झारखंड के लतेहार में ताजा माओवादी हिंसा से चुनाव आयोग के पांच चरणों में चुनाव कराने के औचित्व को ठोस आधार मिल गया है. माओवादी पिछले पचास वर्षों में अपने प्रभाव क्षेत्र में जनता को यह नहीं समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि संसदीय चुनाव बेमतलब है और हर बार चुनाव वहिष्कार का आह्वान करते हैं और ठीक चुनाव के पहले आतंक फैलाने के लिए हिंसात्मक कार्रवाई करते हैं. बावजूद इसके जनता चुनाव के इस महापर्व में हिस्सा लेती है. जाहिर है, भाजपा अब इस चुनाव में भी जनता के मूल सवालों से मुंह चुरायेगी और आतंकवाद को सबसे बड़ा खतरा बता कर चुनाव लड़ेगी.
पहले स्पष्ट कर दूं कि उग्रवाद व नक्सली हिंसा दरअसल अब माओवादी हिंसा ही है, क्योंकि एमसीसी, पिपुल्सवार ग्रुप और पार्टी युनिटी के विलय के बाद नये तेवर के साथ प्रगट हुआ माओवाद ही नक्सली हिंसा का पर्याय बन गया है और नक्सली हिंसा के नाम पर हुई हिंसक वारदात का पच्चासी फीसदी माओवादी हिंसा ही है. नक्सलवाद और माओवाद में सैद्धांतिक फर्क यह भी बन गया है कि बचे खुचे नक्सली संगठन अब ‘इंडिवीजुअल इनहेलेसन’ में विश्वास नहीं रखते, हां, जनआंदोलन की सुरक्षा के लिए हिंसा को अपरिहार्य मानते हैं, चुनावी प्रक्रिया में भाग भी लेते हैं, जबकि माओवादी अब भी इस बात पर यकीन करते हैं कि क्रांति या बदलाव के लिए हिंसा ही एकमात्र विकल्प है और वे अपवाद स्वरूप ही चुनावी प्रक्रिया में भाग लेते हैं. वे सामान्यतः इस तथ्य के बावजूद चुनाव वहिष्कार का आह्वान करते कि अब कथित रूप से उनके प्रभाव क्षेत्र में भी जनता चुनाव में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती है.
विडंबना यह कि विगत 50 वर्षों से भी अधिक समय से सक्रिय रहने के बावाजूद माओवादी शोषण और विषमता पर आधारित इस व्यवस्था को बदलने की दिशा में एक कदम आगे नहीं बढे़, बल्कि सत्ता के लिए बड़े काम की चीज बन गये हैं. भाजपा ने पिछला लोकसभा चुनाव आंतरिक सुरक्षा और उग्रवाद के खात्मे के नाम पर लड़ा था और इस चुनाव में भी उग्रवाद व नक्सली हिंसा का खात्मा एक अहम मुद्दा बन गया है.
दूसरी तरफ विरोधाभास यह कि एक तरफ तो भाजपा का दावा है और जो एक हद तक सही भी है, कि उग्रवाद या नक्सली हिंसा अब काबू में हैं, बावजूद इसके नक्सली हिंसा को एक बड़ा खतरा बता कर चुनाव आयोग ने झारखंड में पांच चरणों में चुनाव कराने की घोषणा की है, जो 30 नवंबर के पहले चरण के मतदान से शुरु हो कर 20 दिसंबर के पांचवे चरण तक चलेगा और जाहिर है पूरे दो महीने राज्य में विकास के काम काज ठप रहेंगे. अभी- अभी 288 सीटों वाले महाराष्ट्र और 88 सीटों वाले हरियाणा में एक दिन में चुनाव हुए हैं. और तो और माओवाद से आक्रांत ओड़िसा में गत वर्ष सिर्फ दो चरणों में विधानसभा चुनाव हुए, वहीं झारखंड के 82 सीटों के लिए पांच चरणों में चुनाव होने जा रहे हैं.
चुनाव आयोग का कहना है कि झारखंड के 19 जिलों के 67 विधानसभा क्षेत्र नक्सल प्रभावित हैं. 13 जिले अति संवेदनशील और 6 संवेदनशील. प्रमुख विपक्षी दलों ने पांच चरणों में चुनाव कराये जाने की आलोचना करते हुए अलग-अलग वक्तव्य दिये हैं. हेमंत सोरेन ने कहा है कि पांच चरणों में चुनाव के ऐलान से झारखंड के हालात की पोल खुल गयी है. झाविमो नेता बाबूलाल मरांडी का कहना है कि पांच साल में काम होता तो ऐसी नौबत नहीं आती. कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष रामेश्वर उरांव का कहना है कि राज्य सरकार के विधि व्यवस्था पर नियंत्रण, नक्सलवाद के खात्मा जैसे दावों पर निर्वाचन आयोग ने भरोसा नहीं दिखाया है.
कुल मिला कर विपक्षी दलों ने विधि व्यवस्था और नक्सलवाद पर काबू पाने के सरकार के दावों को खोखला बताया है, लेकिन मामला सिर्फ इतना नहीं. पांच चरणों में चुनाव कराये जाने का मामला कुछ ज्यादा ही रहस्यमय लगता है, क्योंकि सरकारी आंकड़ों के ही लिहाज से देखा जाये तो भाजपा के सत्ता में आने के बाद से माओवाद या नक्सलवादी घटनाओं में काफी कमी आयी है. माओवाद या नक्सलवाद से तीन राज्यों को सबसे अधिक प्रभावित माना जाता है. पहले नंबर पर है छत्तीसगढ़, दूसरे नंबर पर झारखंड और तीसरे नंबर पर बिहार. जानकार सूत्रों के अनुसार इन तीन राज्यों में 2013 में कुल 1136 नक्सली हिंसा हुई थी जो 2018 में घट कर 833 हो गयी, यानि हिंसा की घटनाओं में 27 फीसदी की कमी आयी. 2013 में इन तीन राज्यों में 397 लोग मारे गये, वहीं 2018 में 240 लोग. यानि, 39 फीसदी की कमी आयी.
सिर्फ झारखंड की बात करें तो पुलिस सूत्रों के अनुसार 2001 में माओवादियों के साथ मुठभेड़ की जहां 312 घटनाएं हुई थी, वहीं 2019 के जून माह तक मुठभेड़ की सिर्फ 25 घटनाएं हुई. इसी तरह लैंड माइंस विस्फोट की घटनाओं में भी कमी का दावा किया गया है. 2016 में 4, 2017 में 2 और 2018 में 3 विस्फोट की घटनाएं हुई. जबकि इस वर्ष जून माह तक विस्फोट की कोई घटना नहीं हुई. राज्य के गठन के बाद माओवादी हिंसा के खिलाफ सतत कार्रवाई हुई है. पुलिस सूत्रों के अनुसार पिछले 18 सालों में 5688 नक्सली हमले में 510 पुलिसकर्मी और 846 नक्सली मारे जा चुके हैं. अब 550 माओवादी बचे हैं, जिनमें से 250 पर इनाम घोषित किया जा चुका है. और इन्हें समाप्त करने के लिए सीआरपीएफ की 122, आईआरबी 5 और झारखंड जगुआर की 40 कंपनी फोर्स तैनात है.
यह भी आश्चर्यजनक और विरोधाभासी है कि यदि झारखंड उग्रवाद के लिहाज से इतना गंभीर राज्य है कि वहां पिछले दो और अब इस तीसरे विधानसभा चुनाव में पांच चरणों में चुनाव कराने की नौबत रही है, फिर पुलिस आधुनिकीकरण के नाम पर आवंटित राशि अन्य राज्यों की तुलना में कम क्यों है? गृह मंत्रालय के सूत्रों के अनुसार 2014-15 में आंध्र प्रदेश को जहां 102.81 करोड़ का आवंटन हुआ था, वहीं झारखंड को सिर्फ 22.56 करोड़ का और 2017-18 में जहां आंध्र प्रदेश को 29.87 करोड़ का आवंटन हुआ था, वहीं झारखंड को 11.24 करोड़ का. विरोधाभास तो यह कि जिस उत्तर प्रदेश में नक्सल गतिविधियां न के बराबर रही हैं, उसे 2014-15 में 154.87 करोड़ की और पिछले वर्ष 77.16 करोड़ की राशि पुलिस आधुनिकीकरण के लिए दी गयी है.
यानि, एक तरफ उग्रवाद के खात्मे का दावा, दूसरी तरफ विधि व्यवस्था और उग्रवाद को बहाना बना कर झारखंड को चुनाव की दृष्टि से असहज बना दिया जाना. यदि वास्तव में भाजपा के शासन काल में विकास हुआ, जनता इस सरकार से खुश है, फिर इतना असंतोष क्यों? इस हद तक कि 24 जिलों में 19 जिले उग्रवाद से प्रभावित? जिन इलाकों को संवेदनशील बताया जा रहा है, वे आदिवासी, दलित बहुल क्षेत्र हैं जिनके विकास के लिए भाजपा सरकार खुद को कटिबद्ध बताती है. कही इसकी वजह यह तो नहीं कि सरकार उग्रवाद को सिर्फ विधि व्यवस्था का सवाल मानती है, सामाजिक-आर्थिक समस्या नहीं? क्या यह महज इत्तफाक है कि पिछले दो विधान सभा चुनावों से, यानि जब से पांच चरणों में चुनाव हो रहे हैं, भाजपा पहले से ज्यादा सीटों के साथ विधानसभा में प्रवेश कर रही है?
समाजवादी जन परिषद के भारत भूषण चौधरी का कहना है कि भाजपा चुनाव को लेकर आशंकाग्रस्त है और पांच चरणों में चुनाव करा कर चुनाव प्रक्रिया को भारी बना रही है. इससे उन दलों को तो फायदा होगा जो साधन संपन्न हैं, लेकिन तुलनात्मक दृष्टि से कम साधन संपन्न दलों के लिए परेशानी होगी. अभी तो सिर्फ झारखंड में चुनाव होने वाला है. सरकार सुरक्षा बलों की तैनाती कर एक दिन में चुनाव करा सकती थी. अब जनता को ज्यादा दिनों तक सचेत रहने की जरूरत रहेगी.