14 फरवरी को कश्मीर के पुलवामा में हुए आतंकी कार्रवाई के बाद शहीदों के प्रति संवेदना के साथ प्रतिंहिंसा से भरे बयान आ रहे हैं. कंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने कहा - हमले का कड़ा जवाब दिया जायेगा. प्रधानमंत्री मोदी ने कहा - जो आग आपके दिल में है, वही मुझमें भी. जेटली का बयान था - आतंकियों को कभी न भूलने वाला सबक दिया जायेगा. तो, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने कहा है- हम हर जांच के लिए तैयार, युद्ध हुआ तो हम करारा जवाब देंगे.
उन भारी-भरकम बयानों के बीच यदि हम कहें कि नफरत से नफरत और हिंसा से हिंसा ही पैदा होती है, तो यह आवाज नक्कारे में तूती की आवाज जैसी गुम हो जायेगी. लेकिन हम फिर भी यही कहेंगे. क्योंकि आतंकवादी हिंसा का हिंसा से जवाब देकर ही हम पुलवामा तक पहुंचे हैं और इससे निकलने का कोई रास्ता नहीं सूझता. यह हमला फिदायनी हमला था जिसका कोई तोड़ किसी के पास नहीं. अब कोई अपने बदन को ही जिंदा बारुद में बदल कर कही पहुंच जाये और अपने आस पास को विस्फोट से उड़ा दे तो आप उसका क्या उपाय करेंगे? उपाय तो बस यह है कि कोई इस मनोदशा तक न पहुंचे कि खुद को मिटा कर भी दूसरे को मिटाने के आत्मघाती मंसूबे तक पहुंच जाये.
मोदी ने सत्ता में पहुंचते ही इस तरह के आतंकी कार्रवाईयों के जवाब में पाकिस्तान पर सर्जिकल स्ट्राईक का इस्तेमाल रामवाण की तरह किया. पता नहीं उस स्ट्राईक में कितने पाकिस्तानी सैनिक या उग्रवादी मारे गय. लेकिन उस ऐतिहासिक सर्जिकल स्ट्राईक के बावजूद दोनों तरफ लाशे गिर रही हैं. पुलवामा तो एक बड़ी त्रासदी थी जिसमें 43 सीआरपीएफ के जवान मारे गये, लेकिन उसके आगे पीछे भी दोनों तरफ ‘शहीद’ और ‘ढ़ेर’ होने का सिलसिला जारी है.
दरअसल, यदि सत्ता आम जनता को विधि सम्मत और सबके लिए बराबरी वाला शासन नहीं दे पाती तो पहले असंतोष पैदा होता है, फिर आक्रोश. अब यदि झगड़ा बराबरी वालों के बीच होता है तो खुला संघर्ष होता है और यदि संघर्ष दो असमान शक्तियों के बीच, तो कमजोर शक्ति आतंकवाद का सहारा लेती है. और हालिया इतिहास गवाह है कि इस आतंकवादी युद्ध का नुकसान जितना आंतंकवादी गिरोहों ने उठाया, उससे कम हमने भी नहीं.
विडंबना यह कि हर आतंकवादी कार्रवाई मे ंहम पाकिस्तान का हाथ देखते हैं, लेकिन पाकिस्तान के खिलाफ हमारी जंग उसकी जमीन पर नहीं, हमारी अपनी जमीन पर, हमारे अपने सरहदों के भीतर होती है और मारे जाते हैं या तो सुरक्षाकर्मी और हमारे अपने जवान या फिर हमारे देश के ही भटके हुए युवा, जिन्हें हम पाकिस्तान पोषित आतंकवादी की संज्ञा देते हैं. हम कभी इस विवेचना में नहीं जाते कि कश्मीरी जनता और वहां के युवाओं की आकांक्षा क्या है? क्या है उनके इस भीषण असंतोष की वजह? देश के भीतर इतने भारी पुलिस बंदोबस्त और सुरक्षाकर्मियों के रहते आतंकवादी कैसे फल फूल रहे हैं और कोई कार्रवाई कर गुजरते हैं.
कश्मीर की बात करें तो वहां का चप्पा-चप्पा सुरक्षा बलों की निगहबानी में है. हर जगह वे मौजूद हैं और वह भी दशकों से. बावजूद उसके कभी आतंकवादी जवानों के कैंप के भीतर घुसकर कार्रवाई कर जाते हैं, तो कभी सुरक्षा बलों के कारवां के भीतर घुस कर जवानों से भरे किसी एक बस को उड़ा देते हैं. पुलवामा की घटना में मारे गये जवानों में से अधिकतर छुट्टियां बिता कर वापस आये थे और डियुटी पर जा रहे थे. खबरों के अनुसार 2547 जवान 78 वाहनों में भर कर जम्मू से कश्मीर के लिए राष्ट्रीय मार्ग से गुजर रहे थे. कि अपराह्ण 3.15 में एक कार आती है, एक बस को ओवर टेक कर टकराती है और भीषण विस्फोट से उसके चीथड़े उड़ जाते हैं.
हमे यह मानने में कोई गुरेज नहीं कि यह काम स्थानीय कश्मीरी जनता के सहयोग से ही हुआ. और सेना के भारी बंदोबस्त के बावजूद उनसे अब तक निबटा नहीं जा सका है. इसका अर्थ यह हुआ कि कश्मीरी जनता में देशी हुक्मरानों और सेना के खिलाफ भारी गुस्सा और नफरत है. तो इस स्थिति से कैसे निकला जाये? सरकार के पास बंदूक के अलावा क्या रास्ता है? सेना और बंदूक का इस्तेमाल तो दशकों से हो रहा है. कभी हमने कोई और तरीका आजमाने की ईमानदार कोशिश की?
यहां तो आलम यह है कि भाजपा के नेतृत्व में चल रही वर्तमान सत्ता आतंकवाद को मोहरा बना कर छद्म राष्ट्रवाद का उन्माद पैदा करने में लग गई है. यदि वास्तव में आपको पूरा यकीन है कि पाकिस्तान की शह पर यह सब हो रहा है तो उसका मुंहतोड़ जवाब देने से रोका किसने है? लेकिन उनकी यह नीयत नहीं लगती. उसकी जगह इस घटना को बहाना बना भाजपा घृणा और वैमनष्य की राजनीति करने में लग गई है. फिलहाल तो टारगेट पर हैं कश्मीरी मुसलमान, लेकिन देर सबेर वे मुसलमानों को टारगेट करेंगे. और फिर उन सभी को जो उनके नीतियों के आलोचक हैं.
इसे इत्तफाक कहें या कुछ और, पुलवामा की घटना ठीक संसदीय चुनाव के पहले हुई है. क्या आतंकवादी देश में चुनाव नहीं चाहते? लोकतांत्रिक प्रक्रिया को बाधित करना चाहते हैं? या अपनी हार की संभावनाओं को देखते हुए मोदी पुलवामा के बहाने लोकसभा चुनाव को टालने का अवसर खोज रहे हैं? यह तो आने वाला वक्त ही बतायेगा.