चाहे छोटा नागपुर के राजा हो या अंग्रेजों का शासन, कोल्हान के हो आदिवासी अपनी स्वतंत्रता के लिए हमेशा लड़ते रहे हैं. उनके लगातार विरोध के लिए अंग्रेजों को इस क्षेत्र के पारंपरिक स्वशासन प्रणाली को मान्यता देनी पड़ी थी. अभी भी गावों में इन विद्रोहों की कहानी कही जाती है.
आजकल कोल्हान क्षेत्र की प्रमुख लोक सभा सीट, चाईबासा, काफ़ी चर्चा में है. क्षेत्र के वर्तमान सांसद भाजपा के हैं. इस क्षेत्र की एक विधान सभा सीट के अतिरिक्त अन्य सभी पर 2014 में झामुमो ने अपना झंडा गाड़ा था. यहाँ कांग्रेस और मधु कोड़ा (अब कांग्रेस) का भी बड़ा जनाधार है. अभी राज्य के विपक्षी महागठबंधन के लिए यही सवाल है कि इस लोक सभा सीट पर झामुमो प्रत्याशी देगा या कांग्रेस. और इसी खेल के बीच किसी की भी नज़र यहाँ के आदिवासियों के जन अधिकारों के हनन पर नहीं है.
राज्य के अन्य क्षेत्रों की तरह कोल्हान के लोगों के लिए भी राशन व सामाजिक सुरक्षा पेंशन जीवनरेखा समान है. साथ ही, अन्य जन अधिकारों जैसे नरेगा अंतर्गत काम का अधिकार, बच्चों के लिए आंगनवाड़ी सेवाएं आदि पर भी लोगों की निर्भरता है.
राशन से वंचित
पिछले एक साल में खूंटपानी प्रखंड के उलिराजाबासा गाँव में चार महीनों एवं छोटा बंकुआ में पांच महीनों से राशन नहीं मिला है. प्रखंड व ज़िला प्रशासन के समक्ष शिकायत करने के बावज़ूद भी लोग अपने राशन से वंचित हैं. आरगुन्डि गाँव में ही राशन दुकान होने के बावज़ूद यहाँ के लोगों को राशन लेने के लिए अनिवार्य आधार-आधारित बायोमेट्रिक प्रमाणीकरण के लिए 2.5 किमी दूर प्रखंड आना पड़ता है. उनके गाँव में इन्टरनेट नेटवर्क नहीं है. कई बार तो दिन भर बैठना पड़ता है एवं 2-3 दिनों तक लगातार जाना पड़ता है. लोगों के लिए आने-जाने का खर्चा और दैनिक मज़दूरी का नुकसान राशन लेने का हिस्सा बन गया है. कभी नेटवर्क कमज़ोर होता है, तो कभी सर्वर धीमा चलता है. अपनी स्वतंत्रता के लिए बार-बार लड़ने वाले हो आदिवासी अब अपने भोजन के अधिकार के लिए नेटवर्क, आधार और सर्वर के गुलाम बन गए हैं.
हाटगम्हरिया प्रखंड के देव जोड़ी गाँव के वृद्ध पचाए मुंडुईया अकेले रहते हैं और शारीरिक रूप से कमज़ोर हैं. उनके पास आधार नहीं है. उनका राशन कार्ड आधार से न जुड़े होने के कारण 2017 में रद्द कर दिया गया था. पिछले दो वर्षों में इस मुद्दे पर इतने हल्ला-हंगामा के बाद भी भाजपा सरकार तस-से-मस नहीं हुई. अभी तक उनका कार्ड नहीं बना है. खूंटपानी प्रखंड की शारीरिक रूप से विकलांग असाई बोदरा को फरवरी 2019 में राशन नहीं मिल पाया क्योंकि उनका कार्ड रद्द कर दिया गया है.
जिन्हें राशन मिलता भी है, उन्हें कटौती कर के दिया जाता है. इसी प्रखंड के कुइड़ा गाँव की राशन डीलर गाँव के अन्त्योदय कार्डधारियों के 35 किलो अनाज के प्रति माह कोटा से 5-7 किलो अनाज काटती है. प्राथमिकता कार्डधारियों के कार्ड पर दर्ज सभी व्यक्तियों के 5 किलो अनाज के प्रति माह कोटा से 0.5-1.5 किलो अनाज काटती है. कुइड़ा गाँव के आंगनवाड़ी केंद्र में बच्चों को कभी कभार ही खाना मिलता है. जामडीह पंचायत के नोगरा गाँव का केंद्र तो पिछले डेढ़ साल से बंद है.
काम के अधिकार का हनन
कोल्हान के गावों में रोज़गार की आवश्यकता समझना मुश्किल नहीं है. माता-पिता के साथ कई बार बच्चे भी मज़दूरी करते दिखाई देते हैं. लेकिन गावों में नरेगा अंतर्गत काम के अधिकार का हनन आम बात बन गयी है. इचापी टोले के अधिकांश नरेगा मज़दूरों का पिछले कुछ वर्षों में किए गए काम का भुगतान अभी भी बकाया है. खूंटपानी प्रखंड के छोटा बांकुआ गाँव की भी यही कहानी है. अब यहाँ अधिकांश मज़दूर नरेगा में काम करना छोड़ दिए हैं. नरेगा मज़दूर भी टेक्नोलॉजी का प्रहार भुगत रहे हैं. नोगरा गाँव के मंगला तुई को 2017 में किए गए 17 दिनों के काम का भुगतान अभी तक नहीं मिला है. उनका भुगतान उनके स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया के खाते में न जाकर गाँव से 35 किमी दूर चाईबासा स्थित ज़िला कोआपरेटिव बैंक के खाते में चला गया है. न उन्हें इसकी जानकारी है और न ही उन्होंने कभी यह खाता खोला था.
पेंशन से वंचित
हर गाँव में बड़े पैमाने पर वृद्ध व विधवा पेंशन से वंचित हैं. उलिराजाबासा गाँव के अनेक लोगों ने कई बार पेंशन के लिए आवेदन भी दिया था, लेकिन किसी की पेंशन स्वीकृत नहीं हुई. हाटगम्हरिया प्रखंड के केंदपोसी गाँव की वृद्ध बुधनी सिंकू को दो साल से पेंशन मिलनी बंद हो गई, क्योंकि वे अपना आधार पेंशन योजना में लिंक नहीं करवा पायी थी.
ठेकेदारों द्वारा शोषण
इचापी के कई आदिवासी परिवारों के लिए प्रधान मंत्री आवास योजना स्वीकृत हुआ है. लेकिन आधे से ज्यादा पैसा क्षेत्र का ही एक ठेकेदार हड़प लिया. नोगरा गाँव में अधिकांश मज़दूरों का जॉब कार्ड एक ठेकेदार ने जब्त कर के रखा है. ऐसी स्थिति लगभग हर गाँव में देखने को मिलती है. सोचने की बात है कि ये ठेकेदार, राशन डीलर आदि किसी न किसी राजनैतिक दल से जुड़े हैं.
राजनैतिक प्रतिबद्धता की कमी
कोल्हान के लोगों में जन अधिकारों के हनन और भाजपा के विरुद्ध क्रोध तो झलकता है. आने वाले लोकसभा और विधान सभा चुनावों में शायद इसका परिणाम भाजपा को भुगतना पड़ेगा. लेकिन, शोषण और अधिकारों के उलंघन को रोकने के लिए विपक्षी दलों की ओर से किसी प्रकार की कार्यवाई नहीं दिखती है. शायद वे लोगों में भाजपा के विरुद्ध क्रोध के भरोसे चुनाव जितने के उम्मीद में हैं. सवाल यह है कि क्या हो आदिवासी अपने संघर्ष के इतिहास को दोहराएंगे और विपक्षी दलों को जन अधिकारों के लिए लड़ने के लिए मज़बूर कर पाएंगे.