आदिवासियों के लिए कोई अलग धार्मिक कोड नहीं होने की वजह से उन्हें सामान्यतः हिंदू ही मान लिया जाता है. इसका परिणाम यह हुआ है कि 2011 की जनगणना में छत्तीसगढ़ की कुल आबादी का 93.25 फीसदी हिंदू धर्म को मानने वाला और झारखंड में 67.83 फीसदी को हिंदू धर्म को मानने वाला बताया गया है. छत्तीसगढ़ में जहां 3.01 फीसदी को सरना धर्म मानने वाला बताया गया है, वहीं, झारखंड में सरना धर्म की तो कोई चर्चा नहीं, लेकिन अन्य धर्म को मानने वाले 12.84 फीसदी बताये गये हैं. संभवतः गैर ईसाई आदिवासियों को इसी कोटि में रखा गया है.
Jharkhand Religion Census 2011
वैसे, झारखंड में अमूमन 26 फीसदी आदिवासी आबादी रह गई है, वहीं छत्तीसगढ़ में करीबन 34 फीसदी आदिवासी आबादी है. यदि 2011 की धार्मिक जनगणना को आधार माना जाये तो अधिकतर आदिवासी अब हिंदू धर्मावलंबी हैं. सरकारी आंकड़ों के अनुसार झारखंड में 67.83 फीसदी हिंदू आबादी के अलावा 14.53 मुसलमान, 4.30 फीसदी क्रिश्चन, 0.22 फीसदी सिख, 0.03 फीसदी बौद्ध, 0.05 फीसदी जैन, और 12.84 फीसदी अन्य धर्मावलंबी दर्शाये गये हैं.
छत्तीसगढ़ में कुल आबादी का 93.25 फीसदी हिंदू, 2.01 फीसदी इस्लाम, 1.92 फीसदी ईसाई, 0.27 फीसदी सिख धर्म, 0.27 फीसदी बौद्ध धर्म, 0.24 फीसदी जैन और 3.01 फीसदी सरना धर्म को मानने वाला बताया गया है.
क्या हम मान कर चलें कि आदिवासियों की बड़ी आबादी हिंदू बन चुकी है? वे अब प्रकृति पूजक नहीं रहे? वे सभी चर्च या मंदिरों में पूजा अर्चना के लिए जाते हैं?
गौरतलब यह है कि हिंदू वर्ण व्यवस्था में, जिसकी नींव ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में पड़ चुकी थी, चार वर्ण हैं- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र. और चैथी शताब्दी तक आते आते अस्पृष्यों के लिए एक पांचवीं श्रेणी बनायी गई. लेकिन आदिवासियों को कभी भी इस वर्ण व्यवस्था का हिस्सा नहीं माना गया. ‘एनलस आफ रूरल ब्रगाल’ में सुविख्यात इतिहासकार हंटर ने लिखा है कि आदिवासियों को हिंदू वांगमय में हमेशा से दास, दस्यु, दानव, राक्षस, वा-नर, निशाचर आदि नामों से संबोधित किया गया है.
आदिवासियों को हमेशा प्रकृति पूजक बताया गया है. शालवृक्ष के नीचे प्रकृति के खुले आंगन में वे बड़ांग बुड़ु यानी, बड़े पहाड़ की पूजा करते रहे हैं. लेकिन यह भी स्वीकार किया जाना चाहिये कि वे तेजी से हिंदू धर्म के प्रभाव में आते जा रहे हैं.
धर्म बदलने से आदिवासियत खत्म हो जायेगी, ऐसा तो तत्काल नहीं कहा जा सकता. लेकिन भाषा, संस्कृति और धर्म के विलोपन से यह खतरा तो है ही और चुनावी राजनीति निश्चित रूप से प्रभावित हो रही है.