तीन वर्षों से मेरी डेढ़ घंटे की पाठशाला एक उरांव गांव में चलती है. लेकिन उस गांव में मुंडा समुदाय के भी लोग रहते हैं और आस पास ईसाई आदिवासी भी. पाठशाला में जाहिर है वैसे ही बच्चे या बच्चियां पढ़ते हैं जो बेहद विपन्न हैं आर्थिक दृष्टि से. गांव में कुछ अन्य जातियों के लोग भी रहते हैं. जैसे, यादव, महली आदि. लेकिन एक तरह के आर्थिक परिवेश के बावजूद उनके रहन सहन, खान-पान, बोलचाल, सबमें शिशुपन से ही सूक्ष्म अंतर दिखाई देने लगता है.
सरना बनाम ईसाई आदिवासी की चल रही तीखी बहस के बीच अचानक मैंने हाल में पाठशाला में शामिल एक लड़की से पूछा कि तुम मुंडा हो कि उरांव? वह बोल नहीं पाई. उसने जवाब दिया - ‘कच्छप’. बगल की लड़की बोल पड़ी- दादू, वह ईसाई है. मैंने फिर पूछा ईसाई तो हैं, लेकिन है तो आदिवासी ही. तो, मुंडा या उरांव? उस लड़की के चेहरे पर एक निर्दोष हंसी खेल गई.
मैं जानता हूं कि उसके परिवार के बड़े लोगों को इस बात की जानकारी जरूर होगी कि वे मुंडा हैं, उरांव हैं या खड़िया. लेकिन जाहिर सी बात है कि आने वाली कुछ पीढ़ियों के बाद यह पहचान और भी धूमिल पड़ जायेगी, यदि उन्हें सचेतन रूप से बचाया नहीं जायेगा. ऐसा भी संभव है कि आदिवासियत की मूल पहचान टाईटल बदल जाने के बावजूद बची रहे.
लेकिन, इन बच्चियों को देख कर ही इस बात का पता चलता है कि ईसाई बन जाने मात्र से आदिवासी समाज या किसी भी ईसाई बने अन्य समाज से गरीबी और विषमता खत्म नहीं हो जाती है. ईसाई बने आदिवासियों की बस्तियों में रहने वालों का सलीका जरूर बदला है, धार्मिक विश्वास भी बदले हैं, लेकिन आर्थिक हालात में बहुत ज्यादा बदलाव नहीं आया है. अपवाद स्वरुप ईसाई बने आदिवासी भी संपन्न दिखाई देते हैं, तो यह संपन्नता गैर ईसाई आदिवासियों में भी कुछ लोगों में आई है. पढ़े लिखों की संख्या अधिक होने की वजह से वे नौकरियों में भी दिखते हैं, लेकिन बड़ा बदलाव आया है, वह गैर आर्थिक क्षेत्र में ही.
मसलन, ईसाई बने आम आदिवासी अब ईश्वर की कृपा से बीमारी से मुक्त हो जाने में विश्वास करने लगे हैं. प्रकृति पूजक होने का जोर शोर से दावा करने के बावजूद वे प्रकृति के खुले प्रांगण की जगह चर्च के भीतर प्रार्थना करने लगे हैं. आदिवासी समाज में कनफेशन जैसी कोई परंपरा नहीं, क्योंकि उनमें अपराध बोध जैसी कोई मनःस्थिति होती ही नहीं, रही नहीं, जबकि ईसाईयों की आत्मस्वीकृति और क्षमा में आस्था रहती है.
यहां स्पष्ट कर दूं कि क्या सही है, क्या गलत, इस पर कोई मंतव्य देना हमारा उद्देश्य नहीं. बस जो बदलाव दृष्टिगत होने लगा है, उसे चिन्हित करना, और वह भी एक सकारात्मक उद्देश्य से, क्योंकि आदिवासी समाज पर मंडरा रहे संकट के लिए यह बेहद जरूरी हो गया है.
जैसे, अब हमे इस बात को खुल कर स्वीकार करना चाहिए कि ईसाई मिशनरियां अब शिक्षा संस्थानों या अस्पतालों का संचालन सिर्फ सेवा भाव से नहीं कर रहे. बाजारीकरण से वे भी प्रभावित हुए हैं. बस गुणात्मक फर्क है. मिशन द्वारा संचालित स्कूल भी अब गरीबों की पहुंच से बाहर हैं. मसलन मेरी पाठशाला के आदिवासी बच्चे वहां पढ़ सकें, इसकी कोई संभावना दिखाई नहीं देती, हालांकि गांव की जमीन पर ही एक विशाल मिशन स्कूल खड़ा है.
दूसरी तरफ यह भी सच्चाई है कि मिशन स्कूल अन्य निजी विद्यालयों से कम खर्चीला है. दूसरे के घरों में काम कर बहुतेरी लड़कियां किसी तरह फीस जुटा कर मिशन द्वारा संचालित स्कूलों में ही पढ़ पाती हैं. क्योंकि उन्हें वहां पढ़ना सहज और किफायती तो लगता ही है, वहां पढ़ाई भी निष्ठापूर्वक की जाती है. मेरी बेटी बोकारो में सेंट जेवियर स्कूल में पढ़ती थी. उसका फीस डीपीएस से आधा था. लेकिन इतना भी कम नहीं कि उसी स्कूल के चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी अपने बच्चों को वहां पढ़ा सके. गरीब बच्चों के लिए उस स्कूल में ही सुबह के शिफ्ट में एक स्कूल चलता था, पांचवी कक्षा तक के लिए. वह हिंदी माध्यम का. उसमें फीस न के बराबर था.
इसी तरह मिशन द्वारा संचालित अधिकतर अस्पताल अब अन्य निजी संस्थानों की ही तरह चलते हैं. यह जरूर ध्यान में आता है कि वे उन इलाकों में भी अस्पताल आदि चलाते हैं, जहां तक अन्य प्राईवेट अस्पताल नहीं पहुंचे हैं और न पहुंचेंगे, क्योंकि वहां के लोगों की ऐसी स्थिति ही नहीं कि वे उन अस्पतालों का खर्चा वहन कर सकें. बंगलोर जैसे महानगर में भी सेंट जान अस्पताल अन्य बहुतेरे निजी अस्पतालों से किफायती और बेहतर है. नियमगिरी की तड़ाई में कंध आदिवासियों के बीच मिशन का अस्पताल काम करता है और मामूली फीस लेकर वह चिकित्सा सुविधा देता है. इसके अलावा कुष्ट रोगियों के लिए, निराश्रित औरतों के लिए, बच्चों के लिए शुद्ध सेवा भाव से भी ईसाई मिशनरियां देश भर में संस्थान चलाती हैं. गरिमा के साथ मरने के लिए आश्रय देती हैं.
तो, जब तक ईसाई और गैर ईसाई आदिवासी बच्चे एक समान आर्थिक हालात में रहते हैं और एक साथ पढ़ते हैं, तो उनमें अंतर करना मुश्किल होता है. वे आपस में भी मिल जुल कर समभाव से रहते हैं, लेकिन जैसे-जैसे उनका परिवेश और आर्थिक आधार बदलता है, उनमें अलगाव और तीखी बहस शुरु हो जाती है. उन्हें महसूस होने लगता है कि मिशन द्वारा संचालित स्कूलों और अन्य शिक्षा संस्थानों में ईसाई आदिवासी बच्चों को ज्यादा छूट और सुविधाएं मिलती है जो उन्हें गैर ईसाई आदिवासी बच्चों को नहीं मिलती. उन्हें यह भी लगता है कि ईसाई आदिवासी एसटी कोटा से मिलने वाली सुविधाओं और आरक्षण का ज्यादा लाभ उठा लेते हैं.
और मिशनरियां इस तफरके को कम करने की कोशिश भी नहीं करती, बल्कि परोक्ष रूप से यह जताती हैं कि ‘जीेवन को बेहतर बनाना है तो प्रभु की शरण में आओ.’ हम कल्पना कर सकते हैं कि आदिवासी समाज के हजारों हजार वर्षों के इतिहास में यह दौर बमुश्किल ढ़ाई-तीन सौ वर्ष पहले शुरु हुआ होगा. इसके पहले संपूर्ण आदिवासी समाज वगैर आपसी धार्मिक असहिष्णुता के साथ ही जीता रहा होगा. एक तरह के सुख-दुख को झेलते हुए. अंग्रेजी साम्राज्यवाद के साथ ईसाई मिशनरियों का प्रवेश भारत में हुआ. चूंकि वह राजधर्म था, इसलिए शुरुआती दौर में न सिर्फ आदिवासी, बल्कि सवर्ण हिंदू समाज के लोग भी ईसाई बने. आदिवासियों में भी यह समझ पैदा की गई कि अपनी जमीन बचानी है तो ईसाई बन कर बचा सकते हो और उसी दौर में बड़ी संख्या में आदिवासी ईसाई बने.
लेकिन यह प्रक्रिया धीमी हो गई आजादी के बाद. सिर्फ आर्थिक रूप से अत्यंत विपन्न तबका और हिंदू वर्णवादी व्यवस्था से आक्रांत कुछ दलित और आदिवासी समुदाय के लोग ही अब भी ईसाई बनते हैं. लेकिन उनके साथ वहां भी बराबरी का व्यवहार होता हो, इस बात की गारंटी नहीं. यह तो खुले रूप में दिखाई देता है कि अमीर ईसाईयों के चर्च अलग और गरीबों के चर्च अलग होते हैं. हाल में मैं दिल्ली के साकेत इलाके के इग्नू रोड में रहा. मेरे किराये के घर के सामने कुछ दलित ईसाई रहते थे. सामने रात में एक भव्य चर्च की सलीब और सितारा एक्समस के दौरान चमकती दिखती थी. मैंने सामने के दलित परिवार के साथ चर्च जाने की इच्छा प्रकट की. उन्होंने बताया कि उनका चर्च दूर खान मार्केट में है. यह संभव है कि वह किसी दूसरी शाखा का चर्च हो.
अब इसमें बहस की ज्याद गुजांईश नहीं. सभी जानते हैं कि दक्षिण अफ्रिका के निग्रो आदिवासियों को गुलाम बना कर जब यूरोप और अमेरिकी बंदरगाहों पर ले जाया जाता था तो उन्हें सबसे पहले ईसाई धर्म की दीक्षा दी जाती थी, लेकिन उनका पाशविक शोषण भी किया जाता था और सैकड़ों वर्षों तक वह जारी रहा. ईसाई बन जाने मात्र से शोषण और उत्पीड़न का खात्मा नहीं हो जाता. गरीबी और विषमता कम नहीं होती और न इनके खिलाफ संघर्ष में ही कोई मजबूती आती है.
उल्टे इस धार्मिक विभाजन का लाभ उठा कर प्रतिगामी शाक्तियां यथास्थितिवाद का पोषण करती और गरीबी और विषमता के आधार पर टिकी इस व्यवस्था को मजबूत बनाती हैं. भाजपा पिछले दो दशक में झारखंड ही नहीं, आदिवासीबहुल पूरे इलाके में मजबूत राजनीतिक पार्टी बन गई. स्व. जयपाल सिंह मुंडा अंततोगत्वा ईसाई मिशनरियों के एजेंट घोषित कर दिये गये. शिबू सोरेन अपनी लोकप्रियता के बावजूद संथाल क्षेत्र के बाहर अपनी मजबूत पकड़ नहीं दिखा सके. तेज तर्रार नये उभरते नेताओं की भी अपनी-अपनी सीमाएं हैं. ईसाई आदिवासी के बीच से उभरे नेताओं की पकड़ गैर ईसाई आदिवासियों के बीच नहीं. और गैर ईसाई आदिवासी युवा नेता, समाजकर्मी भी मिशन प्रभावित इलाकों में पकड़ नहीं दिखा पाते.
क्या आदिवासियत इस धार्मिक विभाजन को पाट पायेगी? युवा आदिवासी नेतृत्व अलग-अलग आस्थाओं के बावजूद इस चुनौती को स्वीकार कर पायेगा? हम सब को कनफेशन/आत्म स्वीकृति और क्षमा याचना की जरूरत है.