पलामू जैसे सामंती जिले की स्थिति को समझिये. दूसरे दलों ने ओबीसी को अपने पक्ष में सिर्फ ठप्पा लगाने का माध्यम समझ रखा है, पुश्तैनी संपदा! बीजेपी ने पलामू में 3 पिछड़ों को सिंबल दिया, और गैर बीजेपी दलों ने सभी टिकट गैर पिछड़ों को. नतीजा 100 प्रतिशत बीजेपी के पक्ष में.

बीते शुक्रवार 17 जनवरी को रोहित वेमुला की चौथे शाहादत दिवस को देश ने याद किया. हैदराबाद विवि में आयोजित कार्यक्रम में रोहित वेमुला की मूर्ति का स्पर्श करते हुए उनकी मां राधिका वेमुला एक बार फिर रो पड़ी. उनके साथ उस समारोह में पायल तड़वी के माता पिता भी शामिल थे, उस पायल तड़वी के माता पिता जिसने पिछले वर्ष अपने सीनियर डाक्टरों की नस्ली प्रताड़ना से तंग आकर आत्महत्या कर ली थी. क्या है इन आंसुओं का मोल? क्या रोहित वेमुला की मां के इन आंसुओं में सिर्फ उनकी अपनी निजी पीड़ा की अभिव्यक्ति हुई थी? शायद, इन आंसुओं में सदियों की प्रताड़ना का दर्द भी छुपा था जो हिमालय की तरह हृदय में जमा होता चला गया है और जब तब फूट पड़ता है. इसलिए उन्होंने कहा कि वे सामाजिक न्याय के संघर्ष में हमेशा नई पीढ़ी के साथ खड़ी रहेंगी.

रोहित वेमुला की शहादत को अन्य सभी संगी साथियों ने भी याद किया. उनका वह अंतिम पत्र पढ़ा गया. उन तमाम सामाजिक विसंगतियों को एक बार फिर याद किया गया जिसकी परिणति रोहित वेमुला की शहादत के रूप में हुई थी. एक बार फिर मनुवादी वर्ण व्यवस्था से उत्पन्न उन तमाम परिस्थितियों पर विमर्श हुआ जिसमें घुट कर रोहित आत्महत्या के लिए प्रेरित हुए.

विडंबना यह है कि रोहित वेमुला की शहादत के बाद के इन तीन वर्षों में सामाजिक न्याय की लड़ाई निरंतर कमजोर होती गयी है. और वह राजनीति शक्तिशाली होती गयी हैं जिनका संचालन कट्टर मनुवादी लोग करते हैं. मोदी पहली बार 31 फीसदी वोट लेकर केंद्र की सत्ता पर काबिज हुए थे. 17 की जनवरी में रोहित वेमुला ने आत्महत्या की और 19 की लोकसभा चुनाव में मोदी के वोट का शेयर बढ़ कर 36 फीसदी तक पहुंच गया.

त्रासद यह भी है कि यह वोट शेयर इसलिए बढ़ा कि वंचितों की जमात के सबसे अधिक प्रताड़ित समुदायों - दलित और ओबीसी- का रुझान उस कट्टर हिंदुत्ववादी राजनीतिक दल की तरफ रहा जिसका मूलाधार ही ब्राह्मणवादी सामाजिक आर्थिक व्यवस्था है. न सिर्फ लोकसभा चुनाव में यह परिलक्षित हुआ, बल्कि झारखंड में हुए विधानसभा चुनाव में यदि भाजपा सत्ताच्यूत हुई तो आदिवासी सीटों की बदौलत. दलित-ओबीसी बहुल सीटों में से आधे से ज्यादा भाजपा जीत ले गयी. क्यों जीती? इसके पीछे कौन सी भावना काम करती है, इसकी अभिव्यक्ति एक सामाजिक कार्यकर्ता अर्जुन कुमार के इन शब्दों में हुई है. - ‘‘ पलामू जैसे सामंती जिले की स्थिति को समझिये. दूसरे दलों ने ओबीसी को अपने पक्ष में सिर्फ ठप्पा लगाने का माध्यम समझ रखा है, पुश्तैनी संपदा! बीजेपी ने पलामू में 3 पिछड़ों को सिंबल दिया, और गैर बीजेपी दलों ने सभी टिकट गैर पिछड़ों को. नतीजा 100 प्रतिशत बीजेपी के पक्ष में. पिछड़ा सिर्फ उपयोग होने का अधिकारी है क्या, ठप्पा लगाते रहिये, कब तक!’’

यानि, सत्ता में भागिदारी के लिए दलित, ओबीसी उन्हीं मनुवादी ताकतों के गोद में जा बैठेगा जिनसे वह सर्वाधिक प्रताड़ित और उत्पीड़ित रहता है. क्या दलित राजनीति की आज दशा दिशा यही नहीं बन गयी है? मायावती जितना आशंकित भाजपा से नहीं रहतीं, उससे ज्यादा अपने ही समुदाय के भीतर से उठने वाली किसी अन्य चुनौती से, भाजपा विरोधी विपक्षी दलों से. बिहार में अर्जक संघ से अपनी राजनीति शुरु करने वाले रामविलास अब पूरी तरह भाजपा के साथ हैं. यह कठोर यर्थाथ है कि भाजपा के टिकट पर जीतने वाला हर जन प्रतिनिधि भगवा रंग में रंग जाता है. और भगवा रंग में रंगा नेता या जनप्रतिनिधि सामाजिक न्याय का विरोधी होता चला जाता है. भाजपा आपको दोयम दर्जा का नागरिक मानते हुए तमाम हिंदुत्ववादी कार्यक्रमों-अभियानों में अगुवा की भूमिका देने को तैयार है, बाबरी मस्जिद को गिराने और राम मंदिर को बनाने में. नागरिकता कानून का सभी विरोध कर रहे हैं. लेकिन भाजपा में शामिल दलित और अल्पसंख्यक नेताओं का रुख इस पर क्या है?

इसलिए इस बात को लेकर हमेशा शंका रहती है कि क्या रोहित वेमुला की मां के आंसुओं का मोल, उसकी पीड़ा दलित-वंचित राजनीति समझती भी है या बस यह एक भावनात्मक मुद्दा बन कर रह गया है! क्योंकि विकल्प सत्ता का शाॅट कट नहीं, समाज के वंचित-पीड़ितों की व्यापक एकजुटता में हैं.