रहा है. बस एनडीए शासन में संकीर्ण राष्ट्रवाद व धर्मांधता से जुड़ कर यह और खौफनाक हो गया है. माॅब लिंचिंग, दलितों की सार्वजनिक पिटाई और मुठभेड़ों के नाम पर होने वाली घटनाओं में बेतहाशा वृद्धि इस बात का द्योतक हैं कि देश पर पुनरुत्थानवादी ताकतें एक बार फिर काबिज हो गई हैं जो देश को एक बार फिर बर्बर युग में ले जाने पर अमादा हैं.
हमारे लिए चिंतनीय विषय है:
0 विकास के दावों के बीच बढ़ती भीषण गरीबी और विषमता की विशाल होती खाई
0 जेलों में विचाराधीन कैदियों की बढ़ती हुई संख्या
0 माॅब लिंचिंग व मुठभेड़ के नाम पर होने वाली हत्यायें
0 हाजत में होने वाली मौतें
0 महिला उत्पीड़न- कन्या भ्रूण हत्या, बच्चियों के साथ बलात्कार, संरक्षण गृहो में रखी गई लड़कियों को ऐय्याशी के लिए सत्ताधारियों के बीच परोसा जाना
0 दलित उत्पीड़न की उना जैसी घटनाएं
0 अभिव्यक्ति की आजादी पर कुठाराघात व देशद्रोह के दमनकारी मुकदमें
0 श्रम कानूनों की समाप्ति
0 शांतिपूर्ण जमावड़े व संघर्ष के तरीकों पर भी समय-समय पर लगाये जाने वाले प्रतिबंध
0 और न्यायिक प्रक्रिया का मंहगा होना व लंबा खिंचना
आईये, हम संकल्पित हों कि इन तमाम मसलों को हमेशा अपने जेहन में रखेंगे और संगठित रूप से इसका विरोध करेंगे. सिर्फ कोर्ट या संविधान में दर्ज कानून उन मानवाधिकारों की रक्षा नही कर सकते. याद रखिये, मानवाधिकार तभी बचेंगे जब हम उनकी अहमियत को समझेगें और उसके लिए सचेष्ट होकर लड़ने के लिए तत्पर रहेंगे.