भारत में सांप्रदायिकता को देखने पहचानने का दो मुख्य नजरिया है. एक के मुताबिक सांप्रदायिकता का मतलब सिर्फ मुसलिम सांप्रदायिकता. क्योंकि हिंदू तो सांप्रदायिक हो ही नहीं सकता. इस धारणा के अनुसार भारत में सांप्रदायिक समस्या का मूल कारण मुसलिम समुदाय की संकीर्णता है, उसका अतिवादी और असहिष्णु होना है. हिंदू तो उसकी प्रतिक्रिया में ‘कभी कभी’ अतिवाद कर जाते हैं.
इसके उलट ऐसे लोग भी हैं, जिन्हें सिर्फ हिंदू सांप्रदायिकता नजर आती है. मुसलिम संकीर्णता और सांप्रदायिकता को वे अल्पसंख्यक मानसिकता और उनके असुरक्षा बोध का नतीजा मानते हैं.
जाहिर है, ये दोनों धारणाएं एकांगी हैं और ऐसा मानने वाले खुद एक किस्म की संकीर्णता से ग्रस्त होते हैं. लेकिन दुखद तथ्य यह है कि देश कि (हिंदू) आबादी का बड़ा हिस्सा मानता है कि हिंदू सांप्रदायिक नहीं हो सकता, दंगे की शुरुआत हमेशा मुसलमान करते हैं. कुल मिला कर देश की सांप्रदायिक समस्या सिर्फ मुसलिम सांप्रदायिकता है. यह और बात है कि चुनाव के समय बात कुछ और हो जाती है. यानी ऐसे लोग भी जातिवाद के प्रभाव में आ जाते हैं.
दूसरी विपरीत धारणा- कि मुसलिम सांप्रदायिकता अल्पसंख्यक मानसिकता और उनके असुरक्षा बोध का नतीजा है- पर विश्वास करनेवाले सिर्फ संकीर्ण सोच के मुसलमान नहीं हैं. बहुतेरे उदार और मॉडरेट माने जानेवाले शिक्षित मुसलमान भी यही मानते हैं. और ऐसा माननेवालों में कथित सेकुलरों की भी बड़ी संख्या है. इस तरह के ‘सेकुलरों’ में कुछ ऐसे भी हैं, जो मुसलिम संकीर्णता, अतिवाद और सांप्रदायिकता की सच्चाई को स्वीकार तो करते हैं, पर हिंदू सांप्रदायिकता को देश के लिए बड़ा खतरा मानते हैं, इसलिए उसके खिलाफ अधिक मुखर रहते हैं. मुस्लिम अतिवाद पर या तो चुप रह जाते हैं, या बोलने की महज औपचारिकता निभाते हैं. इसका एक कारण चुनाव में मुसलिम मत पाने का लोभ; या तात्कालिक रूप से संघ/भाजपा को परास्त करने को अहमियत देना भी हो सकता है.
यह बात एक हद तक सही है कि हिंदू समाज धर्मांधता का शिकार हो गया तो इस देश को अधिक नुकसान हो सकता है. 85 प्रतिशत आबादी धर्मांध हो जाये, तो यह देश कब तक सेकुलर बना रह सकता है. लेकिन जो लोग ऐसा मान कर अल्पसंख्यक संकीर्णता और सांप्रदायिकता के मुद्दे पर खामोश रह जाते हैं, वे प्रकारांतर से हिंदू सांप्रदायिकता को मदद ही पहुंचाते हैं. यही कारन है कि संघ का प्रभाव बढ़ता गया है; और आज गरीबी, बेरोजगारी, मंहगाई, सामाजिक भेदभाव आदि समस्याओं- जिनसे हिंदू, मुसलिम, ईसाई आदि सभी सामान रूप से पीड़ित हैं- को भूल कर बहुसंख्यक समुदाय एक उन्माद की स्थिति में पहुँचता जा रहा है. इस चुनाव में भाजपा को मिली सफलता का यह भी एक बड़ा कारण है.
बेशक पहली धारा- जिसके मुताबिक सांप्रदायिकता का मतलब मुसलिम सांप्रदायिकता होती है- अधिक प्रबल, प्रभावी और खतरनाक भी है. लेकिन दूसरी धारा, जो मुसलिम अतिवाद की अनदेखी करती है, परोक्ष रूप से पहली को मजबूत करती है. सिर्फ हिंदू सांप्रदायिकता की आलोचना करने से संकीर्ण हिंदुत्व के पैरोकारों को यह कहने का मौका मिल जाता है कि ये लोग हिंदू विरोधी और मुसलिमपरस्त हैं. इस तरह कथित सेकुलर धारा आम हिन्दुओं की नजर में संदिग्ध होती गयी है. सच तो य ही है कि दोनों तरह की साम्प्रदायिकता एक दूसरे के लिए खाद-पानी का काम करती है.
इन दो से अलग एक तीसरा नजरिया भी है, जो हर तरह की सांप्रदायिकता को गलत मानती है, उनके खिलाफ मुखर रहती है. मगर अफ़सोस कि इस धारा से जुड़ा समूह बहुत कमजोर और छोटा है; और दूसरी धाराओं के बीच इनकी विश्वसनीयता भी नहीं है. यह तबका शेष दोनों के लिए संदिग्ध भी रहता है. मैं मानता हूँ कि हम वाहिनी के या बिहार आन्दोलन से निकले बहुतेरे साथी इसी धारा में हैं. लेकिन हमारी आवाज सशक्त नहीं हो पा रही है. शायद हम भी कहीं न कहीं एकांगीपन के शिकार हैं.
इसलिए धर्मनिरपेक्षता की सकारात्मक नीति को प्रभावी और मान्य बनाने के लिए आवश्यक है कि खुद को सेकुलर माननेवाले लोग हर तरह की साम्प्रदायिकता के खिलाफ मुखर हों, उस पर चोट करें. कम से कम इस मामले में हम कहां, कैसे और क्यों अप्रभावी रह जा रहे हैं, इस पर विचार की शुरुआत तो करें.