अगड़ों को आरक्षण संबंधी संविधान संशोधन बिल संसद से पारित हो गया. राष्ट्रपति ने मंजूरी दे दी और अब आसन्न संसदीय चुनावों के मद्देनजर विभिन्न राज्यों, खास कर भाजपा शासित राज्यों में इसे यथाशीघ्र लागू करने की होड़ लग गयी है. हालांकि किसी भी दल में इस बेतुके और अतार्किक आरक्षण के विरोध में बोलने का साहस नहीं है. इसलिए इसे भाजपा का मास्टर स्ट्रोक माना जा रहा है. इसका मूल मकसद नाराज सवर्णों के गुस्से को शांत करना है; और कोई राजनीतिक दल या नेता उस गुस्से का रिस्क नहीं लेना चाहता है.

वैसे खुद सरकार मान रही थी कि यह आरक्षण संविधान के विरुद्ध है. तभी तो इसके लिए संविधान में संशोधन की जरूरत पड़ी.

इसे अदालती समीक्षा से गुजरना होगा. सुप्रीम कोर्ट में इसे चुनौती दी जा चुकी है. कब सुनवाई होगी और कब तक फैसला होगा, अनिश्चित है. हालाँकि कोर्ट ने इसके अमल पर रोक नहीं कगाई है. वैसे खुद सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय अधिकतम पचास प्रतिशत की सीमा भी आड़े आ सकती है. जो भी हो, सरकार का बड़ा मकसद सवर्णों को यह बताना है कि हम तो ऐसा करना चाहते हैं, पर क्या करें.

इस सन्दर्भ में एक मौजूं सवाल है- आर्थिक आधार पर आरक्षण को ‘सवर्ण आरक्षण’ क्यों कहा जा रहा है! या वास्तव में इस आधार पर दलित-पिछड़े-आदिवासियों को इसका अपात्र मान लिया गया है? मुझे नहीं मालूम. हालाँकि इसके लिए अधिकतम आठ लाख रुपये वार्षिक आय का प्रवधान कर सरकार ने जता दिया है कि अधिकतम सवर्ण ही इसके दावेदार होंगे. या इस दायरे में तो तीन चौथाई भारतीय आ जायेंगे, लेकिन तंत्र में अपनी पहुँच (या ‘जुगाड़’) और पहले से आगे बढ़े होने के कारण सवर्ण परिवारों के युवा ही इसका लगभग सारा लाभ ले जायेंगे.

वैसे ‘सवर्ण आरक्षण’ पर जारी बहस में एक बात अच्छी हुई है. यह कि कल तक जो जातीय आधार पर किसी तरह के आरक्षण के विरोधी थे, वे आरक्षण समर्थक हो गये! आरक्षण के विरोध में एक मजबूत तर्क ‘प्रतिभा हनन’ का दिया जाता रहा है. लेकिन गरीब सवर्णों को वही सुविधा देने की पेशकश पर कोई अब प्रतिभा हनन की आशंका नहीं जता रहा! हालाँकि यह दोहरापन पहले भी रहा है. इन आरक्षण विरोधियों को दूसरे प्रकार के ‘आर्थिक आधार’ पर आरक्षण से कभी विरोध नहीं रहा, यानी धनी परिवारों के बच्चे जब लाखों का डोनेशन देकर उच्च तकनीकी संस्थानों में दाखिला पा लेते हैं, तब इन्हें व ‘अयोग्य’ को दाखिला मिलना नजर नहीं आता था. ऐसे करोड़पति घरों के बच्चे भी अयोग्य डॉक्टर और इंजीनियर बन सकते हैं, यह चिंता भी नहीं सताती थी/है.

जो भी हो, देश की किसी पार्टी के किसी नेता में आज इस आरक्षण के विरोध में बोलने का साहस नहीं है. आरक्षण का प्रबल विरोधी जन्मना सवर्ण तो प्रसन्न है ही. आखिर उसके ही आक्रोश प्रदर्शन ने सरकार को इस दिशा में कदम उठाने को विवश किया है. यह और बात है कि आम चुनाव के पहले होना कुछ नहीं है. वैसे मेरे ख्याल से मोदी-शाह की जोड़ी बेवजह डर गयी. ये नाराज सवर्ण जाते भी कहाँ? क्या वे यूपी में स्पा-बसपा के साथ हो जाते; या बिहार में राजद के साथ?

यह तो तय है कि भाजपा और कांग्रेस मूलत: सवर्ण चरित्र और मानसिकता की पार्टियां हैं. उनका नेतृत्व और अधिकतर समर्थक भी इसी तबके से आता है. इसलिए स्वाभाविक ही ये आरक्षण विरोधी दल हैं. महज वोट के लिए इनके नेता मंचों से और बयानों से आरक्षण समर्थक होने का दावा/दिखावा करते हैं. आरक्षण या सामाजिक न्याय के सिद्धांत की समझ भी इन दलों के नेताओं में है, यह संदिग्ध है.

यही हाल कमोबेश कथित आरक्षण समर्थक दलों का भी है. वैसे भी, अपवादों को छोड़ कर, आरक्षण के समर्थक वही हैं, जो इसके लाभुक हैं; और विरोधी वही, जो उस लाभ से वंचित हैं. तभी तो ‘मंडलवादी’ नेता, चाहे लालू प्रसाद हों, अखिलेश यादव हों या रामविलास पासवान हों, समय समय पर गरीब सवर्णों के लिए आरक्षण की बात करते रहे हैं.

आरक्षण पर संसद में हुई बहस में बीजद सांसद भर्तृहरि देव ने एक सटीक सवाल पूछा कि क्या सरकार के पास यह जांचने का कोई तरीका है, जिससे परिवारों की आर्थिक स्थिति में होने वाले बदलावों की पहचान की जा सके? सही बात है कि किसी व्यक्ति या परिवार की आर्थिक स्थिति अचानक बदल सकती है. किसी गरीब परिवार के युवा को लाखों/करोड़ों के पैकेज पर नौकरी मिल सकती है, लॉटरी लग जा सकती है. कोई लाखपति व्यापर में घटा लगने से अचानक खाकपति हो जा सकता है. किसी प्राकृतिक आपदा में भी सम्पन्न लोग भी तबाह हो जाते हैं. इसी कारण आर्थिक आधार पर आरक्षण अतार्किक है. वैसे भी आरक्षण कोई गरीबी उन्मूलन योना नहीं है. गरीबों की सहायता के लिए सरकारें अनेक योजनायें चलाती ही हैं जिनका लाभ गरीब सवर्णों को भी मिलता है. लेकिन चूंकि चुनावबाज राजनीतिक दलों/नेताओं में जनता के सामने सही बात कहने का साहस नहीं है-और शायद समझ भी नहीं है- इसलिए आज कोई सवर्णों की नाराजगी झेलना नहीं चाहता, कोई सवर्ण विरोधी कहलाना नहीं चाहता. इसीलिए ऐसे गंभीर मसले पर खुल कर चर्चा भी नहीं हो रही. यह कोई अच्छी स्थिति नहीं है.

श्री अरुण जेटली ने संसद में कहा कि यह सरकार ‘गरीबों’ के लिए आरक्षण करने का ऐतिहासिक काम करने जा रही है. सचमुच? क्या अपने शासन काल के अंतिम दिनों में, मौजूदा संसद के अंतिम सत्र के अंतिम दिन यह महान काम अपने कोर समर्थकों (सवर्णों) की नाराजगी दूर करने का प्रयास नहीं है?

यह महज चालाकी नहीं, धूर्तता है.

सवाल यह भी है कि सरकारी क्षेत्र में नौकरिया कहाँ हैं? जो हैं, उनमें लाखों पद कहली पडी है. सिर्फ उन खाली पादपं को तत्काल भर दिया जाये, तो बिना आरक्षण के भी बेरोजगारों को राहत मिल जायेगी. क्या सवर्ण, जो खुद को ‘फॉरवर्ड’ भी मानते हैं, हैं भी, इतनी नासमझ हैं?