इस बार की यात्रा में हम सोमनाथ और द्वारिका भी गये. मैं सामान्यतः धार्मिक स्थलों पर नहीं जाता, क्योंकि मुझे वहां भगवान के नहीं मूढ़ता और प्रपंच कथाओं के दर्शन होते हैं. लेकिन कभी कभी जाना हो ही जाता है और यह समझने की कोशिश करता हूं कि क्या चीज भक्तों और सामान्य जनों को वहां खींच ले जाती है? क्योंकि कथित रूप से आस्था और आध्यात्म के इन स्थलों पर परले सिरे की भौतिकता दिखाई देती है. मंदिर के प्रवेश द्वार पर पहुंचते ही पूजन सामग्री, फूलमाला, प्रसाद के नाम पर घटिया सामग्री बेचने वाले आपके पीछे पड़ जाते हैं. उनसे पीछा छूटते ही पंडे पुजारी आपके पीछे लग जायेंगे जो सुविधा पूर्वक मंदिर के देवता के दर्शन कराने का ठेका लेते हैं. यदि आप उनकी सेवाओं को लेने से इंकार करेंगे तो वे आपका अपमान भी कर सकते हैं.
भीतर जाने पर आपको अजीबोगरीब दृश्य देखने को मिलेगा. मंदिर के बाहर के किसी चैखट पर कोई पंडा कटोरे में चंदन का घोल लिये और हाथ में तिलक लगाने वाली कील लिये बैठा दिखेगा. वह आपके सर पर छाप लगायेगा और बदले में उम्मीद करेगा कि आप उसकी थाली में कुछ सिक्के डालें. मैंने देर तक सोमनाथ मंदिर के प्रांगन में माथे पर टीका लगाते और बाद में सिक्कों को गिन कर कमर में खोंस कर रखी थैली में रखते देखा. किसी काउंटरनुमा जगह पर गंगाजल अपकी हथेली में देने के लिए एक पुजारी तैनात रहता है. वहां लोग जायेंगे, गंगाजल और तुलसी की एकाध पत्तियां प्राप्त करेंगे और वहां भी कुछ दान कर पुण्य कमायेंगे. प्रसाद की अनेक श्रेणियां होती हैं. पचास रुपये से लेकर हजार दो हजार रुपये तक की. उनमें मात्रा का फर्क होता है लेकिन उनकी क्वालिटी एक जैसी होती है. बेस्वाद और शुद्धता की दृष्टि से संदेहास्पद. उन्हें न खाते बनता है न फेंकते, क्योंकि आपकी न सही दूसरों की आस्था को धक्का पहुंचने का खतरा रहता है.
मदिर प्रांगण में कभी कभी गाईड-पुजारी के पीछे घूमते झुंड भी दिखेंगे जिन्हें तरह तरह की अकल्पित-कल्पित कहानियां सुनाई जाती हैं. सोमनाथ में तो शाम में एक लाईट और साउंड कार्यक्रम भी होता है जैसा लाल किला और हैदराबाद के करीब के एक किले में. सोमनाथ मंदिर के प्रांगण में अमिताभ बच्चन के स्वर से सजा यह कार्यक्रम देखने का अवसर मिला. इतिहास और आघ्यात्मिक कथाओं का अद्भुत मिश्रण. आश्चर्य होता है कि अब भी इन कथाओं को सुना जाता है और उन पर विश्वास किया जाता है. मसलन सोमनाथ की कथा यह बताई गयी कि सोम यानी चंद्र देवता ने प्रजापति यक्ष की सत्ताईस पुत्रियों से विवाह किया. सुनते हुए ख्याल आया कि बड़ी पुत्री यदि सत्ताईस वर्ष की होगी तो एक वर्ष के अंतराल पर पैदा होने वाली बेटियों में सबसे छोटी विवाह के वक्त पैदा ही हुई होगी. या यह हो सकता है कि यक्ष की कई पत्नियों से उत्पन्न कन्यायें होंगी. खैर, कथा यह कि चंद्र देव ने विवाह तो सत्ताईस कन्याओं से किया, लेकिन वे सबसे समान रूप से प्रेम नहीं करते थे. इसलिए एक को छोड़ अन्य पत्नियां क्षुब्ध रहती थीं. उन्होंने अपने पिता से शिकायत की. पिता ने अपने दामाद को समझाया कि प्रेम करने में भेद-भाव न करे. लेकिन वे नहीं सुधरे तो शाप दिया कि तुम क्षीण होते होते मिट जाओगे.
चंद्रदेव घबराये. अन्य देवताओं की सलाह पर शिव की पूजा की. तपस्या की. शिव प्रकट हुए और बोले कि हम तुम्हे शाप से मुक्त नही ंकर सकते. लेकिन यह वर दे सकते हैं कि कृष्ण पक्ष में तुम घटोगे और शुक्ल पक्ष में बढ़ोगे. इस तरह चंद्रदेव का संकट खत्म हुआ. और फिर चंद्रदेव या उनकी प्रेरणा से शिवलिंग की स्थापना हुई और वे सोमनाथ कहलाये.
अब इस मिथकीय कथा का अर्थ क्या हुआ ? इससे इस बात का पता चलता है कि उस वक्त समाज में बहु विवाह प्रचलित था लेकिन अपेक्षा की जाती थी कि पति अपनी सभी पत्नियों को समान रूप से प्रेम करे. और यह भी पता चलता है कि इस तरह के घरेलू विवादों में भगवान को पुकार लिया जाता था और वे भक्तों की समस्या दूर कर दिया करते थे. अब यहां तक तो ठीक था, लेकिन आगे की कथा भौतिक दुनियां की कहानी है और उसमें भगवान कोई हस्तक्षेप नही ंकर पाते थे.
हुआ यह कि सोमनाथ समुद्र किनारे का प्रमुख धार्मिक केंद्र के साथ व्यापारिक केंद्र भी बन गया था और मंदिर धन-धान्य से पूर्ण होता गया. सोने के कलश, बड़े- बड़े सोने के घंट, मानिक-मोती जड़े दीवारें. दूर-दूर तक उसके समृद्धि के चर्चे फैलने लगे और आक्रमणकारी गिरोह बना कर आने और मंदिर को लूटने लगे. आठवीं सदी में सिंध के अरबी गवर्नर जुनायद ने अपनी सेना भेजी और उसने लूटने के अलावा मंदिर में तोड़ फोड़ भी की. लेकिन सबसे भीषण आक्रमण महमूद गजनवी ने 1025 ई. में किया. अरब यात्री अल-बरुनी ने अपनी यात्रा वृतांत में इस मंदिर के वैभव का बढ़ चढ़ कर वर्णन किया. इसी से प्ररित होकर वह करीबन 5000 की सेना लेकर भारत आया था और रास्ते में कत्लेआम मचाता वह मंदिर तक पहुंच गया. इतिहासकारों ने उस दौर का विस्तार से ब्योरा दिया है. शहर के तमाम लोग उसके खौफ से मंदिर प्रांगण में जमा हो गये. अनुमानतः पचास हजार की आबादी. सबों को लगता था कि भगवान सोमनाथ उनकी रक्षा करने के लिए प्रकट होंगे. गजनवी भी भगवान का प्रताप देखना चाहता था और इस क्रम में उसने भारी कत्लेआम किया. उंट और घोड़ों पर लाद कर वह सोना, चांदी, जेवरात, मानिक मोती मंदिर की दीवारों से नोच-नोच के ले गया और ले गया अपने साथ सैकड़ों औरत मर्दो को गुलाम बना कर. लेकिन शिवलिंग नहीं पसीजा. पत्थर का बुत बना रहा.
कहते हैं कि औरंगजेब के जमाने में एक बारं मंदिर और तोड़ा गया. और पुनर्निर्माण आजाद भारत में हुआ. अब आक्रमण का तो कोई खतरा नही, दूसरी तरफ यह सांप्रदायिक राजनीति के लिए खाद पानी का काम करता है. हर रोज यह कथा दुहरायी जाती है कि मुस्लिम आक्रमणकारियों ने किस बेरहमी से इसे लूटा और कत्लेआम किया. और भाजपा की सांप्रदायिक राजनीति इतिहास से प्रतिशोध लेने पर अमादा है. पहले सोमनाथ, अब अयोध्या, कल कोई और प्रपंच शुरु हो जायेगा.
बस, यह गुत्थी नहीं सुलझायी जायेगी कि भारत बार बार बाह्य आक्रमणकारियों का मुकाबला करने में असफल क्यों रहा. महमूद गजनवी महज पांच हजार की सेना लेकर दिल्ली को रौंदता सोमनाथ तक पहंचा कैसे गया? पांच हजार की सेना को पचास हजार नागरिक रोक क्यों नहीं पाये? कहीं इसकी वजह हमारी यह मूढ़ता तो नहीं थी कि भगवान सोमनाथ सर्वशक्तिमान हैं और प्रकट हो कर महमूद के तलवार से हमारी रक्षा करेंगे? या वजह यह तो नहीं थी कि वर्ण व्यवस्था ने एक हमारी कुल जनसंख्या के एक बड़े हिस्से को शस्त्र-शास्त्र से वंचित कर रखा था?