प्रिय महात्माजी,
शक्ति चाहे किसी भी रूप में हो विवेकहीन होती है - वह उस घोड़े के समान है जो आंखों पर पट्टी बांधे गाड़ी खींचता है। वहां नैतिक तत्व का प्रतिनिधित्व केवल घोड़ा हांकने वाला ही करता है। निष्क्रिय प्रतिरोध एक ऐसी शक्ति है, जिसका अपने-आप में नैतिक होना आवश्यक नहीं है। इसका उपयोग सत्य के विरुद्ध भी किया जा सकता है और सत्य के पक्ष में भी। किसी भी तरह की शक्ति में अंतर्निहित खतरा उस समय और भी प्रबल हो जाता है जब उसके सफल होने की सम्भावना हो, क्योंकि उस परिस्थिति में उसमें लोभ भी शामिल हो जाता है।
मैं जानता हूं, आपकी शिक्षा शिव की सहायता से अशिव के विरुद्ध संघर्ष करने की है। किंतु इस प्रकार का संघर्ष तो वीर ही कर सकता है। जो व्यक्ति क्षणिक आवेग के वशीभूत हो जाते हैं वे ऐसा संघर्ष नहीं कर सकते। एक पक्ष की बुराई स्वभावत: दूसरे पक्ष में बुराई उत्पन्न करती है; अन्याय हिंसा की ओर ले जाता है और अपमान प्रतिहिंसा की ओर। दुर्भाग्य से एक ऐसी शक्ति को गति मिल चुकी है; हमारे अधिकारियों ने भय अथवा क्रोध के कारण हम पर वार किया और इसका स्पष्ट ही यह प्रभाव हुआ कि हममें से कुछ ने आक्रोश मे भरकर गुप्त मार्ग अपनाया और दूसरे बिल्कुल भीगी बिल्ली होकर रह गये।
इस संकट के समय आपने मानव-जाति के महान् नेता के रूप में हमारे बीच आकर उस आदर्श के प्रति अपने उस विश्वास की घोषणा की जिसे आप भारत का आदर्श मानते हैं। वह आदर्श गुप्त प्रतिकार की इच्छा से उत्पन्न कायरता तथा भय से त्रस्त होकर चुपचाप आत्म-समर्पण कर देने वाली दोनों भावनाओं के विरुद्ध है। आपने उसी तरह की बात कही है जैसी भगवान बुद्ध ने अपने समय में सर्वकाल के लिए कही थी : अकोधेन जिने क्रोधम् असाधु साधुना जिने। (अक्रोध से क्रोध को और अशिव को शिव से जीतो।)
शिव की इस शक्ति को चाहिए कि वह निर्भय होकर ऐसी किसी भी सत्ता को अस्वीकार कर दे जो अपनी सफलता के लिए अपनी त्रास देने वाली शक्ति पर निर्भर करती है और बिल्कुल निहत्थे लोगों पर विनाश करने वाले अपने शस्त्रास्त्रों का उपयोग करने से नहीं हिचकाती। हमें निश्चित रूप से समझ लेना चाहिए कि नैतिक विजय सफलता पर निर्भर नहीं करती और न असफलता ही उसे उसके गौरव एवं महत्व से वंचित करती है। जो लोग आध्यात्मिक जीवन में विश्वास रखते हैं वे जानते हैं कि जिसके पीछे अतिशय भौतिक बल हो ऐसी बुराई का मुकाबला करना ही विजय है - एक ऐसी विजय है जो प्रत्यक्ष रूप से पराजित हो जाने पर भी आदर्श पर सक्रिय विश्वास रखने से उपलब्ध होती है।
मैंने सदैव यह अनुभव किया हैं और तदनुसार कहा भी है कि स्वाधीनता का महान् उपहार जनता को दान में कभी नहीं मिल सकता। हमको इसे उपलब्ध करने के लिए इसे जीतना होगा। भारत को इसे जीतने का यह अवसर तब आएगा जब यह सिद्ध कर देगा कि चारित्रिक रूप से यह उन लोगों से श्रेष्ठतर है जो विजेता होने के अधिकार से उस पर शासन करते हैं। तभी उसे अपनी स्वतंत्रता को प्राप्त करने का अवसर उपलब्ध होगा। इसे अपनी कष्टपूर्ण तपस्या को स्वेच्छा से स्वीकार करना होगा, यह तपस्या महानता का भूषण है। अपनी अच्छाई की परमनिष्ठा के बल पर इसे उन घमंडी शक्तियों का अदम्य साहस के साथ निडर होकर मुकाबला करना है जो आत्मिक शक्ति का तिरस्कार करते हैं।
आप अपनी मातृभूमि में ऐसे अवसर पर पधारे हैं जब उसे उसके ध्येय की याद दिलाने, विजय के सच्चे मार्ग पर ले जाने तथा उसकी वर्तमान राजनीति को उसकी दुर्बलताओं से मुक्त करने की आवश्यकता है। वर्तमान राजनीति कुटनीतिक छल-कपट की पराई पोशाक पहन कर अकड़ दिखाती हुई ऐसा समझती है मानो उसने अपना मतलब सिद्ध कर लिया है। इसीलिए मेरी [ईश्वर से] हार्दिक प्रार्थना है कि आपके पथ में कोई भी ऐसी बाधा न आये जिसके कारण हमारी आध्यात्मिक स्वतंत्रता के कमजोर पड़ने की आशंका हो और सत्य के लिए किया जाने वाला बलिदान केवल शाब्दिक आग्रह का रूप कभी धारण न करे; यह शाब्दिक आग्रह पवित्र नामों की आड़ में धीरे-धीरे आत्म-प्रवंचना का रूप धारण कर लेता है।
ये कतिपय शब्द मैंने प्रस्तावना के रूप में लिखे; अब मुझे अनुमति दें कि मैं आपके उदात्त कार्यों के प्रति कवि के रूप में अपनी भावना व्यक्त करूं।
हृदय से आपका,
रवींद्रनाथ ठाकुर
स्मरण रहे, कविगुरु ने यह कविता-पत्र अप्रैल 12, 1919 को लिखा। ठीक एक दिन बाद यानी 13 अप्रैल, 1919 को जालियांवाला बाग़ में जनरल डायर और उसके सिपाहियों द्वारा नरसंहार घटित हुआ!