करम पर्व आदिवासी समाज का एक बड़ा त्योहार है. सरहुल यदि वसंतोत्सव है तो कारम बोंगा का पूजन धान के पौधों में बालिया फूटने के पहले का पर्व व पूजा है. कहानियां तो अनेक हैं, लेकिन मूल रूप से यह प्रकृति से यह प्रार्थना है कि बीज अंकुरित हो, उसमें कीड़े न लगें, फसल अच्छी हो. इसका भौगोलिक क्षेत्र पूरब में असम से लेकर पश्चिम में राजस्थान तक और उत्तर में नेपाल से लेकर दक्षिण में छत्तीसगढ़ तक माना जा सकता है जहां किसी न किसी रूप में भादो महीने के एकादशी के आस पास किसी न किसी रूप में मनाया जाता है.

न तो यह पर्व किसी चर्च में मनाया जाता है, न किसी मंदिर में. यह तो मनाया जाता है गांव के आंगन या अखड़ा में. निर्धारित दिन के एक सप्ताह पहले युवतियां बांस की टोकरी में बालू मिट्टी भर कर जौ, मकई, गेहूं आदि के दाने बो देती हैं. करम पूजा के दिन गांव के युवक, युवतियां करम का एक डाल को काट कर, उसे पूजित कर सम्मान के साथ अखड़ा में प्रत्यारोपित करते हैं, उसे धागे का वस्त्र पहनाते हैं, सिंदूर लगाते हैं और गांव का पाहन इस पर्व के साथ जुड़ी कहानियों का वाचन करता है और विधिवत पूजा करता है. प्रार्थना यह कि खेतों में लगी फसल लहलहा उठे. इसके साथ नाच गान.

इस अवसर पर गाये जाने वाले गीत जीवन को समभाव से ग्रहण करने और आनंद मनाने का आह्वान करते हैं. स्त्री पुरुष संबंधों की मिठास उनमें भरी हुई है. उनकी कुछ बानगी देखिये. देखिये सीधे सरल शब्दों में कैसे जीवन दर्शन और जीवन के रस भर जाते हैं. ये गीत हमने राम दयाल मुंडा व रतन सिंह मानकी द्वारा लिखित पुस्तक ‘आदि धर्म’ से ली है.

इस पृथ्वी पर

हम पैदा हुए.

भूख-प्यास, सुख-दुख

साथ लगे हैं.

जिस तरह कास फूटता है

उसी तरह पूंजी आती है.

कास फूल के झड़ने की तरह

पूंजी भी चली जाती है.

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करम का चांद उग आया है

मांदर की जोड़ी बज रही है

चलो हम चले, चलो हम चले

चटाई बीनना छोड़ो, हम नाच आयें.

भूख प्यास का अंत नहीं

रोग-व्याधि का अंत नहीं

चलो हम चलें, चलो हम चलें

चटाई बीनना छोड़ो, हम नाच आये.

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उस दिन रास्ते में

प्रिय तुमने एक बात कही थी

वह बात मन में बिंध गई

हे प्रिय, वह बात मैं भूल नहीं पाता

क्या तमने उसमें गुड़ मिलाया था?

क्या तमने उसमें घी मिलाया था?

उस बात से मेरा मन मीठा हो गया

हे प्रिय, वह बात मैं भूल नहीं पाता.

तो आईये, हम सब करमोत्सव में शामिल हों.