दिसंबर 2018 में भारत सरकार के गृह मंत्रालय ने एक आदेश के द्वारा देश की दस केंद्रीय संस्थाओं को यह अधिकार दिया कि वे लोगों के कंप्यूटरों में दर्ज सूचनाओं को देख सकते हैं, उनका विश्लेषण कर सकते हैं और उन पर निगरानी रख सकते हैं. यह अधिकार सूचना प्राद्योगिकी कानून 2000 की धारा 69 पर आधारित है. इन दस संस्थाओं में देश की सुरक्षा तथा जांच संस्थाएं हैं, जैसे सीबीआई, दिल्ली पुलिस कमिश्नर के साथ राजस्व सचिवालय तथा अन्य संस्थाएं. इन संस्थाओं को इस अधिकार को देने के पीछे सरकार का तर्क है कि यह कानून कोई नया कानून नहीं है. पिछली सरकार ने 2009 में ही देश की सुरक्षा को ध्यान में रख कर उन संस्थाओं को ये अधिकार दिये थे.

लेकिन दोनों सरकारों के आदेशों में एक अंतर निश्चित है. पहले देश की सुरक्षा की दृष्टि से जिस किसी भी संस्था को जिस किसी के भी कंप्यूटर को खंगालने की जरूरत होती थी, तो पहले गृह सचिव के आदेश की जरूरत होती थी, अब इस नये आदेश के अनुसार इस तरह के काम के लिए गृह सचिव के आदेश की जरूरत नहीं. दसों संस्थाएं लगातार या जरूरत के अनुसार किसी के भी कंप्यूटर को खोल कर देख सकती हैं, सूचनाओं को प्राप्त कर सकती हैं और अपने तरीके से उनका विश्लेषण भी कर सकती हंै. इस तरह इन संस्थाओं पर संसद का या न्यायपालिका का कोई नियंत्रण नहीं रह गया है. इस आदेश के बाद लोगों के बीच अपनी निजता के अधिकार के सीमित होने या निगरानी में होने को लेकर बेचैनी और डर बढ़ गया है.

आधार कार्ड में दर्ज व्यक्तिगत सूचनाओं के कारण होने वाले निजता के अधिकार के हनन के प्रश्न को लेकर लोग जब सुप्रीम कोर्ट गये, तो कोर्ट ने अपनी ऐतिहासिक फैसले में यह कहा था कि निजता का अधिकार एक संवैधानिक अधिकार है और इसका उल्लंघन नहीं हो सकता है. फिर कुछ दिन बाद इसी कोर्ट ने आधार और पैन कार्ड को जोड़ने की सरकार की नीति को सही ठहराते हुए सारी सरकारी योजनाओं के लाभुकों के लिए आधार नंबर को अनिवार्य बताया. निजता के अधिकार को मूलभूत अधिकार बताने वाले कोर्ट ने जब इस तरह का फैसला दिया तो केंद्र सरकार की शासकीय इच्छाएं पंख लगा कर उड़ने लगीं. उन्होंने छोटे माटेे आदेशों को छोड़ कर निगरानी के अधिकार का आदेश दे डाला, क्योंकि उनके लिए नागरिकों की निजता की सुरक्षा के सामने राष्ट्रीय सुरक्षा सबसे बड़ा दायित्व लगा.

देश की सुरक्षा को दृष्टि में रख कर देने वाले इस आदेश को गृमंत्रालय ने न तो संसद के पटल पर रखा और न इस पर कोई बहस ही हुई, जबकि उस समय संसद का शीतकालीन सत्र चल रहा था. उसने लोगों की राय जानने की कोई कोशिश नहीं की. इतनी सारी संस्थाओं को ऐसा अधिकार देने के पीछे के अपने उद्देश्य को बताते हुए गृह मंत्रालय का कहना है कि इस से गृह सचिव के काम का बोझ कम होगा और सूचनाओं के संकलन का काम विकेंद्रीत होगा. लोगों पर निगरानी का कानून क्या लोगों की निजता पर आक्रमण नहीं है या लोगों की आजादी को सीमित नही ंकर रहा है? यह प्रश्न उठना बाजिब है. चुनावी वर्ष के मुहाने पर खड़े देशवासियों को इसके पीछे सरकार की दूसरी मंशा ही नजर आ रही है. सबसे पहले तो यह निश्चित होना चाहिए कि राष्ट्र के अंतरगत केवल प्रभु वर्ग, उसके अफसर तथा बाबूलोग आते हैं, या आम लोग भी हैं?

यदि सरकार को बनाने वाली आम जनता से ही उसे खतरा हो तो इस तरह के कानून बनते हैं. आम जनता तो अपनी गरीबी, महंगाई, साफ हवा पानी और प्राकृतिक विपदाओं से जूझ रही है. राजनेताओं में ही अपनी कुर्सी को बचाने के लिए एक दूसरे के प्रति अविश्वास है. सरकारें तो पांच सालों के लिए आती है जाती है, लेकिन सरकारी अफसर तो स्थाई रहते हैं, जिनकों इस तरह के अधिकार देकर राष्ट्र सुरक्षा के नाम पर लोगों की निजता में तो तांक झांक करती ही है, साथ ही उसके बोलने की आजादी भी छीनती है. लोग फेसबुक, वाट्सएप, ब्लाॅग आदि के द्वारा अपने विचारों का आदान प्रदान करते हैं जो सरकार की निगरानी में रहेगा. डिजिटल इंडिया का नारा देने वाली वर्तमान सरकार सूचनाओं को इकट्ठा करने की अथाह इच्छा रखती है. अब उन्हीं सूचनाओं और आंकड़ों को अस्त्र बना कर संविधान प्रदत्त निजता तथा अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश लगा रही है. यह किसी फासीवादी राजनीतिक चेतना का ही परिणाम हो सकता है.

यहां पर येल युनीवरसिटी के प्रोफेसर स्टेनली की किताब ‘ द पालिटिक्स आॅफ यूस एंड देम’ में दिये गये फासीवाद की दस विशेषताओं को देखना हमारे लिए दिलचस्प होगा, क्योंकि वे सारी खूबियां हमारे देश की जनता के लिए भी प्रासंगिक हैं.

  • फासीवाद हमेशा एक काल्पिन भूत में रहता है और लोगों को वहीं ले जाने की कोशिश करता है.

  • फासीवादी राजनीति हमेशा प्रचार में विश्वास करती है, उदाहरण के लिए भ्रष्टाचार विरोधी प्रचार, यद्यपि वह खुद आकंठ भ्रष्टाचार में डूबी रहती है.

  • फासीवाद बौद्धिकता का विरोधी होता है.

  • समता उसकी शत्रु होती है.

  • बौद्धिकता विरोधी उसके प्रचार के शिकार होते हैं विवि तथा अन्य शिक्षण संस्थान.

  • उसके विचार से केवल एक आम आदमी ही जान सकता है कि क्या ठीक है और क्या गलत. शिक्षित व्यक्ति यह ज्ञान नहीं रखता.

  • आम आदमी में केवल पुरुष होते हैं, स्त्रियां, निम्न जाति, तथा अल्पसंख्यक उनमें नहीं होते.

  • प्रजातंत्र में व्यक्ति की आजादी व समता को अनिवार्य माना जाता है तो फासीवाद में शक्तिशाली लोगों का वर्चस्व होता है, अंततोगत्वा जिन पर कोई प्रश्नचिन्ह नहीं लग सकता.

  • फासीवाद हमेशा षडयंत्र के सिद्धांत पर विश्वास करता है.

  • फासीवाद हमेशा कानून के नियंत्रण की बात करता है, लेकिन इस कानून का प्रयोग अपराध के विरुद्ध नहीं बल्कि अन्यों के खिलाफ होता है.

इन विंदुओं का भाजपा सरकार की क्रिया कलापों से कितना गहरा साम्य दिखता है. ऐसे में यदि हम इसे फासीवाद की आहट कहें तो क्या गलत होगा ?