एलएआरआर अधिनियम के लिए सरकार को अधिग्रहण की सामाजिक-आर्थिक लागत और संभावित लाभों के प्रभावों को देखने के लिए सामाजिक प्रभाव मूल्यांकन (एसआईए) करने की जरूरत होती है. कानून के तहत, एसआईए अध्ययन को सार्वजनिक रूप से उपलब्ध दस्तावेज की तरह प्रासंगिक गांवों, सरकारी कार्यालयों और प्रासंगिक वेबसाइटों पर और ग्राम सभाओं में व्यापक रूप से प्रसारित और खुलासा किया जाना आवश्यक है. प्रस्तावित अधिग्रहण के साथ-साथ प्रभावित परिवारों की संख्या, निजी, आम और सरकारी भूमि की सीमा का विस्तार से वर्णन करना चाहिए, जिसमें विस्थापितों की संख्या भी शामिल हो. आकलन के लिए भी आवश्यक है कि सरकार प्रभावित परिवारों के विचारों को शामिल करने के लिए जन सुनवाई करे.
इस मामले में एसआईए की रिपोर्ट ने कई आवश्यकताओं का उल्लंघन किया, जैसा कि हमने पाया. यह सार्वजनिक रूप से उपलब्ध नहीं है, न ही यह किसी भी प्रासंगिक सरकारी वेबसाइटों, जैसे गोड्डा जिला वेबसाइट, या झारखंड भूमि विभाग की वेबसाइट पर रखा गया है. शाह जैसे कुछ ग्रामीणों ने अपने खास ‘स्रोत’ से एक प्रति प्राप्त की है.
हालांकि एसआईए ने कहा कि 5,339 ग्रामीण ‘परियोजना से प्रभावित’ थे. रिपोर्ट में मोतिया सुनवाई में केवल तीन ग्रामीणों और बक्सरा में 13 के विचारों का दस्तावेज है. सभी विचार परियोजना का पक्ष लेते हैं और एक-दूसरे को प्रतिबिंबित करते हैं. सुनवाई के एसआईए के खाते में किसी भी आदिवासी या दलित निवासियों के विचारों का कोई रिकॉर्ड नहीं है.
चार गांवों में, जहां सरकार अडाणी समूह के लिए भूमि अधिग्रहण कर रही थी, कई स्थानीय लोगों ने कहा कि 6 दिसंबर, 2016 को, एसआईए की जन सुनवाई के दिन उन्हें सुनवाई में भाग लेने से रोक दिया गया था. दलित किसान देवेंद्र पासवान ने कहा— “सुनवाई स्थल के आसपास बड़ी संख्या में पुलिस की तैनाती थी.”
ग्रामीणों ने कहा कि केवल उन लोगों को, जिनके पास कंपनी एजेंटों द्वारा जारी किया गया पीला कार्ड या ग्रीन कार्ड था, पुलिस द्वारा अंदर जाने की अनुमति दी गई थी. माली, मोतिया, पटवा और गंगटा में कई ग्रामीणों ने आरोप लगाया था कि पुलिस ने उन्हें रोक दिया था, बावजूद इसके कि उनके पास मतदाता आईडी और आधार कार्ड थे.
उन्होंने आरोप लगाया कि, उनके विरोध करने पर पुलिस ने लाठी-चार्ज किया और आंसू गैस छोडे. माली निवासी राकेश हेम्ब्रम ने कहा कि उनके पास बाहर इक्ट्ठा होने और विरोध करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था. हेम्ब्रम ने याद किया, “अगले दिन स्थानीय पेपर ने हमारे विरोध में उठाए हुए हाथों की एक तस्वीर छापी, लेकिन कहा कि ग्रामीण जमीन दने के समर्थन में हैं.” कई लोगों ने न्यूजलांड्री रिपोर्टर अमित भारद्वाज को बताया कि कैसे दिसंबर 2016 में, महिलाओं सहित कई ग्रामीणों को पीटा गया और एसआईए सुनवाई स्थल तक जाने से रोक दिया गया. मोतिया में ग्रामीणों के खिलाफ पुलिस हिंसा को वीडियो में कैद करने वाले एक स्थानीय पत्रकार ने भारद्वाज से कहा कि पुलिस ने वीडियो को मिटाने के लिए उसे मजबूर किया.
निवासियों का कहना है कि उन्हें एसआईए जन सुनवाई से बाहर रखा गया था.
झारखंड सरकार ने झारखंड स्थित संस्थानों और एसआईए आयोजित करने के लिए क्षेत्र के सिद्दो कान्हू मुर्मू विश्वविद्यालय समेत सार्वजनिक विश्वविद्यालयों को सूचीबद्ध किया है. लेकिन अडाणी प्लांट के एसआईए के लिए एएफसी इंडिया लिमिटेड नामक मुंबई स्थित परामर्श फर्म को जिम्मेदारी दी गई थी. एसआईए में, न तो एएफसी परियोजना की सामाजिक-आर्थिक लागत और न ही स्थानीय लोगों पर इसके प्रभाव का विवरण मिलता है, जो जरूर होना चाहिए था.
उदाहरण के लिए, एसआईए प्राथमिक जानकारी छोड़ देता है, जैसे क्षेत्र में कृषि आय, भूमि-स्वामित्व, लैंडहोल्डिंग पैटर्न, सिंचित और बहु फसल भूमि की सीमा, जमीन न रहने के बाद आर्थिक नुकसान, महिलाओं और बच्चों पर प्रभाव, खेत बटाईदार और कृषि मजदूरों की स्थिति, सामान्य संपत्ति संसाधनों की सीमा जैसे कि चराई के मैदान और जल निकायों और उन पर नुकसान के प्रभाव. एसआईए का उल्लेख है कि 97 फीसदी निवासी कृषि पर निर्भर हैं, लेकिन इस बात का कहीं उल्लेख नहीं है कि प्लांट में अपनी जमीन खो देने के बाद वे कैसे रहेंगे.
एसआईए ने नौ गांवों में “प्रभावित परिवारों” की संख्या 841 बताई है. इसमें केवल भूमिधारक शामिल हैं, लेकिन भूमि अधिग्रहण के चार गांवों में सरकारी आंकड़ों में अब तक 1,328 भूमिधारक हैं.
एसआईए यह भी दावा करता है कि इस बिजली प्लांट से ‘शून्य विस्थापन’ होगा और यह भी कहा जा रहा है कि आबादी भूमि अधिग्रहण की साइट से “बहुत दूर” हैं. हालांकि इस तरह के कथन का समर्थन करने के लिए कोई सबूत नहीं हैं. लेकिन, सरकार के दस्तावेज भी अडाणी समूह द्वारा किए गए दावों को दोहराता है. साथ ही साथ जिले के अधिकारियों का दावा है कि परियोजना के लिए भूमि अधिग्रहण से कोई भी विस्थापित नहीं होगा. गोड्डा डीसी के द्वारा मार्च 2017 के नोट में अडाणी के प्लांट के लिए “सार्वजनिक उद्देश्य” दर्ज है परियोजना से “शून्य विस्थापन” की बात कही गई है.
लेकिन हकीकत कुछ और है. उदाहरण के लिए, माली के संथाली परिवार, जिन्होंने 31 अगस्त, 2018 को अधिग्रहण का विरोध किया, उनकी पूरी जमीन प्लांट के लए अधिगृहीत होना है। उनके घर खेतों के पास हैं। सीता मुर्मू कहती हैं, “वे आज हमारे घरों को छू नहीं रहे हैं,” लेकिन बिना किसी भूमि के, हम यहां क्या करेंगे और हम कब तक जीवित रह सकते हैं? हमें ये जगह छोड़ने के लिए मजबूर किया जाएगा।”
अधिकारियों और अडाणी कर्मियों का दावा है कि बिजली प्लांट के लिए अधिग्रहित भूमि से किसी का भी विस्थापन नहीं होग. लेकिन संयंत्र स्थल से दलित और आदिवासी ग्रामीणों, जैसे कि पुनम सुगो देवी और कारू लय्या (दाएं) के घर घिरते हैं. देवी पूछती है, “गरीबों को कहां जाना चाहिए?”
देवी के पड़ोसी दीपक कुमार यादव ने कहा, “अडाणी के लोग हमें बताते रहते हैं कि हमें यहां से निकाल दिया जाएगा, यह अब सरकार का जमीन है. कोई जानकारी नहीं है कि वे हमें कहां फेंक देंगे.” साइट पर निर्माण कर्मियों ने पुष्टि की कि वे इस हिस्से को “अभी” नहीं ले रहे हैं, लेकिन जैसा कि एक ने बताया, “यह जल्द ही होगा”.
एक भूमिहीन बटाईदार यादव ने कहा कि वे भूमि अधिग्रहण से आर्थिक रूप से प्रभावित हुए हैं. काम करने के लिए खेत अधिग्रहित हो गया है. एसआईए रिपोर्ट में इन स्थितियों को अनदेखा किया गया. यादव ने कहा, “मैं भूमिहीन आदमी हूं और यहां पर जो खेती करते थे, वो सब ले लिया है. अभी बेरोजगारी पर बैठे हुए हैं, न तो खेती हो रहा है, न तो खेत में रोपाई हो रहा है. घर में बैठे हैं और काम भी करने जाते हैं तो बोलता है कि तुमलोग से अभी काम नहीं होगा..अभी सीजन था, हम कटनी करते, पैसा आता लेकिन अभी तो सब जमीन कंपनी का आदमी ले लिया…यहां का आदमी क्या करेगा. मजबूर होकर बैठे हैं.”
एलएआरआर अधिनियम के नियमों के मुताबिक, जिसे 2015 में जारी झारखंड सरकार के अपने एलएआरआर नियमों में दोहराया गया है, भूमि मालिक की सहमति या असहमति को जिला अधिकारी द्वारा सत्यापित किया जाना चाहिए. इंडियास्पेंड ने जिन किसानों से बातचीत की, उनमें से किसी के पास ये सत्यापन नहीं था.
इसके बजाए, कई भूमिधारकों, विशेष रूप से आदिवासियों और दलितों ने कहा कि उन्होंने बार-बार अपनी भूमि देने के लिए इंकार कर दिया था. गंगटा में, निवासियों ने जिला प्रशासन, राज्य के ऊर्जा विभाग और राज्यपाल के कार्यालय को भेजे गए ग्राम सभा प्रस्ताव की प्रतियां दिखाई.
31 अगस्त, 2016 को आयोजित बैठक में प्रस्ताव पारित किया गया, जिसमें कहा गया कि “ग्राम सभा ने सामूहिक रूप से निर्णय लिया है कि अडाणी प्लांट को किसी भी तरह से जमीन नहीं दिया जाएगा. इसके लिए जान भी देना पड़े तो हम ग्रामीण तैयार हैं.” यह संकल्प 2 सितंबर, 2016 को जिला प्रशासन द्वारा प्राप्त हुए और इसका प्रमाण भी है.
अगस्त 2016 में एक ग्राम सभा संकल्प ने बिजली प्लांट के लिए अडाणी को जमीन देने का विरोध किया. गोड्डा जिला प्रशासन द्वारा सितंबर 2018 के नोटिस (दाएं) ने ग्रामीणों को बिजली प्लांट के लिए गैरमजरुआ भूमि के लिए सहमति देने को कहा.
कई ग्रामीणों ने आरोप लगाया कि सरकार द्वारा बुलाई गई सहमति बैठकें त्रुटिपूर्ण और चालाकी से काम निकालने के लिए बुलाई गई थीं. चिंतामणि शाह ने कहा, “हमने उनका बहिष्कार किया, और हमारी सहमति कभी नहीं रही है.” उन्होंने सहमति कार्यवाही के लिए सूचना-के अधिकार अनुरोध दायर किए और उनको कहा गया कि सभी रिकॉर्ड वेबसाइट पर रखे गए हैं. शाह ने कहा, “वहां कुछ भी नहीं था.” इंडियास्पेंड ने इसकी पुष्टि की और पाया कि वास्तव में यह सच है.
अधिकारियों ने कहा कि ज्यादातर जमीन मालिकों ने मुआवजा लिया है, जो सहमति प्रदर्शित करता है. कई ग्रामीणों ने एक अलग परिप्रेक्ष्य की पेशकश की. मोतिया में एक दलित भूमिधारक ने प्रतिशोध के डर से नाम न छापने का अनुरोध करते हुए कहा कि सरकार ने अडाणी प्लांट के लिए भूमि अधिग्रहण को स्वतंत्र और सूचित सहमति के परिदृश्य के बजाय एक साजिशपूर्ण कार्य के रूप में प्रस्तुत किया है.
उन्होंने कहा, “मेरी जमीन के चारों ओर चार तरफ ऊपरी जातियों के लोगों की जमीन है. अडाणी के लोगों ने मुझे बताया कि मुझे जमीन देनी चाहिए, अन्यथा मैं फंसुंगा और कुछ भी नहीं प्राप्त करूंगा. मैंने अपनी जमीन दी और असहाय हालत में मुआवजा लिया.”
इस वर्ष की शुरुआत में अपने खेत खोने वाले सिकंदर साह का कहना था: “अडाणी के लोगों ने मुझे बताया कि अगर मैं सहमति नहीं दूं, तो मेरी जमीन चली जाएगी और कोई पैसा भी नहीं मिलेगा. मैंने बहुत अंत तक खुद को बाहर रखा और अंततः मुझे पीछे हटना पड़ा.” साह ने कहा कि “कंपनी के कर्मी मुझे अपने कार्यालय ले गए, जहां उन्होंने कुछ दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करवाए- लाचारी की हालत में मुझे करना पड़ा.”
मोतिया में एक दलित किसान, रामजीवन पासवान ने आरोप लगाया कि “अडाणी कर्मियों ने जबरन फरवरी, 2018 में मेरी जमीन अधिग्रहण कर ली. उन्होंने बताया, “अडाणी के अधिकारियों ने मुझे जातिवादी गाली देकर मुझ पर जोर दिया. कहा कि अगर तुम अपनी जमीन नहीं देते हो, तो तुम्हें इसी जमीन में गाड़ देंगे.” उन्होंने अडाणी कर्मियों दिनेश मिश्रा, अभिमन्यु सिंह और सत्यनारायण राउत्रे के खिलाफ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार रोकथाम) अधिनियम के तहत मामला दायर किया. पासवान ने कहा कि नौ महीने बाद भी पुलिस उनका बयान रिकॉर्ड कर रही है. भूमि के लिए भूमि मुआवजा शायद अडाणी समूह के लिए भूमि अधिग्रहण के लिए झारखंड सरकार के एलएआरआर अधिनियम के उपयोग का सबसे गंभीर प्रभाव, आदिवासी और दलित भूमि मालिकों के लिए अधिनियम में निर्धारित भूमि-के-लिए-भूमि मुआवजे सिद्धांत को विवादास्पद अर्थ में समझने का नतीजा है.
अधिनियम की दूसरी अनुसूची में खंड दो में कहा गया है: “.. परियोजना में, भूमि खोने वाला व्यक्ति अगर अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति से है तो अधिग्रहित भूमि के बराबर या 2.5 एकड़ भूमि, जो भी कम हो, के बराबर भूमि प्रदान की जाएगी. ” शेड्यूल कहता है, यह मुआवजा पैसे के अलावा है.
14 जून, 2017 को, गोड्डा जिला प्रशासन ने अधिनियम के कई मुआवजे और पुनर्वास प्रावधानों को लागू करने के मार्गदर्शन के लिए राज्य सरकार को लिखा, विशेष रूप से दूसरे अनुसूची का उल्लेख और साथ ही अधिनियम के धारा 41 की बात करते हुए जो अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए सुरक्षा उपायों से संबंधित है.
1 सितंबर, 2018 को, राज्य सरकार के निदेशक (भूमि सुधार) के.श्रीनिवास ने गोड्डा के अधिकारियों से कहा कि अनुसूचित जनजातियों और अनुसूचित जातियों के लिए भूमि-के लिए-भूमि मुआवजा खंड “केवल सिंचाई परियोजनाओं पर लागू होता है.” इस तर्क के लिए श्रीनिवास ‘भूमि के लिए भूमि’ मुआवजे के उस हिस्से में गए, जहां कहा गया है कि भूमि सिंचाई परियोजनाओं में जहां तक संभव हो, जमीन के बदले जमीन दिया जाएगा.
श्रीनिवास अब भूमि सुधार निदेशक नहीं हैं. उनके उत्तराधिकारी, ए मुथू कुमार ने इंडियास्पेंड को बताया: “मैं इस पर टिप्पणी नहीं कर सकता. यह सरकार का नीति निर्णय है.’’
जमीन के लिए जमीन मुआवजा सिद्धांत महत्वपूर्ण है, खासकर अनुसूचित जनजातियों के लिए. राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाती आयोग के अध्यक्ष नंदकुमार साई ने सितंबर 2018 में एक भूमि अधिकार सेमिनार के दौरान इंडियास्पेन्ड को बताया, “आदिवासी भूमि, जंगल और प्रकृति के साथ जुड़े हुए हैं.” गोड्डा के गांवों में संतालों के विचारों को प्रतिबिंबित करते हुए, साई ने कहा कि, “भूमि उनके जीवन, उनकी संस्कृति और उनकी पहचान का आधार है. ” भूमि संसाधनों, जनजातीय मामलों, और पर्यावरण और जंगलों के केंद्रीय मंत्रालयों के अधिकारियों के साथ आयोजित साई की एक बैठक के बाद, 29 अक्टूबर, 2018 में, जनजाती आयोग ने एलएआरआर अधिनियम के भूमि के लिए भूमि-मुआवजे को उन आदिवासियों को देने के लिए कहा, जिनको सरकार बाघ अभयारण्य से विस्थापित करती है. सरकार को कहा गया कि उन्हें कम से कम 2.5 एकड़ जमीन मुआवजे के रूप में दिया जाए.
रामनाथन ने कहा कि झारखंड सरकार के अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को जमीन के लिए भूमि मुआवजे से इनकार करने का निर्णय संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है, यानी समानता का कानून. चाहे यह एक सिंचाई परियोजना हो या बिजली प्लांट, परियोजनाओं में विस्थापन का तथ्य समान है. तो आप एक मामले में कैसे भूमि के साथ क्षतिपूर्ति कर सकते हैं, लेकिन दूसरे में नहीं?’’
रामनाथन ने कहा आदिवासी सामूहिक संघर्ष के कई दशक के बाद झारखंड को 2000 में एक अलग राज्य के रूप में गठित किया गया था और झारखंड सरकार आदिवासियों को इस तरह विस्थापित कर रही है, ये विशेष रूप से विडंबनापूर्ण है.’’
जब इंडियास्पेंड ने भूमि सुधार निदेशक कुमार से पूछा, सिंचाई परियोजनाओं को छोड़कर, क्या झारखंड सरकार के सभी एलएआरआर परियोजनाओं में भूमि के बदले भूमि मुआवजे से इनकार करेगी, तो कुमार ने कहा, “यह फिलहाल गवर्मेंट सर्कुलर है. मैं किसी भी भविष्य के सर्कुलर पर टिप्पणी नहीं कर सकता.”
गोड्डा की बात करते हुए,जब उनसे पूछा गया कि कितने दलित और आदिवासी परिवार अडाणी समूह में अपनी जमीन खो रहे हैं तो अधिकारियों का कहना था कि उन्होंने इस पर “जाति-गत विश्लेषण” नहीं किए हैं.
झारखंड में भूमि अभिलेख 1932 से अपडेट नहीं किए गए हैं. एसआईए रिपोर्ट समेत परियोजना के दस्तावेज अविश्वसनीय प्रतीत होते हैं. अधिग्रहण के “841 प्रभावित परिवारों” के एसआईए के मुताबिक, (यह केवल भूमि खोने वालों की गणना कर रहा है), दलित और आदिवासी परिवार संख्या 130, या लगभग 15 फीसदी हैं. लेकिन इलाके में जाने के बाद इस डेटा पर सवाल उठते हैं.
उदाहरण के लिए, एसआईए में माली गांव में प्रभावित आदिवासी परिवारो की संख्या “एक” बताई गई है. लेकिन जमीन का एक टुकड़ा, जो 31 अगस्त 2018 में विवादास्पद अधिग्रहण का लक्ष्य था, उसमें से छह भूमि मालिक परिवार हैं. तीन पीढ़ियों में लगभग 40 लोग इस भूमि पर निर्भर हैं. लेकिन एसआईए में इस जमीन के वंशज के बारे में लिखा है कि “ रिपोर्ट है कि वे वंशहीन हैं’’
भूमि के इस खंड के शीर्षकधारकों में अनिल हेम्ब्रम जैसे किसान शामिल हैं. किसानों ने यहां कहा कि वे एसपीटी अधिनियम की वजह से अपनी भूमि के जबरन अधिग्रहण के लिए मुआवजे के रूप में पेश किए गए पैसे का उपयोग वैकल्पिक भूमि खरीदने के लिए नहीं कर पाएंगे. अधिनियम में इस क्षेत्र में कृषि भूमि की खरीदी-बिक्री पर कई तरह से प्रतिबंध हैं. हेम्ब्रम ने कहा, “अगर सरकार हमारी जमीन लेती है, तो हम और हमारी आनेवाली पीढ़ियां हमेशा के लिए भूमिहीन हो जाएंगे. हमारा आदिवासी अस्तित्व खत्म हो जाएगा.”
आदिवासी किसानों ने समझाया कि अधिग्रहण के बाद वे हमेशा के लिए भूमिहीन क्यों बन जाएगें
रामनाथन ने कहा, “हमारी रिपोर्ट समेत कई अध्ययनों से पता चला है कि जिन समुदायों, विशेष रूप से आदिवासियों के जीवन उनके पर्यावास के साथ जुड़े हुए हैं, उनके पास निर्वाह क्षमता है, क्योंकि उनके पास प्राकृतिक संसाधन हैं. यदि आप इनसे इन्हें अलग कर देते हैं, तो आप इन्हें हर तरह से कमजोर करते हैं.”
गोड्डा में, यह कई लोगों के लिए एक वास्तविकता बन चुका है।
मोतिया में एक दलित किसान सुमित्रा देवी ने कहा, “जो हमारा है (जमीन) हम उसके पास भी नहीं जा सकते हैं. कंपनी ने इसके चारों ओर एक बाड़ बना दिया है.” उन्होंने आरोप लगाया कि अडाणी कर्मियों ने परिवार को अपनी जमीन छोड़ने की धमकी दी और अंततः जबरन उनकी जमीन को फरवरी में ले लिया. देवी ने कहा कि उनके परिवार ने इस आधार पर मुआवजा नहीं लिया है कि उन्होंने जमीन देने के लिए सहमति नहीं दी थी.
देवी ने कहा, “हमें पैसे का मोह नहीं है, हमें जमीन का मोह है. कैसे भी करके हमारी जमीन वापस दिलवा दीजिए।”
देवी ने कहा कि जमीन चली गई, और अब उनका परिवार अपने लिए और अपनी 10 गायों और बछड़ों का ख्याल रखने के लिए संघर्ष कर रहा हैं. देवी ने बताया कि वह गैस्ट्रिक और मधुमेह से पीड़ित हैं और मेडिकल टेस्ट और दवाइयों के लिए पर्याप्त पैसा नहीं है.
8 अक्टूबर, 2018 को, इस बातचीत के कुछ दिनों बाद देवी की मृत्यु हो गई.