आरक्षण विशेष अवसर के सिद्धांत के कार्यक्रमों में एक है, परन्तु इस साल के दूसरे सप्ताह इस मूल सिद्धांत को कमजोर करते हुए प्रायः सभी दलों के समर्थन से सवर्णों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण का बिल लागू कर दिया गया. इस वजह से कहा जा सकता है कि सभी दलों ने आरक्षण की भावना को धक्का पहुंचाया है.
(औसत गरीबी की सीमा से दस गुणा बढ़ी हुई सीमा पर गरीबी की सीमा का निर्धारण कर सवर्ण आरक्षण के दायरे में लाया गया है. इस तरह भारत के 95 प्रतिशत लोग आरक्षण के दायरे में ला दिए गए हैं. क्या इससे यह भ्रम बना सकते हैं कि बेरोजगारी से या गरीबी से निवारण का यह कार्यक्रम है. जबकि आरक्षण से नौकरियों के अवसर नहीं बनते,ना ही पूर्ण रोजगार की दिशा बनती है. सवर्ण आरक्षण के प्रावधान से सामाजिक न्याय का सिद्धांत ही कमजोर पड़ता है.)
जबकि भारत की वंशानुगत और श्रेणीबद्ध जाति की व्यवस्था के संदर्भ में कम से कम राज्य के द्वारा बनाए / दिए गए अवसर जातीय विशेषाधिकार को नकारती चलेगी.
इसके लिए आरक्षण एक कार्यक्रम है. यह सामाजिक न्याय का कार्यक्रम है.
दलितों,आदिवासियों,ओबीसी,ईबीसी एवं महिलाओं के लिए आरक्षण की मांग होती रही है.(ईबीसी= एक्स्ट्रिमली / अत्यंत पिछड़ा वर्ग.)
बिहार में इनमे से सभी विभाग में आरक्षण है. मंडल प्रभाव के बाद केंद्र ने ईबीसी और महिला को तो नहीं, बाकी सब को आरक्षण दिया है. जातियों के विभाजन में भारतीय मुसलमान भी जाती के आधार पर विभाजित है. इनके भी दलित पिछड़े आरक्षण पाते हैं.
जाति के विरुद्ध दलितों का बौद्ध धर्म में जाना हुआ हुआ है. इन नव बौद्ध को आरक्षण का लाभ मिले,यह भी मांगा जाता है. जो आदिवासी ईसाई हुए हैं, उनको आरक्षण से वंचित नहीं किया जाता है.
विशेषाधिकार प्राप्त सवर्णों के मुकाबले अन्य जातियों को विशेष अवसर या आरक्षण देना, जाति के प्रभाव को कम करने या जनतांत्रिक वातावरण बनाने का एक कार्यक्रम है. जाति के प्रभाव को कम करने और जाति तोड़ने के लिए इसके साथ दूसरे प्रयास भी होने जरूरी हैं.
जैसे, अंतर्जातीय विवाह, सबकी शिक्षा, समान शिक्षा, जन्म, विवाह, मृत्यु आदि समय ब्राह्मणवादी कर्मकांडो का निषेध. पुनर्जन्म के सिद्धांत की निंदा.
सबके लिए नौकरी है नहीं. अर्थ की व्यवस्था को रोजगार, स्वरोजगार के लायक बनाया जा सकता है. स्वरोजगार के लिए अवसर पैदा करना भी एक जरूरी कार्य है.