मीडिया की नैतिकता को लेकर एक प्रचलित मुहावरा यह है कि वे सिर्फ तथ्यों के वाहक हैं. और ये तथ्य भी सामान्यतः सरकारी सूत्रों से उन्हें थमाया जाता है और उसे ही विश्वसनीय माना जाता है. जन साधारण, यहां तक कि भुक्त भोगी द्वारा दी जानकारी भी ‘तथ्य’ नहीं और न विश्वसनीय माना जाता है.
मीडिया सामान्यतः तथ्यों का विश्लेषण करने से बचती है. उनके लिए एक ‘कैची’ शीर्षक ज्यादा माने रखता है. अब खूंटी में 29 जनवरी के अहले सुबह हुई पांच पीआईएलएफ उग्रवादी के ‘ढ़ेर’ होने की घटना पर ही जरा गहराई से गौर करें. जो तथ्य उन्हें पुलिस सूत्रों से प्राप्त हुए उसका सामान्य बुद्धि से ही विश्लेषण करें.
सबसे पहली बात तो यह कि 29 को हुई इस घटना को, जिसमें कम उम्र किशोर मारा गया और एक घायलावस्था में पकड़ा गया, के अगले दिन मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा संवाददाता सम्मेलन में कहते हैं - झारखंड में चुनाव के लिए नक्सलवाद चुनौती नहीं. यानी, सिर्फ एक दिन पहले झारखंड की राजधानी रांची से महज पचास-साठ किमी दूर पुलिस और सुरक्षा बलों की उग्रवादियों से मुठभेड़ होती है और पांच लोग मारे जाते हैं. और अगले दिन मुख्य चुनाव आयुक्त का बयान आता है कि नक्सली चुनाव के लिए चुनौती नहीं. यह विरोधाभासी नहीं?
यहां यह भी गौर तलब है कि जिस इलाके में उग्रवादियों के साथ मुठभेड़ होती है, उस इलाके में पिछले छह महीनों से पुलिस और सुरक्षा बलों का भारी जमावड़ा है. वह पूरा इलाका पुलिस की निगरानी में है. वहां कई गांवों में पुलिस छापे मार कर घर-घर की तलाशी ले चुकी है. सैकड़ों ज्ञात अज्ञात लोगों पर मुकदमें दर्ज किये गये हैं. बावजूद इसके उस इलाके में यदि उग्रवादी सक्रिय हैं, तो यह घोर आश्चर्य का विषय है.
अब या तो झारखंड उग्रवाद से बुरी तरह प्रभावित है, या फिर जैसा स्थानीय प्रशासन से मिले फीड बैक के आधार पर चुनाव आयुक्त कहते हैं - झारखंड में चुनाव के लिए नक्सलवाद चुनौती नहीं. दोनों बातें एक साथ नहीं हो सकती. हो यह रहा है कि सरकार एक तरफ तो उग्रवाद पर काबू पाने का क्रेडिट भी शहरी मध्यम वर्गके बीच लेना चाहती है, दूसरी अपने निहित स्वार्थों के इलाकों में जन आंदोलनों को, विरोध के स्वर को दबाने के लिए उसका इस्तेमाल भी.
स्थानीय प्रशासन और सरकार भी अनेकानेक बार यह दावा कर चुकी है कि झारखंड में नक्सलवाद पर काबू पाया जा चुका है. बावजूद इसके नक्सलियों से मुठभेड़ की घटनाएं जब तब होती रहती हैं और तथाकथित उग्रवादी मारे जाते हैं जिनमें किशोर वय के युवक भी होते हैं. और सामान्यतः इस तरह की वारदातें उन इलाकों में ही होती है, जहां सरकारी नीतियों का विरोध हो रहा होता है, जल, जंगल, जमीन को बचाने का आंदोलन चल रहा होता है.
इसका कुल असर यह होता है कि नागरिक क्षेत्र में, ग्रामीण इलाकों में सरकारी तंत्र को पुलिसिया हस्तक्षेप का ठोस आधार मिल जाता है. उग्रवाद को कुचलने के नाम पर जन आंदोलनों और विरोधों को कुचलने का अवसर. वरना इन मुठभेड़ों का कोई और सबब नहीं दिखाई देता.