कोलेबिरा उपचुनाव के नतीजों का संदेश साफ है- भाजपा आज की तारीख में अलोकप्रिय राजनीतिक दल बन चुकी है. लेकिन क्या इसका मतलब यह है कि गैर आदिवासी, जिनका बाहुल्य झारखंड के शहरों-कस्बों में है, अगले चुनाव में भाजपा के पक्ष में गोलबंद नहीं होंगे? या वे कांग्रेस के पक्ष में गोलबंद होंगे? जो अंतिम सत्य है, वह यह कि गैर आदिवासी मतदाता किसी भी झारखंडी पार्टी को वोट नहीं देंगे. हां, रिजर्व सीटों पर उनकी मजबूरी रहेगी कि वे भाजपा या कांग्रेस के आदिवासी प्रत्याशी को वोट देंगे. यानी, गैर आदिवासियों की पार्टी भाजपा या कांग्रेस ही रहेगी.

यह भी एक सामान्य तथ्य है कि बहिरागत वोटर राजनीतिक रूप से ज्यादा सचेत हैं, इसलिए वे कांग्रेस या भाजपा के पक्ष में गोलबंद होंगे. भारतीय राजनीति में कांग्रेस उच्च जाति और उच्च वर्ग का प्रतिनिधत्व करती रही है. लेकिन सिर्फ अगड़े मतों से तो चुनाव नहीं जा सकता था, इसलिए अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि को पेश कर वह अल्पसंख्यकों, दलितों और आदिवासियों का वोट प्राप्त कर देश पर राज करती रही. झारखंड में भी वह इसी रणनीति के तहत काम करती रही और बड़ी संख्या में लोकसभा व विधानसभा सीटों पर काबिज होती रही.

ल्ेकिन सत्तर के दशक के अंतिम वर्षों में मंदिर-मस्जिद विवाद को तूल देकर भाजपा, जो अब तक मध्य जातियों और वर्ग के ही व्यापारी-बनिया खेमे की पार्टी थी, ने कट्टर हिंदुत्ववादी भावनाओं का फैलाव किया और धीरे-धीरे वह अगड़ो की भी पार्टी बन गई. और अपनी इस छवि के बलबूते उसने कारपोरेट जगत को भी अपने वश मे ंकर लिया. क्योंकि, कारपोरेट जगत को कांग्रेस व भाजपा से मतलब नहीं, वह किसी की भी हो सकती है, जो उन्हें जनता के श्रम और संसाधनों की लूट में मदद करे.

इसके अलावा उसने कांग्रेस के परंपरागत आदिवासी, दलित और अल्पसंख्यक मतों को भी तोड़ने का प्रयास किया. मुसलमानों को अपनी तरफ आकर्षित करने में उनकी रुचि नहीं थी, क्योंकि मुसलमानों के प्रति घृणा और वैमनष्य ही उनकी राजनीति का मूल रहा है, आदिवासियों दलितों को तोडने के लिए उन्होंने ईसाईयों को अपना टारगेट बनाया. खास कर उन राज्यों में जहां ईसाईयों की थोड़ी बहुत आबादी थी. झारखंड में ईसाईयों और मुसलमानों को टारगेट कर ही भाजपा ने अपनी राजनीति को सुदृढ़ किया है.

तो, कांग्रेस के समर्थक अब कौन रहे? बहिरागतों का बड़ा तबका उनके साथ नहीं. ईसाई वोटर उनके साथ हैं, लेकिन मुसलमान अब उस पार्टी के साथ रहेंगे जो भाजपा को हराने की कुव्वत रखता हो. सदानों का ढलान भाजपा की तरफ है और कुछ को आजसू अपने साथ लेकर भाजपा को मदद करती है. इसका ही परिणाम था कि पिछले चुनाव में कांग्रेस छह सीटों पर सिमट गई. हालांकि वह झारखंड में अपना पुराना जनाधार फिर से प्राप्त करने के लिए तिकड़में करती रही है. वह जानती है कि जब तक झामुमो का वजूद है, शिबू सोरेन राजनीति में बने हुए हैं, तब तक वह आदिवासियों के बीच अपना खोया जनाधार और मुसलमानों को पूरी तरह अपनी तरफ गोलबंद नही ंकर सकती. इसलिए वह लगातार तिकड़में करती रहती है. संथाल परगना में उसने बाबूलाल मरांडी को झामुमों के मुकाबले खड़ा किया. 11 के विधान सभा चुनाव में महज ग्यारह सीटों पर बाबूलाल चुनाव जीते थे, लेकिन उन्होंने झामुमो पर दबाव बनाया कि वह बाबूलाल को मुख्यमंत्री के रूप में स्वीकार कर लें. उन्हें एनोस एक्का के भ्रष्ट होने की तो बहुत चिंता है, लेकिन मधु कोड़ा की पत्नी को पार्टी में शामिल कर लिया. दरअसल, यह गोलबंदी भाजपा के खिलाफ नहीं, झामुमो के खिलाफ है.

क्या हाल में आये पांच राज्यों के नतीजों से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि कांग्रेस पहले से ज्यादा मजबूत हुई है या अगड़े वोटरों को अपनी तरफ खींचने में सफल हुई है? हमे नहीं लगता. हिंदी पट्टी में मिली सफलता बस जीतने भर की है, चाहे वह राजस्थान हो या मध्यप्रदेश. छत्तीसगढ़ में जीत तो दरअसल आदिवासी जनता की है. उन्होंने तो इतनी बड़ी जीत की कल्पना ही नहीं की थी. कोलेबिरा में वे जरूर जीते, लेकिन भाजपा को इतना वोट कैसे मिला?

बत स्पष्ट है कि बहिरागत वोट, गैर आदिवासी मत अब तक भाजपा के पक्ष में ही गोलबंद है, कांग्रेस की अभी परीक्षा होनी है. कांग्रेस को आदिवासी मतों के ही जोड़-तोड़ की वजाय महागठबंधन बनाने की दिशा में ईमानदार कोशिश करनी चाहिए. यदि मधु कोड़ा की पत्नी को उन्होंने कांग्रेस में शामिल नहीं किया होता तो शायद झामुमो ने भी कोलेबिरा में मेनन एक्का को समर्थन नहीं दिया होता.

अभी भी बात बिगड़ी नहीं है. भाजपा हारी, इसका जश्न मनाईये, लेकिन इसे झामुमो की हार के रूप में चित्रित करने से बाज आईये. झारखंड कांग्रेस और भाजपा के जंग का मैदान नहीं, यह तो विश्व पूंजीवाद से आदिवासी जनता के संघर्ष का मैदान है और अभी रहेगा. और कांग्रेस-भाजपा दोनों विश्व पूंजीवाद के पहरुये. वे आदिवासियों के प्रतिनिधि नहीं हो सकते. आदिवासियों का प्रतिनिधत्व तो झामुमो जैसी किसी पार्टी को ही करना होगा, आदिवासियों के साथ समाज के प्रगतिशील ताकतों को, वंचितों को अपने पक्ष में गोलबंद कर.