भारतीय समाज के मध्यम और उच्च वर्ग के जीवन का आवश्यक हिस्सा हैं घरेलु कामगार यानी गृह सेविकाएं जिन्हें महानगरों में बाई और हिंदी पट्टी में काम वाली या दाई कहा जाता है. मध्यम वर्ग की महिलाओं की सुबह ही इस चिंता से शुरु होती है कि पता नहीं, आज काम वाली आयेगी या नहीं. नहीं आयी तो बच्चों का स्कूल छूट जाता है,पति बिना नाश्ता किये आफिस चले जाते हैं, कामकाजी पत्नियां अवकाश ले कर घर का काम निबटाती हैं या देर से आफिस जाती हैं. यानी, ऐसा लगता है जैसे सम गति से चलते जीवन पर तुषारापात हो गया हो. या कोई तूफान आ गया हो जो घर की नियमित दिनचर्या को छिन्न भिन्न कर गया हो.

ल्ेकिन क्या हमने कभी यह जानने समझने की कोशिश की है कि जिनके दम पर मध्यमवर्गीय परिवारों का जीवन सम गति से चलता रहता है, उन गृह सेविकाओं या महिला कामगारों के खुद का जीवन कैसे चलता है? उनकी महत्वाकांक्षाएं क्या हैं? वे उनक घर के लोगों के बारे में क्या सोचती हैं और क्या रायरखती हैं? गत 16 जून को यही सब जानने समझने का मौका मिला. उस दिन रांची के शक्ति चैक से राजभवन तक घरेलु महिला कामगारों ने झारखंड घरेलु कामगार यूनियन के बैनर तले हजारों महिलाओं ने प्रदर्शन किया और राजभवन के समक्ष उनकी सभा हुई. सभा के बाद राज्यपाल को एक ज्ञापन भी दिया गया. 16 जून को अंतरराष्ट्रीय घरेलु कामगार दिवस मनाया जाता है.

यहां उल्लेखनीय है कि झारखंड जिस तरह अपने कोल खदानों और अयस्कों के लिए प्रसिद्ध है, उसी तरह घरेलु महिला कामगारों के लिए भी. दिल्ली जैसे महानगरों में लाखों की तायदात में झारखंड की बेटिया जा कर काम करती हैं और उनके शोषण की खबरे निरंतर आती रहती हैं. उनका निदोर्षिता,उनका भोलापन ही उनके लिए अभिशाप बन जाता है. झारखंड के शहरों में भी बड़ी संख्या में आदिवासी लड़कियां अपने पढ़ाई का खर्च निकालने के लिए समीप के रिहायशी कालोनियों में काम करती हैं.

उन्हें मिलता क्या है? औसत न्यूनतम मजदूरी से भी आधी. भारत में घरेलु कामगारों के लिए डोमेस्टिक वर्कर- रजिस्ट्रेशन, सिक्यूरिटी एंड वेलफेयर- एक्ट 2008 लागू है जो कश्मीर को छोड़ पूरे देश में लागू है. उस कानून का भी पालन नहीं होता, फिर भी उस कानून के प्रावधान क्या है? 24 घंटे में दस घंटे का अवकाश, साल में सिर्फ चैदह दिन वेतन सहित अवकाश. अमूमन एक घंटे की मजूरी झारखंड में 16 रुपये और बिहार में 17 रुपये सुनिश्चित की गई है. यदि आठ घंटे के हिसाब से महीने भर की मजदूरी की गणना की जाय तो वह न्यूनतम मजदूरी के लगभग आधी होती है. एक दिन का झारखंड में 128 रुपये.

कामगार महिलाओं में अधिकतर आदिवासी महिलाएं और लड़कियां ही थी. उनकी मांग है कि उनकी मजूरी बढ़ाई जाये. साप्ताहिक अवकाश और मातृत्व भत्ता आदि दिया जाये. आईएलओसी 189 को भारत सरकार समर्थन दें. आदि. वक्ताओं ने अपनी व्यथा थोड़ी पीड़ा और थोड़े व्यंग्य से सुनाई. एक वक्ता का कहना था कि उन्हें बराबरी का सम्मान नहीं मिलता. वे जब झाड़ू दे रही होती हैं तो मेम साहब मुशहरी में टांग पसारे सोई रहती हैं. उनकी उपस्थिति का उन पर कोई असर नहीं पड़ता. एक अन्य ने कहा कि गोल मटोल मालकिन उनसे गोल-मटोल आंटा सनवाती हैं.

दरअसल अपने देश में न्यूनतम मजूरी बेहद कम हैं. मानव श्रम के लिहाज से हम दुनियां के सर्वाधिक सस्ते मुल्कों में आते हैं. घरेलु कामगार या सफाईकर्मी तो विकसित देशों में भी हैं, लेकिन वहां श्रम की कीमत बहुत ज्यादा है. इसलिए कामगार आर्थिक रूप से संपंन्न होता है और अपनी कार से काम करने आता और जाता है. आर्थिक हैसियत मजबूत होने की वजह से उनकी सामाजिक हैसियत भी समकक्ष होती है. जबकि अपने देश में मानवीय श्रम करना निम्न कोटी का काम समझा जाता है और पारिश्रमिक भी बेहद कम होती है. इसलिए महिला कामगारों को बराबरी का दर्जा भी नहीं मिल पाता.