आदिवासी राजनीति उठान पर है. आदिवासी अस्मिता, संस्कृति और पहचान के नाम पर ही सन 2000 में तीन आदिवासीबहुल राज्य- झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड- अस्तित्व में आये. आंध्र प्रदेश से कट कर तेलंगाना राज्य भी आदिवासीबहुल राज्य ही है. बावजूद इसके आदिवासियों के अस्मिता और अस्तित्व से जुड़े सवाल अनुत्तरित रह जाते हैं, तो इसके तह तक जाने की जरूरत है. और यही मशक्कत करना नहीं चाहते आदिवासी बुद्धिजीवी.
सवाल सिर्फ सोनभद्र हत्याकांड का नहीं. वह तो नृशंस हत्या की घटना है, इसलिए सुर्खियों में आ गया, लेकिन आदिवासी समाज धीरे-धीरे जंल, जंगल, जमीन पर नैसर्गिक अधिकार से वंचित हो कर विस्थापन का दंश भोग रहा है और अपने घर से बेघर हो दर- दर भटक कर अकाल मृत्यु की तरफ बढ़ रहा है, यह किसी को दिखाई नहीं दे रहा. समाज का अभिजात तबका, तो मान कर चलता है कि विकास के लिए के लिए किसी न किसी को तो कुर्बानी देनी ही होगी, आदिवासियों के प्रति संवेदना दिखाने के बावजूद उनके हितों के लिए कटिबद्ध नहीं और उन्हें मुख्यधारा में शामिल होने की सलाह देता रहता है, लेकिन त्रासद तो यह कि आदिवासियों के लिए आरक्षित सीटों से जीत कर जाने वाले जनप्रतिनिधि भी आदिवासी हितों को लेकर उतने ही उदासीन है.
जल, जंगल, जमीन से जुड़े किसी भी बड़ी लड़ाई में आदिवासी जनप्रतिनिधि या क्षेत्रीय दल शामिल नहीं होते. बड़े बांधों से होने वाले विस्थापन के खिलाफ किसी भी लड़ाई में राजनीतिक दलों के आदिवासी नेता सामान्यतः शामिल नहीं रहे, नेतरहाट में फायरिंग रेंज के खिलाफ आंदोलन जन संगठनों द्वारा चल रहा है. ओड़िसा के कलिंग नगर में टाटा कंपनी के खिलाफ आंदोलन हो या पोस्को व नियमगिरि में चल रहा आंदोलन, जन संगठनों द्वारा संचालित आंदोलन है. कहा जा सकता है कि आदिवासी जनता अपने दम पर लड़ रही है, आदिवासी जनप्रतिनिधियों का समर्थन उन्हें सामान्यतः नहीं मिलता.
झारखंड में डोमेसाईल नीति न प्रथम मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी बनवा सके, न अपने मुख्यमंत्रित्व काल में झामुमो नेता हेमंत सोरेन. जब मोदीजी के सत्ता में आने के बाद भूमि अधिग्रहण कानून में केंद्र सरकार ने संशोधन किया तो उसका देश भर में विरोध हुआ और सरकार को वह संशोधन वापस लेना पड़ा. लेकिन वही संशोधन झारखंड विधानसभा में पारित होकर कानून बन गया और आदिवासी विधायक और सांसद उसे रोक नहीं सके.
सवाल उठता है कि आदिवासी सांसद या विधायक जन आंदोलनों में शामिल क्यों नहीं हो पाते? इसका जवाब बहुत सरल और स्पष्ट है. विडंबना यह कि आदिवासी जनता और बुद्धिजीवी इसे समझना नहीं चाहते, क्योंकि इससे खुद उनका अस्तित्व- जो अस्मितावादी आंदोलन की ही वजह से बना हुआ है, खतरे में पड़ जायेगा. अभी भी आदिवासी समाज का एक बड़ा तबका यह समझता है कि यदि मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री आदिवासी हो जाये तो आदिवासियों का कल्याण हो जायेगा. हालांकि झारखंड में कुछ वर्षों पूर्व तक आदिवासी मुख्यमंत्री ही रहे, लेकिन कारपोरेट से सर्वाधिक एमओयू उनके जमाने में ही हुए.
वे इस बात को समझ नहीं पा रहे हैं कि संसदीय राजनीति दलों पर आधारित है. इस व्यवस्था में दलों का वर्चस्व होता है. पार्टी लोकसभा और विधानसभा चुनावों में टिकट देती है, विधायक बनने के बाद यदि बहुमत में आये तो मंत्रिपद देती है. नेताओं के तमाम शानोंशौकत पार्टी के ही बदौलत है और इसके बदले उसे पार्टी की नीतियों का समर्थन भी करना पड़़ता है. यह हमारी संसदीय व्यवस्था की खौफनाक सच्चाई है कि प्रत्याशी जनता के वोट से चुना तो जाता है लेकिन वह जनता का प्रतिनिधि नहीं, पार्टी का गुलाम होता है. इसलिए यदि कोई आदिवासी भाजपा या कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ कर सदन में पहुंचता है तो वह उन नीतियों का समर्थन करने के लिए बाध्य होता है. यानी, भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ कर जन प्रतिनिधि बनने वाला भगवा रंग में रंग जाता है और उन्हीं आर्थिक नीतियों का समर्थन करता है जिस पर भाजपा चल रही होती है. बल्कि पार्टी के प्रति वफादारी दिखाने के लिए वह और ज्यादा प्रतिक्रियावादी बन जाता है.
एक बात और बारीकी से समझने की जरूरत है. आरक्षित सीटें इस बात को सुनिश्चित करती हैं कि उन पर कोई दलित या आदिवासी ही खड़ा होगा. अब किसी क्षेत्र विशेष से यदि झामुमो और भाजपा अपने अपने प्रत्याशी खउ़ा करती है तो क्षेत्रीय पार्टी, यानी झामुमो तो क्षेत्रीय सवालों और आदिवासी मुद्दों की बदौलत चुनाव में वोट प्राप्त करती है, लेकिन वही खड़ा भाजपा प्रत्याशी, जो आदिवासी ही होता है, कुछ वोट तो आदिवासी समुदाय का भी काटता है और उसी सीट पर आदिवासी के विरुद्ध गोलबंद हुए गैर आदिवासियों का वोट प्राप्त कर जीत जाता है. कोई आश्चर्य नहीं कि देश में आदिवासियों के लिए आरक्षित 47 सीटों में से 31 सीटों पर भाजपा प्रत्याशी की जीत हुई.
दूसरी तरफ क्षेत्रीय आदिवासी दलों की मजबूरी यह है कि वे इस तथ्य को समझने लगे हैं कि सिर्फ आदिवासी मतों की बदौलत वे चुनाव नहीं जीत सकते. यदि जीत भी गये तो सरकार बनाने के लिए ऐसे दलों की मदद लेनी पड़ेगी जो आदिवासी मुद्दों के प्रति गंभीर नहीं या प्रतिकूल भाव रखते हैं. परिणाम यह होता है कि वे गैर आदिवासी वोटों या गैर आदिवासी दलों के समर्थन के लिए आदिवासी सवालों को मजबूती से उठाने में हिचकते हैं. इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है यह तथ्य कि तेलंगाना बनते ही चंद महीनों बाद वहां डोमेसाईल नीति की घोषणा हो गई, लेकिन झारखंड में भाजपा के मुख्यमंत्री के रूप में बाबूलाल मरांडी डोमेसाईल नीति की घोषणा कर सके, न हेमंत सोरेन अपने मुख्य मंत्रित्व काल में.
इसके लिए जरूरी है वंचित जमातों की एकजुअता जिसमें आदिवासी, दलित, अल्पसंख्यक और तमाम अन्य वंचित एकजुट हों, लेकिन यह परिपक्वता आने में कुछ वक्त लगेगा. अभी तो आदिवासी युवा ‘जय आदिवासी’ कह कर ही काम चलाना चाहते हैं.