गांधी का मत है कि हिंसा ‘पशुओं’ का नियम है। पशु की आत्मा ‘सुप्तावस्था’ में होती है। वह केवल ‘शारीरिक शक्ति’ के नियम को ही जानता है। मानव की गरिमा एक उच्चतर नियम- आत्मा के बल का नियम- के पालन की अपेक्षा करती है। क्रूरता का जवाब क्रूरता से देना अपने नैतिक और बौद्धिक दिवालियापन को स्वीकार करना है और यह केवल एक दुश्चक्र को ही जन्म दे सकता है।
गांधी ने ‘संघर्ष के मैदान’ में (आजादी के संघर्ष के दौरान) इस तर्क के प्रहार का सामना किया कि “हिंसा क्रांतिकारी परिवर्तन का ‘औजार’ है। यह व्यवहारिक है और उपयोगी है। यह असफल हो सकता है, जैसे अन्य उपाय या औजार होते हैं। हिंसा सफल नहीं भी हो सकती है, लेकिन इसका मायने यह नहीं कि सदैव असफल होती है। अक्सर हम पाते हैं कि वही अंतिम उपाय बचता है। क्योंकि तर्क द्वारा अन्यायी को नहीं समझाया जा सकता है कि वह अन्याय कर रहा है।”
गाँधी कहते हैं कि “यह बात सही लगती है कि केवल तर्क द्वारा अन्यायी को नहीं समझाया जा सकता। मैं भी कहता हूं कि केवल तर्क द्वारा अन्यायी को नहीं समझाया जा सकता, क्योंकि वह तर्क के कारण नहीं अन्याय नहीं करता, वह अपनी बुरी ‘वृत्तियों’ के कारण अन्याय करता है।लेकिन इससे हिंसा का औचित्य कैसे सिद्ध होता है? आप जिस चीज को केवल तर्क के सहारे प्राप्त नहीं कर सकते, उसे हिंसा से कैसे प्राप्त कर सकते हैं?तब आपका उत्तर होगा – ‘अन्यायी को मार कर। अन्यायी मरेगा तो न्याय का रास्ता खुलेगा।’ लेकिन क्या आज तक ऐसा हुआ है?”
तीसरे उत्तर को मानने वाले मुख्यतः ‘वामपंथी’ हैं। ये लोग किसी तरह की ‘धार्मिक’ भावना में विश्वास नहीं करते। हिंसा को एक नीति-निरपेक्ष सवाल मानते हुए ‘उपयोगिता’ के आधार पर औचित्य-निर्णय करते हैं। लेकिन इनमें कुछ ‘नव वामपंथी’ (इन्हें भारत में ‘माओवादी’ कहा जाता है) लोग राजनीतिक उपाय के रूप में ‘हिंसा’ को अपनाने को सिर्फ ‘क्षम्य’ नहीं, बल्कि ‘वरेण्य’ मानते हैं।वे हिंसा को एकमात्र उपाय मानने का आग्रह भी करते हैं।
इस संदर्भ में नववामपंथी भी वामपंथ के पुराने ‘इतिहास’ से ही विचार और तर्क लेते हैं।वे कार्ल मार्क्स, ज्यां पॉल सार्त्र आदि का उल्लेख करते हुए अपनी मान्यता को ‘क्षम्य’ करार देते हैं। वामपंथ के दर्शन (अर्थशास्त्र) के प्रणेता और सिद्धांतकार कार्ल मार्क्स और उनके अनुयायियों को आवश्यकता पड़ने पर हिंसा से गुरेज नहीं था। वे इस संदर्भ में फ्रैंज फेनन की इस स्थापना को स्वीकारते हैं कि हिंसा के माध्यम से ही आम लोग सामाजिक सत्यों को जान पाते हैं। हिंसा व्यक्तियों की शुद्धि करती है। दबे हुए लोगों को उनकी हीन भावना और निराशा तथा निष्क्रियता से मुक्ति दिलाकर उन्हें अभय और आत्मसम्मान लौटाती है।यूं वे ‘हिंसा ही एकमात्र राजनीतिक उपाय है’’ को वैचारिक शक्ति प्रदान करने के लिए हर्बट मारक्यूज का भी उल्लेख करते हैं। हर्बट मारक्यूज हिंसा के किसी भी प्रकार को ‘अनैतिक’ मानते थे, लेकिन उनका सवाल था कि इतिहास का निर्माण कब नैतिक मानदंडों के आधार पर हो सकता है? (सभ्यता का विकल्प : नंदकिशोर आचार्य)
जयप्रकाश नारायण ने अपनी ‘विचार-यात्रा’ में क्रांतिकारी परिवर्तन के औजार के रूप में ‘हिंसा’ की उपयोगिता एवं सफलता के इतिहास’ का उल्लेख कुछ यूं किया है- “हिंसक क्रांति के लिए मुझे कोई नैतिक आपत्ति नहीं है, लेकिन न तो वह जल्दी हो पाती है और न ही कोई हिंसक क्रांति आज तक अपने मूल उद्देश्य को पा सकी है।क्रांतिकारी जमात के हाथ में सत्ता के आ जाने मात्र से क्रांति को सफल नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वास्तविक लक्ष्य तो एक नयी समाज-व्यवस्था का निर्माण करना होता है।इतिहास में क्या ऐसी एक भी क्रांति हुई है, जो अपने अभीष्ट आदर्शों को प्राप्त करने में सफल रही हो?अहिंसक प्रक्रिया में ‘परिवर्तन’ और ‘नवनिर्माण’ दोनों साथ-साथ चल सकते हैं। दूसरे, यह भी देखा गया है कि राजनीतिक हिंसा के ‘प्रतिक्रांतिकारी’ होने की संभावना अधिक रहती है क्योंकि हिंसक क्रांति हमेशा किसी-न-किसी प्रकार की ‘तानाशाही’ को जन्म देती है।
जयप्रकाश नारायण की यह उक्ति तो ‘इतिहास’ के आम अनुभव का सारांश है कि “क्रांतिकारियों ने जनता के लिए सब कुछ तो किया है, केवल उसकी पीठ पर से उतरने का कष्ट नहीं किया है।”