‘जैसे को तैसा’ धर्म सम्मत है?
“हिंसा सामाजिक परिवर्तन के लिए एक राजनीतिक उपाय है -क्या आप इसे मानते हैं?”
इसके तीन उत्तर हैं। पहला यह कि हां, हिंसा एक उपाय है, लेकिन एक मात्र उपाय नहीं है।दूसरा उत्तर है - हिंसा न एक उपाय है और न ही एकमात्र उपाय। और तीसरा, हिंसा राजनीतिक उपाय के रूप में जरूरी है और वरेण्य भी। यानी हिंसा सिर्फ एक उपाय नहीं, बल्कि एकमात्र उपाय है।
प्रथम उत्तर से स्पष्ट है कि इसे माननेवाले को हिंसा से इतर कोई उपाय हो, तो वह मान्य होगा, लेकिन हिंसा अमान्य नहीं है।ऐसे लोगों में अधिकतर लोग, खासकर हमारे देश में, ‘धार्मिक’ वृत्ति के हैं।
ये लोग,लोकमान्य तिलक के शब्दों में,“साधारण तौर पर ‘अहिंसा’ को ही धर्म मानते हैं(अहिंसा परमोधर्मः)। और हिंसा उनकी दृष्टि में पाप है। लेकिन वे ‘गीता’ की व्याख्या के तहत मानते हैं कि निष्काम भाव के साथ हिंसा हो, तो उसे पाप नहीं माना जा सका। यानी ‘हिंसा’ अगर ‘निष्काम कर्म’ हो, तो उसे पाप नहीं माना जा सकता।”
तिलक ‘गीता रहस्य’ में ‘कर्मयोग’ की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि ‘गीता’ में जिस निष्काम कर्म का उपदेश दिया गया है, उसका अर्थ है वैयक्तिक स्वार्थ और रागद्वेषादि से ऊपर उठ कर एवं फल की आशा त्याग कर किया जाने वाला कर्म। …निष्काम कर्म का प्रयोजन ‘लोक संग्रह’ है और यदि इस ‘लोकसंग्रह’ में हिंसा भी हो, तो उसके शुभ-अशुभ फल का बंधन या लेप नहीं लगता। यह एक तरह की ‘निष्काम हिंसा’ है।
इस तरह तिलक मानते हैं कि ‘दुष्टता’ का प्रतिकार यदि ‘साधुता’ से हो सकता है, तो पहले वही करने का प्रयास करना चाहिए, लेकिन यदि उसमें सफलता न मिले तो ‘जैसे को तैसे’ बनकर दुष्टता का निवारण करना भी धर्म सम्मत है।
दूसरा उत्तर गांधी का है।लेकिन यह उत्तर गांधीवादियों का भी है, यह नहीं कहा जा सकता।गांधी हिंसा को न एक उपाय मानने पर सहमत थे और न एकमात्र उपाय। वे ‘निष्काम हिंसा’ को भी सामाजिक परिवर्तन के लिए एक राजनीतिक उपाय के रूप में स्वीकार करने के लिए सहमत नहीं थे।
गांधी का मानना था कि बिना क्रोध या घृणा के हिंसा संभव नहीं है। अतः उसका निष्काम होना स्वीकार्य नहीं हो सकता।यदि कोई व्यक्ति राग-द्वेष आदि से मुक्त होकर निष्काम हिंसा संपादित कर भी सकता हो, और उसे अधिक से अधिक धार्मिक या नैतिक दृष्टि से ‘पापमुक्त’ मान लिया जाए, तब भी यह नहीं कहा जा सकता कि बाकी समाज पर उसका प्रभाव अशुभ नहीं होगा। क्योंकि सम्पूर्ण समाज निष्काम भाव को प्राप्त नहीं होगा।हिंसा निष्काम भी हो, तब भी वह ‘शक्ति के नियम’ से ही परिचालित होगी।निष्काम हिंसा के माध्यम से हम किसी तात्कालिक उद्देश्य में सफल भी होते हैं, तब भी उससे ‘शक्ति के नियम’ की श्रेष्ठता प्रमाणित होगी, जो अन्याय की मूल प्रेरणा है।
लोकमान्य तिलक ने 18 जनवरी, 1920 को पूना से गांधी को एक पत्र लिखा। पत्र इस प्रकार था : “पिछले अंक में सुधार-प्रस्ताव (रिफॉर्मस् रेज़ोल्युशन) संबंधी आपका लेख देखकर मुझे दुख हुआ। आपने उसमें मेरे विचार इस प्रकार प्रस्तुत किये हैं जैसे मैं मानता हूं कि “राजनीति में सब-कुछ चलता है”।
“मैं आपको प्रस्तुत पत्र यह बतलाने के लिए लिख रहा हूं कि उक्त लेख मेरे विचारों का सही प्रतिनिधिˆत्व नहीं करता। राजनीति सांसारिक प्राणियों का क्षेत्र है, साधुओं का नहीं, और मैं बुद्ध के उपदेश “अक्कोधेन जिने क्रोध” के बदले श्रीकृष्ण के उपदेश “ये यथा मां प्रपद्यते तांस्तथैव भजाम्यहम्” पर अमल करना ज्यादा पसंद करता हूं। इससे दोनों का अंतर स्पष्ट हो जाता है और साथ ही ‘जैसे-से-तैसा सहयोग’ की मेरी उक्ति का भी। दोनों ही तरीके समानरूप से ईमानदारी के और औचित्यपूर्ण हैं। दोनों के बीच मौजूद अंतर की अधिक व्याख्या मेरी पुस्तक “गीता रहस्य” में मिल जायेगी।”
तिलक के उस पत्र का गांधी ने तत्काल पत्र लिखकर जवाब दिया। उन्होंने लिखा : “लोकमान्य के साथ धर्म-ग्रंथों की व्याख्या के विषय में विवाद करने में स्वभावतः ही मुझे बड़ा अटपटा लगता है। परंतु कुछ मामले ऐसे होते हैं, जिनमें या जिनके बारे में अंतःकरण की आवाज किसी भी व्याख्या से बढ़कर होती है। लोकमान्य के बताये हुए दोनों सूत्रों में मुझे तो कोई विरोध नहीं दीखता। बौद्ध सूत्र एक सनातन सिद्धांत पेश करता है। ‘भगवद्गीता’ का सूत्र मुझे बताता है कि घृणा को प्रेम से और असत्य को सत्य से जीतने का सिद्धांत किस तरह अमल में लाया जा सकता है और लाया जाना चाहिए। यदि यह सच हो कि दूसरों के साथ हम जैसा बर्ताव करते हैं प्रभु वैसा ही हमारे साथ करते हैं, तो फिर सख्त सजा से बचने के लिए हमें क्रोध का बदला क्रोध से नहीं, परंतु क्रोध के बदले नम्रता का ही व्यवहार करना चाहिए। यह नियम वैरागियों के लिए नहीं, बल्कि खास तौर पर संसारियों के लिए ही है। लोकमान्य के प्रति मेरे मन में आदर है, फिर भी मैं कहता हूं कि यह सोचना मानसिक निष्क्रियता का द्योतक है कि संसार साधुओं के लिए नहीं है। पुरुषार्थ सब धर्मों का सार है, और पुरुषार्थसाधु - या कहिए हर मायने में सज्जन - बनने के उत्कट प्रयास के सिवा और कुछ नहीं है। …जब मैंने लोकमान्य के मतानुसार ‘राजनीति में सब-कुछ चलता है’ वाक्य लिखा, तब उनका अनेक बार कहा हुआ – ‘शठं प्रति शाठयम्’ वाक्य मेरे दिमाग में घूम रहा था। मेरे खयाल से तो वह एक बुरी नीति पेश करता है। मैं यह आशा नहीं छोड़ सकता कि कुशाग्र बुद्धि लोकमान्य खुद ही इस सूत्र का खंडन करने के लिए एकाध दार्शनिक ग्रन्थ लिखकर किसी दिन भारत को चकित करेंगे। जो भी हो ‘शठं प्रति शाठयम्’ में निहित सिद्धांत के मुकाबले में अपना तीस वर्ष का अनुभव रखता हूं। सही नीति तो ‘शठं प्रत्यपि सत्यम्’ ही है।”
यह तर्क कि हिंसा का प्रयोग दलित जाति या वर्ग में हीनभाव को मिटाकर आत्मसम्मान पैदा करता है, विफलताबोध से उत्पन्न एक क्रूर मानसिकता की उपज है- चाहे इस क्रूरता का कारण हमारी सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक परिस्थिति का हो, यह एक मानसिक विकृति है, जिससे अंततः फासीवाद पैदा होता है।
अगले अंक में जारी