हाल ही में अपने देश की केन्द्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर के बारे में एक अभूतपूर्व फैसला लिया है। भारतीय संविधान में दर्ज अनुच्छेद 370 की ज्यादा बातों को हटा दिया है। अनुच्छेद 370 के आधार पर राष्ट्रपति द्वारा 1954 में दिये गये आदेश 35-ए को खत्म कर दिया है। एक विशिष्ट हैसियत रखने वाले जम्मू-कश्मीर प्रांत को दो केन्द्रशासित प्रांतों में बाँट दिया है। जम्मू-कश्मीर और लद्दाख। जम्मू-कश्मीर में विधानसभा होगी, फिर भी शासन की सारी शक्ति केन्द्र सरकार द्वारा नियुक्त उपराज्यपाल के पास होगी। लद्दाख में तो विधानसभा और विधायक भी नहीं होगा, यानी जनता के द्वारा चुना गया कोई जनप्रतिनिधि नहीं होगा।
इस फैसले से कुछ दिन पहले कश्मीर में पैंतीस हजार से ज्यादा अर्द्धसैनिक बल अचानक भेज दिया गया था। पर्यटकों और अमरनाथ यात्रियों को बीच में ही वापस बुला लिया गया था। फैसले के एक दिन पहले तक राज्यपाल कहते रहे थे कि बिना बताये कोई आकस्मिक फैसला नहीं होने वाला। इस फैसले के पहले कश्मीरी पार्टियों के फारूख अब्दुल्ला, ओमर अब्दुल्ला, महबूबा मुफ्ती (इनके नेतृत्व में तो भाजपा ने सरकार बनायी थी) समेत अनेकों नेताओं को नजरबन्द या गिरफ्तार कर लिया गया। ये नेता आतंकवाद समर्थक या चुनावों का बहिष्कार करने वाले नेता नहीं थे, चुनावी राजनीति के मुख्यधारा में शामिल भूतपूर्व या वर्तमान विधायक, सांसद आदि थे। पूरे प्रदेश में 144, कफ्र्यु सी निषेधाज्ञा लाद दी गयी थी। लैंडलाइन, मोबाइल, इंटरनेट, अखबार जैसे संचार के सारे रास्ते ठप्प कर दिये गये थे। अधिकांश बंदिशें, पाबन्दियाँ आज भी हैं।
अनुच्छेद 370 क्या है और इसे तथा 35 ए हटाने या कमजोर करने से क्या अन्तर पड़ा, इसे खुशी या नाखुशी मनाने के पहले या साथ-साथ सोच लें।
कश्मीर से अपनापन है तो कश्मीरियों को भी अपना मानना होगा आक्रामक आतंककारी कदमों को वापस लेना होगा जम्मू-कश्मीर एक रजवाड़ा था। उसे आजाद रजवाड़ा रहना था या भारत या
पाकिस्तान किसी एक के साथ जाना था। परिस्थितियों के कारण वह एक समझौते पर हस्ताक्षर करके भारत के साथ जुड़ा। उस समझौते की बातों के आधार पर संविधान में 370 जोड़ा गया। अर्थात 370 कश्मीर द्वारा जबरन ली गयी और भारत द्वारा बेवकूफी या उदारता में दी गयी कोई विशेष हैसियत नहीं है। वह भारत के साथ कश्मीर के रहने की शर्त है। इस शर्त या समझौते को
तोड़ने का एक अर्थ कश्मीर को छोड़ना, अलग करना भी हो सकता है। साथ रहने, भारत में शामिल हो जाने की स्थिति को छोड़ना-नकारना भी हो सकता है।
कश्मीर में दो झंडा फहरता रहा है। एक भारत देश का झंडा और साथ में कश्मीर राज्य का झंडा। कश्मीर में साथ-साथ दो संविधान चलता रहा है। जम्मू-कश्मीर संविधान सभा द्वारा पारित संविधान तथा भारत का संविधान। भारत के संविधान की वही बातें जम्मू-कश्मीर में लागू होती रही हैं, जो जम्मू-कश्मीर के विधानसभा द्वारा स्वीकृत हो जाती हैं। अनुच्छेद 370 जम्मू कश्मीर के बारे में कानून बनाने की भारतीय संसद की शक्ति को सीमित करता है। रक्षा और देश की सरहद, संचार और विदेश नीति केन्द्र शासन के अधीन है, बाकी विषयों में जम्मू-कश्मीर को सैद्धांतिक तौर पर स्वायत्तता हासिल रही है।
अनुच्छेद 370 के अनुसार जो विषय संधि पत्र में संसद की विधि बनाने की शक्ति के लिए तय या रिक्त हैं या राज्य सरकार की सहमति से राष्ट्रपति द्वारा जाहिर हैं, उनमें ही संसद कानून बना सकेगा। इस सीमा में रहकर राष्ट्रपति राज्य सरकार की सहमति से कोई आदेश दे सकेगा और ऐसे आदेश राज्य में लागू होंगे। जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा की सिफारिश पर राष्ट्रपति इस अनुच्छेद को हटाने या शर्तां के साथ खास तारीख से जारी रखने की लोक अधिसूचना जारी कर सकता है। अगर जम्मू-कश्मीर के संविधान से सम्बन्धित किसी प्रश्न पर कोई प्रस्ताव रखना है तो उसे प्रांत सरकार की सहमति से राष्ट्रपति के आदेश पर जम्मू-कश्मीर के संविधान सभा के समक्ष निश्चय के लिए रखना होगा।
35 ए संविधान के परिशिष्ट-1 में दर्ज है। इसमें कहा गया है कि राज्य के स्थायी निवासी, राज्य के नियोजन, अचल सम्पत्ति, राज्य में बसने के अधिकार, छात्रवृत्ति और अन्य सहायता के अधिकार के बारे में जम्मू-कश्मीर के कानून को इस कारण शून्य या खत्म नहीं किया जा सकता कि उससे भारत के अन्य नागरिकों का अधिकार छीनता या कम होता है। जम्मू-कश्मीर में यह कानून है कि जम्मू-कश्मीर से बाहर का कोई व्यक्ति जमीन नहीं खरीद सकता। जम्मू-कश्मीर की लड़की अगर किसी गैर-कश्मीरी से शादी करे, तो वह वहाँ जमीन के हक से बेदखल हो जायेगी।
इन तथ्यों की रोशनी में, लोकतांत्रिक मूल्यों और नागरिक अधिकारों की कसौटी पर मौजूदा कार्यवाहियों पर अपनी राय बनानी है।
वैसे तो हम सभी अपने अनुभव से जानते हैं कि सरकार जो कहती है, वह ज्यादातर करती नहीं। जो करती है, वह अक्सर आम जनता के खिलाफ और कुछ खास लोगों के फायदे में होती है। तभी तो गरीबी घट नहीं रही, अमीरी बढ़ती जा रही है, गैरबराबरी बढ़ रही है। योजनायें,कानून, सिपाही सब बढ़ रहे हैं; साथ ही बदहाली और अपराध भी बढ़ रहे हैं। तब भी हर बात पर सोच विचार कर राय बनाना ही सही है।
सरकार अपने फैसले के पक्ष में कई बातें कह रही है। कश्मीर को देश की मुख्यधारा में लाया गया है। अब कश्मीर में जोर-शोर से विकास होगा। जो किया गया, उससे जम्मू-कश्मीर के कुछ भ्रष्ट राजनीतिक खानदान, आतंकवादी ही विरोध में हैं। सरकार समर्थक कुछ लोग कश्मीर को जीत लेने, दबा देने, कुचल देने, औकात दिखा देने की खुशी महसूस कर रहे हैं। जम्मू-कश्मीर की विशेष हैसियत को खत्म ही नहीं कर दिया गया है, उसे अन्य भारतीय प्रांतों से भी कमजोर कर दिया गया है। अन्य प्रांतों के समान करने या मुख्यधारा में लाने के बदले उल्टा ही हुआ है। यह तो भाजपा के घोषित विचार से भी अलग है। इसे तानाशाह मिजाज के लोग ही सही मान सकते हैं।
अब जम्मू-कश्मीर का अपना अलग झंडा और संविधान नहीं रहेगा। एक संविधान एक निशान का नारा देनेवाली भाजपा इसे देशभक्ति की दिशा में एक बड़ा कदम मान रही है। सच तो यह है कि राष्ट्रीय एकता, राष्ट्रीय सुरक्षा, राष्ट्रप्रेम इतनी सीमित और सरल बात नहीं कि दो झंडा-दो संविधान-विशेष प्रावधान होने से कमजोर या खत्म हो जाय और एक और एक सा होते ही मजबूत हो जाय। दुनिया के कई देशों में; अमेरिका और स्विट्जरलैंड जैसे देशों में प्रांतों और उनसे भी छोटी इकाइयों को ऐसी स्वायत्तता हासिल है कि उनकी सहमति के बिना केन्द्र शासन कोई फैसला नहीं ले सकता। युनाइटेड स्टेट्स आफ अमेरिका में तो प्रांतों का अपना झंडा और अपना अलग संविधान है। उन प्रांतों में भारत के किसी प्रांत से कम अमेरिकी भावना है क्या ? अमेरिका की राष्ट्रीय एकता और सुरक्षा भारत से कमजोर है क्या? नहीं ना। विशेष हैसियत और प्रावधान सिर्फ जम्मू-कश्मीर में नहीं है। धारा 371 के तहत महाराष्ट्र, गुजरात, नगालैंड, असम, मणिपुर, आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, सिक्किम, मिजोरम, अरूणाचल प्रदेश, कर्नाटक को विशेष प्रावधान हासिल हैं। पाँचवीं अनुसूची, छठी अनुसूची, पेसा, सीएनटी एक्ट, एसपीटी एक्ट, आरक्षण जैसे अनेकानेक संवैधानिक और वैधानिक विशेष प्रावधान हैं। क्या इन प्रावधानों के कारण ये क्षेत्र मुख्यधारा से बाहर हो गये हैं, देश कमजोर हो गया है। सच तो यह है कि इन प्रावधानों के
कारण ये क्षेत्र ज्यादा विश्वास के साथ देश से जुड़े हैं, उनकी उपेक्षा और असंतोष का बोध कम हुआ है। विशेष स्थिति के कारण, ऐतिहासिक उपेक्षा-अलगाव, विभेद को दूर करने के लिए विशेष प्रावधान आवश्यक होते हैं, अधिकांश देश में है। रक्षा, विदेश, मुद्रा और संचार का विषय केन्द्र के अधीन हो; बाकी सारे विषय प्रांतों के अधीन हों - ऐसी संघीय व्यवस्था की माँग कई दल, अधिकांश विचारक उठाते रहे हैं। कई देशों में ऐसी संघीय व्यवस्था है। एक देश-एक टैक्स; एक निशान-एक विधान जैसे नारे एक देश-एक दल, एक देश-एक सरकार, एक
देश-एक नेता जैसी तानाशाही-हिटलरशाही की ओर ले जाने की साजिश भी हो सकती है - यह समझना चाहिए। एक देश-एक शिक्षा, एक देश-एक चिकित्सा, एक देश- एक वेतन की संभावनाओं को भी कुचलनेवाली निजीकरणवादी, विषमतावादी सरकार; सांसदों-विधायकों-न्यायाधीशों के विशेषाधिकारों और विशेष सुविधाओं से चिपके रहनेवाले इस तंत्र को असल में विशेष हैसियतों से कोई परहेज नहीं है। उसे उन विशेष प्रावधानों से आपत्ति है जो उसकी निरंकुशता पर बाधा बन खड़े रहते हैं।
जम्मू-कश्मीर के विकास की राह खुलने का तर्क भी झूठा है। आतंक और दमन के बल जबरन थोपी जानेवाली योजना-परियोजना को विकास कहना सच्चे विकास का मजाक है। यह सरासर कश्मीरी जनता की,सिर्फ घाटी के मुसलमानों की नहीं जम्मूवासियों की, कश्मीरी पंडितों की, लद्दाखी बौद्धों की सबके संसाधनों की लूट का एलान है।
वैसे भी जम्मू-कश्मीर जिन्दगी की सच्ची कसौटियों पर गुजरात माॅडल के विकास से ज्यादा विकसित है, ज्यादा खुश और सेहतमन्द है। एक सरकारी आँकड़े - चौथे राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार जम्मू-कश्मीर औसत जीवन काल, प्रति महिला प्रजनन दर, पाँच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर, 8 साल की स्कूली शिक्षा पूरी करने वाली तरूणियों की संख्या, कमजोर कम वजन बच्चों की संख्या, पूरी तरह टीकाकृत बच्चों की संख्या, गरीबी रेखा से
नीचे रहनेवाली ग्रामीण आबादी, ग्रामीण मजदूरों की मजदूरी जैसे मामलों में गुजरात से बेहतर हाल में है। हाँ, करोड़पतियों, अरबपतियों की संख्या के मामले में जरूर पीछे होगा।
सरकारी और पूँजीपतियों के द्वारा बताया-रचाया जानेवाला विकास कितना जानलेवा, कितना लूटेरा होता है, इससे झारखंड के लोग खासकर गाँव के लोग पूरी तरह परिचित हैं। कश्मीर भी अब झारखंड सी, बल्कि झारखंड से ज्यादा विनाशक विकास-लीला झेलने वाला है।
केन्द्र का सबसे बड़ा निशाना 35ए को खत्म कर जन्नत की जमीन को खरीदने के लिए पूरी तरह खोल देने का है। मोमेन्टम झारखंड की ही तरह जम्मू और कश्मीर में भी इन्वेस्टमेन्ट सम्मिट का एलान हो चुका है। मुकेश अम्बानी और डालमिया विकसित करने अर्थात कश्मीर को खरीदने-बेचने-हड़पने का इरादा जाहिर कर चुके हैं। कश्मीर का क्या हश्र होगा, इसे देश की भयावह होती आर्थिक तस्वीर से आँका जा सकता है। आॅटो उद्योग से जुड़े, डीलरों के यहाँ काम करने वाले, पार्ट पुर्जा बनाने वाले, औजार बनाने वाले तीन लाख पैंतालीस हजार लोग नौकरी गँवा चुके हैं। दस लाख लोगों के बेरोजगार हो जाने की संभावना है। बेरोजगारी की दर 45 वर्षों में सबसे तेज है। मुफ्तखोर-कर्जखोर पूँजीपतियों पर सरकारी रहमदिली के कारण एनपीए (डूबा कर्ज) बढ़ता जा रहा है। विकास के इस माॅडल में पूंजीपतियों के पूंजी की सुरक्षा की गारन्टी है,
किसानों के खेत और खेती तथा मेहनतकशों के रोजगार और सही मजदूरी की तनिक भी फिक्र नहीं है। हाल के श्रम कानून संशोधनों से मजदूरों पर हमला तेज हो गया है।
अनुच्छेद 370 और 35 ए खत्म कर देने का उत्सव मनाने, प्रचार करनेवाली सरकार अर्थव्यवस्था की बढ़ती बदहाली को छिपाने की हर कोशिश कर रही है।
असल में देश के राज और देश की दौलत को कुछ हाथों में समेट लेने के हिटलरी कदम से लोगों का ध्यान बँटाने के लिए ही राष्ट्र, विकास और निवेश का शंखनाद किया जा रहा है, नशा पिलाया जा रहा है।
इस प्रकरण में संसद में उपस्थित अधिकांश दलों की भूमिका भी सरकार के फासीवादी कदमों को मजबूत बनाने में ही रही। इस मसले पर काँग्रेस भी वैचारिक रूप से दरक गयी है। बसपा, टीआरएस, बीजद, शिवसेना, वाईएसआर, आप जैसे दल ने तो इस संविधान-विरोधी फैसले का समर्थन किया। तृणमूल काँग्रेस, जेडीयु ने दोहरी मौकापरस्त भूमिका ली। दिल्ली के लिए पूर्ण प्रांत का दर्जा माँगनेवाली आम आदमी पार्टी तथा प्रांत के संघात्मक अधिकारों की सुरक्षा और बढ़ोतरी की राय रखनेवाले अकाली दल और अन्य क्षेत्रीय दलों की भूमिका अपने पैर पर अपने हाथ से कुल्हाड़ी मार लेने जैसी है। राजद, एआईएमआईएम, काँग्रेस, डीएमके, माकपा, भाकपा जैसे दलों का संसदीय विरोध तथा कई अन्य लोकतांत्रिक और वामपंथी शक्तियों का सड़क पर विरोध लोकतंत्र के पक्ष में साहसिक कदम है।
यह गौर करें - कश्मीर को अपना और कश्मीरियों को दुश्मन मानना साथ-साथ नहीं चल सकता। यह सीधा-सीधा अत्याचार है। जमीन जीतना कभी भी दिल और जेहन जीतने जैसा अच्छा और टिकाऊ नहीं होता। और यह जो किया गया, वह रत्ती भर भी ‘‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास’’ नहीं है।
वंचित, उपेक्षित वैसे क्षेत्रों और समुदायों को, जिन्हें 371, पाँचवीं अनुसूची, छठी अनुसूची, पेसा, सीएनटी, एसपीटी एक्ट, आरक्षण जैसे विशेष प्रावधान हासिल हैं, उन्हें तो अवश्य ही इस कदम का विरोध करना होगा। क्योंकि इस कदम का असल निशाना विशेष संरक्षणकारी प्रावधानों को खत्म करना है।