भारत की लोकतांत्रिक सरकार तो सभी स्त्री पुरुषों को बराबर का अधिकार दे कर समता मूलक समाज की कल्पना को साकार करना चाहती है, लेकिन स्त्री- पुरुष, उंच-नीच जातियों में बंटा समाज इसे असंभव ही बनाता है और सामाजिक गलत परंपराओं के सामने सरकार हमेशा बौनी नजर आती है.

हिंदू समाज में स्त्री पुरुष के अंतर का एक पहलू यौन शुचिता भी है. यानि, स्त्री के लिए यौन शुचिता अनिवार्य है, अन्यथा वह अपवित्र हो जायेगी. स्त्री की इस यौन शुचिता को भंग करने का काम पुरुष ही करता है, लेकिन स्त्री को अपनी रक्षा करने में असमर्थ समझा जाता है. इसलिए पुरुष ही स्त्री के जीवन में कई स्तरों पर पिता, भाई, पति और पुत्र के रूप में उसका रक्षक बन जाता है. वह उनके अधिकार क्षेत्र में रह कर अपनी पवित्रता की रक्षा करती है. अब तो पुरुष एक नये रूपमें भी अवतरित हो गया है. माथे पर तिलक लगाये, सर पर गमछा बांधे और हाथ में लाठी लिये हर चैक चैराहे या पार्कों में इस तरह की मोरल पुलिस को देखा जा सकता है. खास कर वेलेंटाईन डे के दिन पार्कों में घूम-घूम कर प्रेमी युगलों को डंडों से पीटना, उसके अपराध के प्रायश्चित के रूप में उन्हें उठक बैठक करवाना या फिर लड़की की मांग में लड़के द्वारा सिंदूर लगवा कर वे अपने दायित्व को निभाते नजर आते हैं. इस तरह एक पुरुष एक लड़की की शुचिता को दूसरे लड़के के हाथ में सौंप कर निश्चिंत होता है.

पुरुष का यह श्रेष्ठता बोध या स्त्री पर एकाधिकार का एक विकृत रूप यह भी होता है कि उसके आधिपत्य को अस्वीकार करने पर बीच सड़क पर भी वह लड़की के चेहरे पर एसिड फेंक कर उसे बदशक्ल बना सकता है या पेट्रोल डाल कर उसे जला कर मार भी सकता है. गार्गी कालेज के जलसे में अनाधिकार प्रवेश कर शराब तथा सिगरेट का सेवन कर लड़कियों को यौन हिंसा का शिकार भी बना सकता है. वहां खड़ी पुलिस उनके इन हरकतों को चुपचाप देखती रहती है, क्योंकि वह भी यह मानती है कि लड़कियों को छेड़ने का अधिकार लड़कों को जन्मजात मिला है.

यौन शुचिता के बोझ तले दबी लड़कियां हमेशा पवित्र भी नहीं रहती हैं. उससे भी पुरुष अपना बचाव करता है. जैविक कारणों से या शारीरिक बदलाव के कारण महीने के चार-पांच दिन महिलाओं को मासिक धर्म को निभाना पड़ता है. मान्यता है कि इस अवस्था में वह अपवित्र हो जाती है जिसको एक अछूत भी माना जाता है. उस दौरान उसकी छाया भी पुरुष पर नहीं पड़नी चाहिए. यही कारण है कि सबरीमला के ब्रह्मचारी देवता अईयप्पा के मंदिर में दस से पचास वर्ष तक की महिलाओं का प्रवेश वर्जित कर दिया गया है. धार्मिक समानता के अधिकार का हवाला देते हुए आये उच्चतम न्यायालय का फैसला भी इस नियम को नहीं बदल पाया है.

उच्च जातियों में मासिक धर्म के समय स्त्रियां घर के अंदर भोजन नहीं कर सकती हैं, क्योंकि इससे घर के अन्य लोगों की जाति ही भ्रष्ट हो जायेगी. यही कारण है कि गुजरात के श्री सहजानंद ग्रल्र्स कालेज के हास्टल की 60 छात्राओं को यह आदेश दिया गया कि वे अपने अंतरवस्त्र को खोल कर दिखाये कि वे मासिक धर्म के समय में तो नहीं हैं. उस कालेज में यह नियम है कि कोई भी मासिक धर्म के समय अन्य लड़कियों के पंगत में बैठ कर भोजन नहीं कर सकती हैं. उक्त 60 छात्राओं पर यह आरोप था कि उन्होंने इस नियम को भंग किया है. इस तरह लोगों का जाति भ्रष्ट करने का अधिकार उन्हें नहीं.

भारत की लोकतांत्रिक सरकार तो सभी स्त्री पुरुषों को बराबर का अधिकार दे कर समता मूलक समाज की कल्पना को साकार करना चाहती है, लेकिन स्त्री- पुरुष, उंच-नीच जातियों में बंटा समाज इसे असंभव ही बनाता है और सामाजिक गलत परंपराओं के सामने सरकार हमेशा बौना नजर आता है. क्योंकि सत्ता का मूल चरित्र पुरुष सत्तात्मक है.