मैं अपने देश भारत को प्यार करती हूं. मगर भारत के बाद किसी और देश की बारी आती है, तो मुझे सबसे अधिक अपनामन या लगाव पाकिस्तान से है. इसमें बांग्लादेश भी शामिल है, जो पाकिस्तान से अलग होकर बना है. मैं यह कभी नहीं भूल पाती कि पाकिस्तान (और बंग्लादेश) कभी भारत का ही हिस्सा था. भारत ही था. इन पंक्तियों से शुरुआत करते हुए एक किस्म का डर भी महसूस हो रहा है. इसलिए कि आज देश का माहौल ऐसा बन गया या बना दिया गया है कि ऐसे कहने पर कोई भी मुझ पर पाकिस्तानपरस्त होने का आरोप लगा सकता है, इसी कारण गाली दे सकता है, पत्थर मार सकता है. फिर भी मैं अपने मन की बात कहना चाहती हूं.
अभी जलियांवाला बाग कांड के 100 साल पूरे हुए. करीब एक माह पहले हमने भगत सिंह और उनके साथियों का शहादत दिवस मनाया, जिन्हें 1931 में लाहौर में फांसी दी गयी थी. हम नये सिरे से उन दिनों को याद करने लगे, जब भारत गुलाम था. हमें अनायास बहुत कुछ याद आने लगा. आधुनिकता का दावा और कानून के शासन की बात करनेवाले अंग्रेजों (इंग्लैंड) के अमानवीय अत्याचार की कहानियां कभी भूली नहीं जा सकतीं. जालियांवाला बाग में हुआ नरसंहार आज भी हमें सिहरा देता है, जब वर्ष 1919 में वैशाखी के दिन सैकड़ों निहत्थे लोगों (जिनमें बड़ी संख्या में औरतें और बच्चे भी थे) की अकारण हत्या कर दी गयी थी. बहुत से लोग गोलियों से बचने के लिए कुएं में कूद गए और जान गँवा बैठे.
एक साथ इतने लोगों को गोलियों से भून देना तभी संभव है, जब गोली चलाने, खास कर इसका आदेश देनेवाला सामने वाले लोगों को कीड़ा मकोड़ा समझने लगता है. और ऐसा सामूहिक तौर पर भले जालियांवाला बाग में हुआ, मगर देश के कोने कोने में अलग अलग समय में हजारों-लाखों लोग इस तरह की क्रूरता के शिकार हुए. इसके पहले सर्वाधिक क्रूरता 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दमन के दौरान दर्ज की गयी थी. सैकड़ों विद्रोही सैनिकों को सरेआम फांसी देकर उनके शवों को पेड़ों से लटका दिया गया, ताकि आम लोगों में दहशत फ़ैल जाये. उसके बाद यह सिलसिला जारी रहा. किसी को चाबुक से पीटा गया, किसी को बांध कर सड़क पर घसीटा गया. सैकड़ों क्रन्तिकार्यों को फांसी दी गयी. हजारों भारतीयों को बंदी बना कर कठोर यातनाएं दी गयीं. गोरों की सरकार ने क्रूरता की सारा हदें पार कर दी.
आजादी के मात्र 70 साल हुए हैं और हमारी क्या स्थिति है? हम उसी इंग्लैंड को अपना मित्र देश मानने लगे हैं, उससे प्यार करने लगे हैं. हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे वहीं पढ़ें, मौका मिले तो वहीं नौकरी करें और वहीं बस भी जाएँ! इंग्लैंड सहित सभी यूरोपीय और पश्चिमी और देश आज हमारे लिए जैसे सपना बन गये हैं. हमारा उच्च वर्ग- चाहे वह राजनीति से सम्बद्ध हो या प्रशासन से; या फिर उच्च वर्ग का हो, यहां तक कि आध्यात्म और धर्म से सम्बद्ध संपन्न व प्रतिष्ठित लोग भी, सभी अपने बच्चों को किसी यूरोपीय/पश्चिमी देश में भेज देना चाहते हैं. जिस मुल्क ने हमें गुलाम बनाया, हम पर अत्याचार किया, वही हमारा आराध्य बन गया है; प्रवासी भारतीयों को महिमामंडित किया जा रहा है, तरह तरह की रियायतें दी जा रही हैं, जबकि हम अपने पडोशी देशों से दूर होते गये हैं. उनसे शत्रुता का भाव रखने लगे हैं!
नफरत तो किसी भी देश या समुदाय से नहीं करनी चाहिए. न अंग्रेजों से, न ही ईसाइयत से. बस उस दौर को याद रखना है. मगर यहां सलाह दी जाती है कि पिछली बातें भूल जाएं. एक तरह से यह ठीक ही है. फिर भी यूरोपपरस्त या अमेरिकापरस्त होना अच्छी बात कैसे हो सकती है; और पाकिस्तान के प्रति अपनेपन का भाव गलत जैसे हो सकता है? पाकिस्तान ने हमारा क्या बिगाड़ा है? हम तो अंगरेजी राज के जुल्म के साझा शिकार थे. यह भी कह सकते हैं कि अंगरेज ही जाते जाते हमारे देश के टुकड़े कर गये और पाकिस्तान नाम का नया देश बन गया. पाकिस्तान तो हमारा ही, हमारे इतिहास का हिस्सा रहा है. आज भी हमारी कहानियों में, उपन्यासों में, फिल्मों में, गीतों में, वहाँ की गलियों के किस्से और दृश्य जीवंत हैं.
पाकिस्तान का शासक वर्ग, वहां का सैन्य प्रतिष्ठान भले ही भारत से शत्रुता भाव रखता हो, हमारे खिलाफ साजिशें भी करता हो, लेकिन इस कारण हम पूरे पाकिस्तान को, वहां के तमाम लोगों को दुश्मन कैसे मान सकते हैं? हां, हमारे बीच युद्ध होते रहे हैं, अब भी सीमा पर तनाव की स्थिति है. पर युद्ध अपनी जगह है, अपनापन-लगाव अपनी जगह. आखिर खटपट तो पड़ोसियों से ही होती है. मगर इतनी बड़ी दुनिया में और कौन देश है, जिसके साथ हमारी ऐसी समानता है, ऐसा साझा इतिहास है, ऐसी सामान परम्पराएँ हैं, सामान बोली है? पहनावा, भोजन, रीति-रिवाज तक मिलते-जुलते हैं. कोई और देश है, जहाँ जाने पर लगे कि यह तो हमारा ही शहर है, हमारा ही गांव है?
हम कैसे कह दें कि फैज अहमद फैज, नजरुल इस्लाम, मंटो, मेहंदी हसन, गुलाम अली, रेशमा और रूना लैला आदि हमारे नहीं हैं, कि हम उनकी शायरी और उनके गाये गीतों पर झूमते नहीं रहे हैं? भारतीय (पंजाबी) लेखकों की बहुतेरी रचनाओं में पकिस्तान के गांवों-शहरों के किस्से, विभाजन का दर्द और साझा विरासत की झलक भरी पडी है.
लाहौर, कराची, ढाका आदि तो अब अपने देश के ही शहरों के नाम लगते हैं.
हमारे बीच बहुत कुछ साझा है. और देशों के साथ व्यापार साझा हो सकता है, मगर पाकिस्तान के साथ तो खून साझा है. हमारे कितने भारतीयों की वहां रिश्तेदारी है. जहाँ वे घूमने या पैसा कमाने नहीं जाते, राजनीति के कारण बिछड़ गये अपने लोगों से मिलने जाते हैं. ऐसे देश को हम पराया कैसे कह सकते हैं?
मैं आज , विदेश नहीं गयी, लेकिन जब भी किसी देश में जाने, किसी देश को देखने की इच्छा होती है, पहला नाम पाकिस्तान (बांग्लादेश भी) का ही आता है. पता नहीं यह इच्छा पूरी हो पायेगी या नहीं, पर उस देश से अपने लगाव को लेकर मुझे जरा भी संकोच नहीं है.
हाँ, मैं पकिस्तान से लगाव महसूस करती हूँ.