समाज का प्रभु वर्ग और अभिजात तबका, आदिवासियों को सदियों से ‘जंगली’ कहता रहा है. भाजपा और संघ परिवार उसे ‘वनवासी’, दूसरी तरफ आदिवासी समाज गैर आदिवासियों को ‘दिकू’. इन शब्दों का इस्तेमाल कभी-कभी विद्रूप, कभी आक्रोश व घृणा या गहरी वितृष्णा से किया जाता है. लेकिन इन तीनों का एक सीधा-सादा अर्थ भी है और इनका इस्तेमाल सहज भाव से उस रूप में भी होता है. ‘जंगली’ यानी, जंगलों में रहने वाला, ‘वनवासी’ का भी वही अर्थ, यानी जंगलों में निवास करने वाला और ‘दिकू’ यानी दिक-दिक करने वाला, शांति से जीवन यापन करने वाले आदिवासियों को तंगो परेशान करने वाला, उनके जीवन को अशांत करने वाला.
आदिवासियों को ‘जंगली’, ‘निशाचर’ आदि शब्दों से तो सदियों से भारतीय वांगमय में विभूषित किया जाता है, लेकिन वनवासी और दिकू शब्द की व्युत्पत्ति बहुत पुरानी नहीं है. आरएसएस ने आदिवासियों के लिए वनवासी शब्द को लोकप्रिय बनाया. वनवासी कल्यान केंद्र उनकी पुरानी संस्था है आदिवासी समाज के बीच काम करने की. उन्होंने झारखंड अलग राज्य को भी वनांचल अलग राज्य का आंदोलन कह कर गढ़ने की कोशिश की और झारखंड अलग राज्य को पहले वनांचल ही कहा. लेकिन जन दबाव से उसे झारखंड का नाम दिया गया.
दिकू शब्द की शुरुआत अंग्रेजों के प्रवेश के बाद शुरु हुई. अंग्रेजों के साथ हिंदू जमींदार, उनके कारिंदे, ठेकेदार आदि के लिए प्रारंभ में दिकू शब्द का प्रयोग आदिवासी करते थे, लेकिन बाद में सामान्य रूप में संपूर्ण गैर आदिवासी समाज को ‘दिकू’ कहा जाने लगा. यानी, वे लोग जो आदिवासी समाज के श्रमशील और आनंदमय जीवन में अपनी हरकतों से खलल डालते थे. सच्चाई यह कि आदिवासी समाज के बीच गैर आदिवासियों के जिस तबके ने प्रवेश किया, वह उनके श्रम और संसाधनों के दोहन के लिए ही. चाहे वे अंग्रेजों के जमाने के हिंदू जमींदार, कारिंदे, रेलवे ठेकेदार हों या आजादी के बाद प्रखंड कार्यालयों के खुलने के साथ आदिवासी इलाकों में प्रवेश करने वाले अधिकारी, अमीन, अमले, ठेकेदार आदि आदि. गांव में फेरी लगा कर चना चबेना और रंग बिरंगी गोलियां बेच कर महाजन बन जाने वाले लोग भी गैर आदिवासी समाज का ही हिस्सा था. और इसलिए ‘दिकू’ शब्द की व्यापित और बढ़ती गई.
यहां प्रसंग यह है कि जो भारतीय समाज और राजनीति आदिवासियों को ‘जंगली’ या ‘वनवासी’ मान कर इस बात की पुष्टि करती है कि जंगल ही आदिवासियों का अधिवास है, प्राकृतिक निवास स्थल है, वही समाज और उसके रहनुमा आदिवासियों को जंगल से निकालने पर तुले हैं और उनसे इस बात का प्रमाण मांग रहे हैं कि वे जंगल के वैध निवासी हैं. वे दावा करें कि वे जंगल में रह कर जीवन बसर कर रहे हैं. इसकी वे पड़ताल करेंगे कि उनका दावा कितना सही है. और हाल में सर्वोच्च न्यायालय ने करीबन ग्यारह लाख आदिवासियों के दावों को निरस्त कर उन्हें जंगल से खदेड़ देने का फरमान सुना दिया.
उन्होंने इस तथ्य को नजरअंदाज किया कि देशकी हरी पट्टी या वनक्षेत्र वही है, जहां आदिवासी रहते हैं. इसका अर्थ यह नहीं कि गैर आदिवासी इलाके या समतल क्षेत्र में जंगल नहीं थे. लेकिन वे गैर आदिवासियों की हवस के भेंट चढ़ गये, चाहे वे हिमालय की तराई वाले क्षेत्र हों या गंगा के कछार. सब खत्म हो गये शहरों और कस्बों के विकास के साथ. जंगल बचे रह गये तो आदिवासी इलाकों में, क्योंकि आदिवासियों का जंगल से रिश्ता एक उपभोक्ता और उपभोक्ता- माल की तरह नहीं था. वे जंगल के सहचर थे और उससे उतना ही लेते थे जितना उनके लिए अनिवार्य था.
आसंन्न चुनाव में भाजपा को आदिवासियों के आक्रोश का खामियाजा न भुगतना पड़े, इसलिए चार महीने के लिए इस फैसले पर कोर्ट ने ही राक लगा दी है, लेकिन भाजपा यदि सत्ता में लौट कर आई तो यह तय मानिये कि वन अधिकार कानून खत्म हो जायेगा. वजह साफ है, जंगल-पहाड़ में छिपी खनिज संपदा की दरकार है कारपोरेट जगत को और भाजपा कारपोरेट के हितों में काम करने वाली सरकार है. कहीं पहाड़ खोद कर उन्हें बाॅक्साईट चाहिए, कहीं से लौह अयस्क, यूरेनियम, कोयला और सोना. वह भी समाज के हितार्थ नहीं, कारपोरेट का खजाना भरने के लिए. दुनियां के अमीर लोगों में उनकी शुमारी के लिए.
सिर्फ भाजपा ही नहीं, कोई भी राजनीतिक दल सत्ता में आये, आने वाले दिनों में यह संकट बना रहेगा, क्योंकि आधुनिक विकास दृष्टि यही है - प्राकृतिक संसाधनों को निर्ममता से दोहन और देशी- विदेशी पूंजी निवेश. इसलिए जल, जंगल, जमीन को बचाने का संघर्ष सतत चलता रहेगा. और उसकी मूल भावना यह होनी चाहिए कि जंगल तो आदिवासी का ही अधिवास है और उसे इसके लिए किसी को प्रमाण देने की आवश्यकता नहीं. अधिक से अधिक ग्रामसभा इसकी संपुष्टी करेगी. वनों का प्रबंधन और समाज हित में उसके किसी तरह के उपयोग का निर्णय ग्रामसभा ही करेगी.
और यदि राजसत्ता में बैठे लोग, समाज का प्रभुवर्ग इस तथ्य को नहीं समझेगा तो ‘जंगली’ व ‘वनवासियों’ के लिए वह ‘दिकू’ ही बना रहेगा.