आज देश में जगह-जगह राजनीतिक बहस हो रही है – अलग-अलग दलों, संगठनों और संस्थाओं में। देश भर के युवाओं में और उनके मित्र-समूहों में भी दो-तीन सवालों पर बड़ा झगड़ा है और बहस चल रही है। उनमें से एक सवाल ‘धर्म’ का भी है। वैसे, धर्म का प्रश्न न उठता, किन्तु एक तरफ जगह-जगह साम्प्रदायिक संगठनों के विरुद्ध आक्रोश व्यक्त हो रहा है और दूसरी तरफ धर्मकी आड़ लेकर उन संगठनों का पक्ष लेने वाले स्वयं को बचा रहे हैं।

वैसे, यह प्रश्न और कुछ देर दबा रहता, लेकिन इस तरह सामने आ जाने से स्पष्ट बातचीत हो रही है और धर्म की समस्या को हल करने का प्रश्न भी उठ रहा है। हालांकि इस तरह की बातचीत और समाधान की खोज में लगे लोगों को तरह-तरह से परेशान करने, उन्हें अन्य आरोपों में फंसाने, या उन्हें जान से मारने की धमकी देने या उन्हें चोरी छिपे जान से मार देने तक की घटनाएं हो रही हैं। यहाँ तक कि ऐसी घटनाओं को एक तरफ सरासर ‘झूट’ करार देने, तो दूसरी तरफ बिल्कुल ‘सत्य’ करार देने की राजनीतिक कोशिशें तेज हैं। इस भिडंत में झूठ क्या है और सच क्या है के सवाल के बजाय “तू झूठा, इसलिए मैं सच्चा” के थीसिस को अपनी-अपनी ‘सत्ता’ की वैध-अवैध शक्ति से लैस किया जा रहा है।

सो ‘असहाय’ और भीड़ में अकेला-सा आमजन देख रहा है कि जो अभियोक्ता हैं,वे ही न्यायाधीश बने बैठे हैं और उसका जीना अपने आप में ‘गुनाह’ जैसा हो गया है! यह दृश्य सरे आम है कि कुछ दल-संगठन के नेता अपने किसी सहयोगी के पाँच-सात बार खुदा-खुदा करने पर यह कहते हैं कि दल के मंच पर आकर‘खुदा-खुदा’ न कहें। आप धर्म के मिशनरी हैं तो मैं धर्महीनता का प्रचारक हूँ। ऐसे दलों के युवा इसी विषय पर जगह-जगह मीटिंग कर रहे हैं। अन्य जगहों पर पक्ष-विपक्ष के मंचों पर भाषण हो रहे हैं। उनमें धर्म के नाम का लाभ उठाने वाले और यह सवाल उठ जाने पर झगड़ा हो जाने से डर जाने वाले कई लोग कई तरह की नेक सलाहें दे रहे हैं।

सबसे ज़रूरी ‘बात’ के नाम पर जो बार-बार कही जा रही है और जिस पर कई राजनीतिक ‘भाई-बंधु’ विशेष ज़ोर दे रहे हैं, वह यह है कि धर्म के सवाल को छेड़ा ही न जाये। आम तौर पर किसी राजनीतिक दल-संगठन या संस्था युवाओं लो लगता है कि यह बड़ी नेक सलाह है। यदि किसी का धर्म बाहर लोगों की सुख-शान्ति में कोई विघ्न डालता हो तो किसी को भी उसके विरुद्ध आवाज़ उठाने की जरूरत हो सकती है। लेकिन सवाल यह है कि अब तक का अनुभव क्या बताता है? पिछले कई आंदोलन और संघर्षों में भी धर्म का यही सवाल उठता रहा है। और सभी को पूरी आज़ादी दे दी गयी थी कि लोग दलों के मंच से भी आयतें और मंत्र पढ़ें। हालांकि उन दिनों धर्म में पीछे रहने वाला कोई भी आदमी अच्छा नहीं समझा जाता था। फलस्वरूप संकीर्णता बढ़ने लगी। जो दुष्परिणाम हुआ, वह किससे छिपा है? अब कई ‘राष्ट्रवादी’ या‘स्वतंत्रता’ प्रेमी लोग धर्म को अपने रास्ते का रोड़ा समझते हैं।

कई युवाओं का सवाल यह है कि क्या धर्म घर में रखते हुए भी, लोगों के दिलों में भेद भाव नहीं बढ़ता? आजादी के आंदोलन के दौर में क्या उसका देश के पूर्ण स्वतंत्रता हासिल करने तक पहुँचने में कोई असर नहीं पड़ा था? क्या आज देश के स्वतंत्रता से आगे बढ़ने में उसका कोई असर नहीं पड़ रहा है? इस समय देश में पूर्ण स्वतंत्रता के उपासक कई ‘सज्जन’ धर्म को दिमागी गु़लामी का नाम देते हैं। वे यह भी कहते हैं कि बच्चे से यह कहना कि ईश्वर ही सर्वशक्तिमान है, मनुष्य कुछ भी नहीं, मिट्टी का पुतला है, बच्चे को हमेशा के लिए कमज़ोर बनाना है। उसके दिल की ताकत और उसके आत्मविश्वास की भावना को ही नष्ट कर देना है। लेकिन इस बात पर बहस न भी करें और सीधे अपने सामने रखे प्रश्नों पर ही विचार करें तो युवाओं को नज़र आता है कि ‘धर्म’ उनके रास्ते में एक रोड़े जैसा है। मसलन, वे चाहते हैं कि सभी लोग एक-से हों। उनमें पूँजीपतियों के ऊँच-नीच की छूत-अछूत का कोई विभाजन न रहे।लेकिन सनातन धर्म इस भेदभाव के पक्ष में है। आज 21वीं सदी में भी 20वीं सदी की तरह पंडित जी, मौलवी जी जैसे लोग भंगी के लड़के के हार पहनाने पर कपड़ों सहित स्नान करते हैं और अछूतों को जनेऊ तक देने की इन्कारी है। यदि इस धर्म के विरुद्ध कुछ न कहने की कसम ले लें तो चुप कर घर बैठ जाना चाहिए, नहीं तो धर्म का विरोध करना होगा। लोग यह भी कहते हैं कि इन बुराइयों का सुधार किया जाये। बहुत खूब! ‘अछूत’ को स्वामी दयानन्द ने जो मिटाया तो वे भी चार वर्णों से आगे नहीं जा पाये। भेदभाव तो फिर भी रहा ही। गुरुद्वारे जाकर सिख ‘राज करेगा खालसा’ गायें और बाहर आकर ‘पंचायती राज’ की बातें करें, तो इसका मतलब क्या है?धर्म यह कहता है कि इस्लाम पर विश्वास न करने वाले को तलवार के घाट उतार देना चाहिए और यदि इधर एकता की दुहाई दी जाये तो परिणाम क्या होगा? युवा जानते हैं कि तब कई और बड़े ऊँचे भाव की आयतें और मंत्र पढ़ कर खींच तान करने की कोशिश की जा सकती है, लेकिन सवाल यह है कि इस सारे झगड़े से छुटकारा क्यों न पाया जाये?

यह आज का प्रश्न नहीं है। आजादी के आंदोलन के दौर में सक्रिय-निष्क्रिय तमाम तरह के युवाओं के समक्ष यही सवाल खड़ा था। तब उनमें देश की आजादी के अपने प्राणों की आहुति देने के लिए तत्पर युवाओं ने तात्कालिक स्थिति-परिस्थिति के रुबरू संगठित होकर संघर्ष के दर्शन, सिद्धांत, नीति-रणनीति और विधि-प्रक्रिया पर इस तरह विचार-विमर्श किया. मान लें कि भारत में स्वतंत्राता-संग्राम छिड़ जायें। सेनाएँ आमने-सामने बन्दूकें ताने खड़ी हों, गोली चलने ही वाली हो और यदि उस समय कोई मुहम्मद गोरी की तरह, जैसी कि कहावत बतायी जाती है, आज भी हमारे सामने गायें, सूअर, वेद-कुरान आदि चीज़ें खड़ी कर दे, तो हम क्या करेंगे? यदि पक्के धार्मिक होंगे तो अपना बोरिया-बिस्तर लपेट कर घर बैठ जायेंगे। धर्म के होते हुए हिन्दू-सिख गाय पर और मुसलमान सूअर पर गोली नहीं चला सकते। धर्म के बड़े पक्के इन्सान तो उस समय सोमनाथ के कई हजार पंडों की तरह ठाकुरों के आगे लोटते रहेंगे और दूसरे लोग धर्महीन या अधर्मी काम कर जायेंगे। तो हम किस निष्कर्ष पर पहुंचे? धर्म के विरुद्ध सोचना ही पड़ता है। लेकिन यदि धर्म के पक्षवालों के तर्क भी सोचे जायें तो वे यह कहते हैं कि दुनिया में अँधेरा हो जायेगा,पाप बढ़ जायेगा। तो धर्म क्या है?

— अगले अंक में जारी.