पुलिस महिलाओं की रजाई, कंबल और खाने का सामान तक ले जा रही है, तो कहीं उनके धरनास्थल को पानी से भर दे रही है और रात के दो बजे उन पर डंडे बरसा रही है. कहीं धरना पर बैठी महिलाओं पर पत्थर फेंके जा रहे हैं. ये सारे प्रयोग चाहे पुलिस का हो या अति हिंदूवादी लोगों का, इसे क्या कहा जाये-हिंसा या अहिंसा?
राष्ट्रपति महोदय ने अपने अभिभाषण में कहा कि हिंसा से किसी समस्या का हल नहीं हो सकता. इसी तरह मोदी जी ने भी कहा कि हिंसा से कुछ हासिल नहीं होगा. इन लोगों ने जिस हिंसा की बात कही है, उसका संदर्भ दिल्ली के शाहीनबाग सहित देश में सीएए, एनआसी और एनपीए के विरूद्ध चल रहे आंदोलनों से है. उनकी दृष्टि में यह एक तरह की हिंसा है जो सरकार के कानून की खिलाफत करती है. शाहीनबाग में 56 दिनों से प्रचंड ठंढ़ में भी बच्चों के साथ टेंट में बैठी महिलाएं लगातार संविधान का हवाला दे रही हैं और कह रही हैं कि वे अपने अधिकारों और संविधान की रक्षा के लिए महात्मा गांधी के बताये अहिंसा के मार्ग पर चल कर शांतिमय तरीके से अपना विरोध प्रगट करेंगी. वे अभी तक अपने इस रणनीति पर दृढ़ता से कायम हैं और सरकार से आशा कर रही हैं कि वे उनकी बात सुने.
अब सरकार शांतिपूर्ण तरीके से विरोध प्रकट करने को हिंसा मानती है, तो इसका अर्थ यह हुआ कि संविधान से हमें अपने विचार व्यक्त करने का जो अधिकार मिला है, उसका उपयोग करना हिंसा हुआ. शाहीनबाग के इस हिंसक प्रदर्शन को रोकने के लिए सरकार किस अहिंसक तरीके का प्रदर्शन कर रही है, इस पर भी विचार होना चाहिए. धरनास्थलों पर अस्त्रशस्त्र से लैस पुलिस भारी संख्या में तैनात है जो इस प्रतीक्षा में हैं कि वहां पर किसी भी तरह की हिंसा हो तो वे अपने अस्त्रों का प्रयोग कर आंदोलन को खत्म कर दें. धरना स्थल पर पिस्तौल के साथ दो लड़कों को गोली चलाने तक की छूट दी गयी ताकि आंदोलनरत महिलाएं डर जायें. कहीं-कहीं पर पुलिस महिलाओं की रजाई, कंबल और खाने का सामान तक ले जा रही है, तो कहीं उनके धरनास्थल को पानी से भर दे रही है और रात के दो बजे उन पर डंडे बरसा रही है. कहीं धरना पर बैठी महिलाओं पर पत्थर फेंके जा रहे हैं. ये सारे प्रयोग चाहे पुलिस के हों या अति हिंदूवादी लोगों के, इसे क्या कहा जाये-हिंसा या अहिंसा? इस प्रयोग से तो हिंसा का अर्थ ही बदल गया लगता है. लोग अपने अधिकारों के लिए विरोध की बोली बोलें तो वह हिंसा होगी और सरकारी दमन अहिंसा.
हिंसा का अर्थ ही नहीं, और कई ऐसे शब्द हैं जिसका अर्थ भी हाल कि दिनों में बदल गया है. जैसे माॅब लिंिचिंग का अर्थ गो रक्षा हो गयी, जो लोग देश के साहित्य- संस्कृति- इतिहास के बारे में कुछ बोंले या लिखें तो वे खान मार्केट के बुद्धिजीवी हो गये. प्रधान मंत्री या गृहमंत्री के विरोध में बोलने वालों को अर्बन नक्सल कहा गया और वे देशद्रोही घोषित हो गये. ‘घर में घुस कर मारेंगे’, ‘चुनचुन कर मारेंगे’ जैसे नेताओं के वाक्य का मतलब एक कल्याणकारी राज्य की उद्घोषणा साबित हुई. जो लोग कश्मीर या छत्तीसगढ़ जैसे जगहों के शोषितों के बारे में कहेंगे, वे ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ के लोग होंगे. जो कोई यह सोचता है कि मनुष्य को धर्म के आधार पर बांटा नहीं जा सकता है, मनुष्य मनुष्य ही होता है तो वह ‘सूडो सेक्यूलरिस्ट’ हो जायेगा. विधवा का अर्थ उस स्त्री से है जिसका पति देश की रक्षा के लिए मर गया है, इस तरह उनके शब्द कोश में शब्दों के नये अर्थ गढ़े गये हैं. इसलिए अब हिंसा का भी अर्थ धर्म के आधार पर निश्चित करना हो गया है.
इस परिप्रेक्ष्य में यह समझना मुश्किल हो गया है कि महामहिम किस हिंसा की बात कर रहे हैं?