लोकसभा ने सरोगेसी बिल 2018 को पारित कर दिया, जो 2016 के बिल का ही थोड़ा संशोधित बिल है. दोनों बिलों में इस बात पर जोर दिया गया कि यह बिल भारतीय मूल्यों को ध्यान में रख कर बनाया गया है, अर्थात उधार की कोख को व्यावसायिक न बना कर परोपकार की भावना से किया जाने वाला काम बना दिया गया है. इसके लिए जरूरी है कि गर्भ धारण करने वाली महिला संतान इच्छुक माता पिता की कोई निकट संबंधी हो. महिला को विवाहित होना तथा महिला को अपना एक बच्चा होना भी अनिवार्य है. यह भी शर्त है कि 25-30 वर्ष की महिला ने कभी अपना कोख उधार न दिया हो. सरोगेट मां बनने की इस योग्यता को साबित करने के लिए उसे मेडिकल सर्टीफिकेट भी देना जरूरी होगा. 2018 के बिल में इन सारी बातों के साथ एक और बात जोर दी गई कि कोख उधार देने वाली महिला के अपने भ्रूण का प्रयोग कोख धारण में नहीं होगा.

दोनों बिलों में कहा गया कि निःसंतान दंपत्ति में जो 23 से 50 वर्ष की महिला और 26 से 55 वर्ष की आयु का पुरुष हों, वे ही कोख उधार ले सकते हैं. इसके लिए अनिवार्य है कि स्त्री और पुरुष कानूनी रूप से विवाहित हों. पांच वर्ष से संतान प्राप्ति की कोशिश कर रहे हों. ऐसी दंपत्ति का कोई अपना या गोद लिया बच्चा न हो. यदि हो भी तो वह शारीरिक या मानसिक रूप से कमजोर हो या गंभीर बीमारी से ग्रसित हो.

2016 के कानून में कहा गया कि गर्भ धारण से पहले महिला को इससे होने वाले सारे प्रभावों को अच्छी तरह समझा दिया जाये तथा लिखित रूप से उसकी सहमति ले ली जाये. 2018 के बिल में उसमें यह भी जोर दिया गया कि यदि गर्भ धारण करने वाली महिला अंतिम समय में चाहे तो गर्भ धारण की अनिच्छा प्रकट कर सकती है.

सरोगेसी के विशषज्ञ अस्पताल तथा डाक्टरों को व्यावसायिक सरोगेसी करना मना है और वे मानव भ्रूण को संचित नहीं रख सकते है. अब उसमें यह भी जोड़ दिया गया है कि गर्भ धारण के बाद भ्रूण के लिंग की पहचान नहीं की जा सकती है, या लिंग निर्धारण के आधार पर गर्भ धारण न हो.

कोख उधार लेने वाले जोड़ों को इसके कारणों को बताते हुए एक आवेदन सक्षम विभाग को देना होगा, साथ ही गर्भ धारण करने वाली महिला का सहमति पत्र भी देना होगा. 90 दिन के अंदर सक्षम अधिकारी को अपनी मंजूरी देनी होगी. गर्भ धारक महिला को 16 महीने का वीमा अनिवार्य रूप से देना होगा जो प्रसव के बाद के महीनों में महिला का सहायक होगा. यह उस महिला का मेहनताना नहीं, उसकी आर्थिक सहायता होगी.

किसी भी तरह के नियमों के उल्लंघन पर जेल तथा आर्थिक दंड का प्रावधान दोनों बिलों में है.

सरोगेसी बिल की जरूरत क्या है? सरोगेसी बिल में 2010, 13, 14, 16 में संशोधन के बाद अब 2018 में पुनः इस नये अवतार में पारित किया गया है. इसके कई कारण बताये जाते हैं. सबसे पहले तो इस व्यवसाय में मिलने वाले पैसों से आकर्षित होकर गरीब महिलाएं अपने जीवन को दाव पर लगाती हैं. दूसरा, अनाधिकृत अस्पताल, डाक्टर तथा दलाल इस व्यवसाय में लग कर गरीब महिलाओं का शोषण कर अपनी जेबें भरते है. कोख बेचने वाली महिलाओं को उनके परिवार से दूर गुप्त हास्टलों में रखा जाता है जो उनके मानसिक यातना का कारण बनता है.

इंडियन कौंशिल आफ मेडिकल रिसर्च के अनुसार प्रति वर्ष लगभग दो हजार सरोगेट बच्चे इस तरह के व्यवसाय से पैदा होते हैं. सीआईआई के अनुसार सरोगेसी का व्यवसाय 2.3 बिलियन डाॅलर का है जो बिना किसी नियम को लेकर चलते हैं, केवल भारत की गरीबी के आधार पर. इसीलिए विधि आयोग ने अपने 228 वें रिपोर्ट में कोख किराये पर देने के इस व्यवसाय को बंद करने की सलाह दी है. पूरे विश्व में केवल तीन देशों में सरोगेसी व्यावसाय होता है. वे देश हैं रूस, यूक्रेन तथा केलीफोर्नियां. शेष विश्व में या तो सरोगेसी का प्रावधान नहीं, या फिर भारत की तरह परोपकार की भावना पर आधारित. अब भारत में इस बिल के कारण सरोगेसी करने वाले अस्पतालों को सूचिबद्ध होना होगा और वे अपनी सेवाओं के बदले पैसे ले सकते हैं. लेकिन सरोगेट करनेवाली महिलाओं को पैसा नहीं दिया जायेगा. इन सारी बातों पर निगरानी के लिए राष्ट्रीय तथा राज्य स्तरीय सरोगेसी बोर्ड अधिकृत हैं.

इन सारे तर्कों के आधार पर सरकार ने सरोगेसी को तो कायम रखा, लेकिन आधार बनाया परोपकार को. परोपकार शब्द के प्रयोग मात्र से मानों सरोगेसी का व्यवसायीकरण बंद हो जायेगा. इसके लिए उन्होंने हमारे धार्मिक ग्रंथों का भी उदाहरण दिया. किडनी, हर्ट आदि के खरीदारों और बिक्रेताओं के लिए भी सरकार ने कई नियम बनाये हैं. उनको मानना तो दूर, उसी की आड़ में बहुत बड़ा व्यवसाय भारत में चलता है. कोख का उधार देना महिलाओं के लिए उन उद्योगों की तुलना में ज्यादा खतरनाक है. बच्चा पैदा करने की मशीन की तरह देखी जाने वाली महिलाएं गरीब भी हैं. उनकी गरीबी तथा प्रजनन शक्ति ही उनके मानसिक और शारीरिक शोषण का बहुत बड़ा कारण बनता है. सरोगेसी से पैदा होने वाले सारे बच्चों को अच्छा जीवन मिल ही जायेगा, ऐसा जरूरी नहीं. कुछ बच्चों को उनके पालक माता पिता नहीं मिल पाते हैं,कारण उनकी विकलांगता या कानूनी अड़चन भी हो सकते हैं. सरकार ने इस पक्ष पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया है जो केवल उसकी ही जिम्मेदारी है.

सरोगेसी के लिए निकट संबंधी महिला को ही कोख देने का नियम बनाने के पीछे शायद नस्ल बचाने की गुप्त एजंडा ही काम कर रही हो, क्योंकि परोपकारी कोई भी महिला हो सकती है. निकट संबंधी हो या दूर की, गरीब हो या अमीर या किसी भी जाति की. इतनी सारी शंकाओं और भय के रहते भी हम क्यों कोख को उधार लेकर अपनी संतान पैदा करने का जोर देते हैं, इसके पीछे शायद खून का रिश्ता, वंश वृद्धि या उन्नत जाति का भाव रहता हो. औरत के पक्ष से सोच कर क्यों नहीं कोई कानून बनता है. कानून बनाने वाले पुरुष हैं, जो महिला की भावनाओं से अनभिज्ञ हैं. निःसंतान दंपत्ति के लिए हमारे देश में गोद लेने का कानून है. गोद लेने के लिए बच्चों की भी कमी नहीं. अपनी कुंठाओं को एक ओर रख कर निःसंतान दंपत्ति गोद लें तो कई बच्चों को घर मिलेगा, स्त्रियां शोषण से बचेगीं. वे दूसरे तरह के काम करके भी अपने जीवन के लिए अर्जन के अधिकार का उपभोग कर सकती हैं.