[वर्ल्ड सोशल फोरम की पहल पर हैदराबाद (आंध्र प्रदेश) में 2 से 7 जनवरी, 2003 तक ‘एशियन सोशल फोरम’ के छः दिवसीय विराट आयोजन हुआ था। उसमें एशिया सहित यूरोप व अफ्रीका में जनता के संघर्षों से जुड़े करीब 17 हजार कार्यकर्ता-नेता शामिल हुए। 789 प्रतिनिधि विदेशों से आये। आयोजन में करीब 840 जनसंगठन शामिल हुए। उसमें करीब 14 सम्मेलन, 300 से अधिक कार्यशालाएं और 28 संगोष्ठियां हुईं। पूरे आयोजन का सूत्र वाक्य था - एनदर वर्ल्ड ईज पॉसिबुल – दूसरी दुनिया संभव है। यहाँ प्रस्तुत है 28 संगोष्ठियों में से एक के ‘आँखों देखा हाल’ का एक अंश]

अद्भुत दृश्य था। सब एक जगह इकट्ठा हुए। एक मंच। सबने उस मंच से बोलना स्वीकार किया। इसलिए सब वक्ता बने और उसके लिए सब श्रोता बने। उन्होंने प्रचलित शब्दावली में ‘भाषण’ दिया। लेकिन ‘संवाद’ और ‘विमर्श’ के लहजे में। उसमें देश-विदेश के समाजवादी थे, कम्युनिस्ट थे, मार्क्सवादी थे, नक्सली थे। गांधीवादी समाजवादी, लोहियावादी समाजवादी, जेपीवादी समाजवादी, लेनिनवादी समाजवादी, स्टालिनवादी समाजवादी और माओवादी समाजवादी से लेकर विशुद्ध जनवादी तथा लोकतांत्रिक समाजवादी नेता तक।

मार्क्सवादी समाजवादी : ‘मैं नहीं कह सकता कि मैं जिस रास्ते पर चल रहा हूं, उसकी मंजिल वही होगी, जिसका सपना आंखों में संजोये करीब 50 साल पहले मैंने अपनी यात्रा शुरू की थी। सचमुच मैं उस समाजवाद के भविष्य के बारे में कुछ भी बताने में असमर्थ हूं, जिसे एकमात्र विकल्प मान कर मैंने 20वीं सदी के पूर्वार्द्ध में अपनी यात्रा शुरू की थी और आज भी उसी यात्रा में हूं। मैं मानना चाहता हूं कि मैंने उस यात्रा के लिए वर्षों पहले जो राह चुनी थी, कमोबेश उसी रास्ते पर चल रहा हूं हालांकि चलते-चलते कई बार मुझे लगा कि यह राह मेरे लिए अजनबी सी हो गयी है। इसी रास्ते पर चलना मेरी समाजवादी मंजिल की प्रेरणा नहीं, साथियों के साथ रहने की मजबूरी बन गयी है। मैं कम्युनिस्ट हूं लेकिन भविष्य के समाजवाद का चेहरा गांधी विचार के आईने में पहचान पाता हूं। हालांकि हमारे साथी-मित्र इसे कतई मंजूर नहीं करना चाहते। मैं तो भविष्य के समाजवाद को लाखों ‘स्थानीय सरकारों’ के गठन में देखता हूं। मैंने यह भी महसूस किया कि हमें कुछ आदर्श-सिद्धांतों पर टिकना होगा। जैसे, विकास का अर्थ अधिकाधिक ‘उपभोग’ नहीं होता, भौतिकवाद की जगह अध्यात्मवाद में रास्ते की तलाश, प्रकृति का अंधाधुंध दोहन नहीं बल्कि उसके टिकाऊपन और नित नवीकरण की बचाने की नीति, आदि।’

माओवादी समाजवादी : भविष्य के समाजवाद के लिए इतना समझ लेना बेहतर होगा कि सिर्फ कुछ व्यक्तियों के दिमाग से समाजवाद नहीं आयेगा। साम्राज्यवाद के नये छल-प्रपंच को ध्यान में रख कर समाजवाद के लिए नया साझा रास्ता बनाना होगा। सोवियत संघ के विघटन के बाद से साम्राज्यवादी कहते आ रहे हैं कि शीतयुद्ध का पुराना दौर खत्म हो गया। लेकिन इराक और अन्य देशों में जो कुछ हो रहा है, उससे सिर्फ यह लगता है कि अब पूंजीवाद ने खुद को पूरी तरह से बेनकाब कर लिया है - वह नंगा होकर ‘नंगई’ पर उतर आया है। सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिका विकास के किसी भी बुलंदी पर पहुंच गया हो, उसका उद्देश्य या लक्ष्य क्या है? समाजवाद के सपने के विरोध के सिवा? देश-दुनिया की पूंजीवादी ताकतें सिर्फ साम्राज्यवाद का नया चेहरा बना रही हैं - कोई नया विकल्प नहीं पेश कर रही हैं। भविष्य के समाजवाद के निर्माण के लिए हमें साफ़ तौर से मंजूर करना होगा कि ‘मार्क्स की किताब हमारे लिए बाइबिल नहीं है।’

गांधी-लोहिया-जेपीवादी समाजवादी - ‘समाजवाद के पिछले इतिहास का क्या भविष्य है, यह मैं नहीं जानता लेकिन इतना कह सकता हूं कि भविष्य का एक समाजवाद हो सकता है, बशर्ते उसमें ‘सुख’ परिभाषित हो। सबके लिए ‘सादगी’ की सुनिश्चत परिभाषा हो, तो साम्राज्यवाद और पूंजवादी वैश्वीकरण का डर फट जायेगा। समाजवाद के दो सूत्र पहले भी सर्वमान्य रहे और आज भी हैं। एक यह कि मनुष्य-मनुष्य के बीच आर्थिक और सामाजिक समानता हो। दूसरा, सम्पत्ति पर समाज की मिल्कियत हो। लेकिन ‘विकल्प’ के अनुरूप रास्ता बनाने के लिए यह स्वीकार करना होगा कि आधुनिक विकास के क्रम में समाज का अर्थ ‘अकूत सम्पत्ति’ से जुड़ गया है - यह गलती संभवतः मार्क्स के विचार से निकली। दूसरी गलती, इस मूल धारणा में है कि समाजवाद के लिए किसी देश का धनी होना जरूरी है, गरीब देश में समाजवाद संभव नहीं है। इसकी वजह से यह निष्कर्ष प्रभावी है कि समाजवाद पहले अमीर देश जर्मनी में आया होता, तो अच्छा होता। पहले गरीब सोवियत संघ में आया - शायद इसीलिए समाजवाद ‘फेल’ हुआ। इस धारणा और निष्कर्ष के कारण ही यह तथ्य छिपा रह जाता है कि किसी धनी देश, भले ही वह साम्राज्यवादी न हो, में पैदा होनेवाला ‘सरप्लस’ (पूंजी) कुछ ही पूंजीपतियों के हाथ में जाता है, तो वह उस देश में गरीबी रेखा से नीचे का वर्ग पैदा करता है। अगर वह धनी देश सरप्लस पैदा करते हुए भी अपने यहां गरीबी रेखा से नीचे का वर्ग पैदा नहीं होने देता, तो इसका साफ मायने है कि वह देश दूसरे देशों को लूट रहा है - उसके सरप्लस में दूसरे देशों की लूट से अर्जित धन शामिल है। यही उस देश के लिए वैश्वीकरण की उस धारणा को स्वीकार या समर्थन करने की प्रेरणा (या मजबूरी) बनता है, जो साम्राज्यवादी वर्चस्व की बुनियाद है। इसलिए भविष्य के समाजवाद का कोई वैश्विक आधार बनाना है, तो लोकतंत्र के इन सूत्रों को स्वीकार करना होगा - धन की सीमा होगी, भुखमरी नहीं होगी, रोजगार मूल अधिकार होगा। भविष्य के समाजवाद के लिए हमें ‘सादगी’ का कोई न कोई पैमाना स्वीकार करना होगा। हर देश और समाज में हर इन्सान के अस्तित्व (आजीविका, प्रतिष्ठा और सृजनशीलता) के लिए ‘न्यूनतम जरूरत’ की ऐसी परिभाषा मान्य हो, जो दूसरे की न्यूनतम जरूरत को न निगले और वह इतना न्यूनतम भी न हो कि सामाजिक या सार्वजनिक जिंदगी में जीवंतता ही न रहे।’

लोकतांत्रिक समाजवादी - ‘विश्व भर की विभिन्न समाजवादी व्यवस्थाएं - पूर्व के सोवियत संघ की हो या वर्तमान चीन की - जनता को अपना भविष्य तय करने के लिए ‘खुद निर्णय करने का अधिकार’ सौंपने में विफल हुईं। दूसरी ओर पिछले 50 सालों में वैज्ञानिक एवं तकनीकी क्षेत्र में जो आविष्कार हुए, उनसे पूंजीवादी व्यवस्था मजबूत हुई और उसकी विनाश की ताकत भी बढ़ी। पूर्व के सोवियत संघ पर इस पूंजीवादी व्यवस्था की जीत और वर्तमान चीन पर इसका ‘सिर चढ़कर बोलता असर’ उन आविष्कारों का नतीजा है।’

नेपाली समाजवादी - भविष्य के समाजवाद के लिए प्रचलित समाजवाद को ‘यूरो सेंट्रिज्म’ के दायरे से मुक्त कीजिए। पूंजीवाद कभी प्रगतिशील नहीं रहा। इसलिए इस ‘भ्रम’ से निकलिए कि पूंजीवाद के उत्कर्ष के बाद ही समाजवाद आयेगा।

ब्राजीलियन समाजवादी - ‘‘जनता की शक्ति के प्रति हमारी आस्था में ही संघर्ष और सफलता के बीज हैं। भविष्य के समाजवाद के लिए हमें जनता के बीच जाना होगा - जनता ही रास्ता बतायेगी। विश्व भर में ग्रासरूट स्तर पर चल रहे लाखो जनांदोलन इसके प्रमाण हैं। जनता से ही हम ‘विकल्प’ और ‘विरोध’ के बीच के संबंधों को जान-समझ सकते हैं।’’

‘जनवादी’ समाजवादी - ‘लोकतंत्र के बिना समाजवाद संभव नहीं है।’

विश्ववादी समाजवादी - ‘‘भविष्य के समाजवाद के लिए ‘समग्र लोकतंत्र’ ही बुनियादी आधार हो सकता है। इसके लिए स्थानीय, क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समग्र लोकतंत्र के विविध आयामों की तलाश में लोग मिल-बैठकर अपने विचारों, अपने अनुभवों एवं संघर्षों से एक दूसरे से अवगत करायें। यह वसुधैव कुटुम्बकम की अवधारणा विकसित करने का ऐसा तरीका हो सकता है, जो पूंजीवादी वैश्वीकरण के खिलाफ सबसे कारगर हथियार होगा।’’

संगोष्ठी में शामिल तमाम नेता-कार्यकर्ताओं ने जो कहा उसका सार

20वीं सदी के समाजवादी संघर्ष, सफलता और विफलता का साझा आकलन किये बिना भविष्य के समाजवाद के बारे में ईमानदारी से सोचा नहीं जा सकता। हम तब तक भविष्य के समाजवाद के बारे में सोच नही सकते, जब तक हम यह आकलन न कर लें कि उस समाजवाद का क्या हुआ, जिसकी कल्पना - सपना - का दामन थामे हमने 20वीं सदी की यात्रा शुरू की। हमने अपनी कल्पना के समाजवाद के लिए जो रास्ते चुने या बनाये, क्या वे रास्ते - वही रास्ते - सही थे? इससे दीगर सवाल यह कि हम आज जिस रास्ते पर चल रहे हैं, क्या वह वही रास्ता है, जिसे हमने चुना था? कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि मंजिल के लिए रास्ता चुनते-चुनते, हम रास्ते के अनुसार मंजिलें चुनने लगे!

20वीं का भी क्या नजारा था! जितने लोग, उतने समूह। मंजिल एक जैसी लेकिन राहें अलग-अलग। जितनी राहें, उतने कारवां। हममें जो जिस राह पर था, उसने उसे ही समाजवाद की मंजिल तक पहुंचने का एकमात्र रास्ता माना। अपने-अपने रास्ते के आकर्षण – मोह - से बंधे लोग दावा करने लगे कि वे जिस मंजिल की तलाश में हैं, वही समाजवाद है - असली समाजवाद। बाकी सब ढोंग है, छल है, प्रपंच है। मंजिल तलाशने के क्रम में अपनी राह बनाने के लिए कई ने ताकत के बल पर दूसरों के रास्तों को ध्वस्त करना जरूरी माना – इसे अपनी सफलता की अनिवार्य शर्त्त माना। दूसरों की राह - यानी अपने ही जैसे समाजवाद की मंजिल की तलाश में भटकते लोगों की राह को काटने की धुन में यह देखा नहीं कि खुद की राह बदल गयी! राह काटने की धुन ऐसी मंजिल बन गयी कि समाजवाद की अपनी मंजिल याद नहीं रही - समाजवाद का जो चेहरा उनकी आंखों में झिलमिल कर रहा था, वही गुम हो गया! सो सदी गुजर गयी लेकिन उनकी यात्रा पूरी नहीं हुई। कुछ पड़ाव समाजवाद की शक्ल में नजर आये लेकिन जल्द ही मालूम हो गया कि वे समाजवाद की मंजिल नहीं थे। वे ऐसे पड़ाव थे, जहां कुछ समय के लिए सिर्फ आराम किया जा सकता था। जब थकन मिटी, होश आया और वे आगे की यात्रा के लिए उठे, तो बोध हुआ कि वे जहां रुके थे, वे उनके अपने रास्तों के किनारे के विश्राम-स्थल नहीं थे!

भविष्य के समाजवाद के बारे में हम कुछ भी कह लें, जनता हम से यह सवाल पूछेगी ही कि क्या वह वैसा ही समाजवाद नहीं होगा, जिसे हमने सोवियत संघ में रूपायित होते देखा था? और, उसका जो हश्र हुआ, वह भी तो हमने देख लिया? क्या हम-आप भविष्य के जिस समाजवाद की बात कह रहे हैं, उसका चेहरा और हश्र उससे अलग है या होगा? हम भविष्य के समाजवाद के नाम पर वही पुराने शब्द और मुहावरे नहीं दोहरा रहे हैं?’

बहरहाल, हम भविष्य के समाजवाद की कोई साझा रूपरेखा बनाने की कोशिश में समर्थ हों असमर्थ, समाजवाद के सपने जिंदा हैं और रहेंगे। क्योंकि जनता न्याय और समानता चाहेगी - चाहती रहेगी।