विभीषण एक धर्मात्मा और परम राम भक्त थे. लेकिन भारतीय समाज उन्हें हमेशा थोड़ी नफरत से ‘घर का भेदी लंका ढ़ाये’ जैसे शख्स के रूप में याद करता है. बाबूलाल भी ‘राम’भक्त हो गये हैं, वे झारखंड के अनेक नेताओं की तुलना में प्रबुद्ध भी हैं, लेकिन उनके व्यक्तित्व से यह ‘विभीषण’ वाली छवि हमेशा के लिए चिपक कर रह जायेगी.

इधर मैंने कई आलेख लिखे बाबूलाल के बारे में. इस लेख के साथ अंत करूंगा. दरअसल, बाबूलाल की भाजपा में वापसी एक बेहद उद्वेलित करने वाली घटना है झारखंड की राजनीति की. भारतीय राजनीति ‘आया राम, गया राम’ वालों से भरी पड़ी है. वैसे, में संघ की शाखाओं में दीक्षित बाबूलाल की भाजपा में वापसी भी कोई बहुत कौतूहल वाली घटना नहीं. लेकिन बाबूलाल ने जिस कदर अपमानित हो कर भाजपा छोड़ी थी और जिस तरह से बार-बार ऐलान किया था कि वे भाजपा में किसी भी कीमत पर वापस नहीं होंगे, उनके जैसे बड़े कद काठी के नेता का अपने ही सार्वजनिक घोषणाओं के विपरीत आचरण करना उनके प्रशंसकों को भी निराश करता है. इसलिए यह जरूरी है कि हम आत्महीनता से भरी इस घटना से जुड़े कुछ सवालों पर एक बार फिर विचार कर लें. दो तीन सवाल हैं. एक तो यह कि बाबूलाल भाजपा में वापस क्यों गये? दूसरा यह कि भाजपा उन जैसे पिटे नेता से भी क्या हासिल करने वाली है? और तीसरे, बाबूलाल के बारे में झारखंड की जनता क्या राय रखेगी इस घटना के बाद.

तो सबसे पहले पहला सवाल, बाबूलाल भाजपा में क्यों गये? इसका तो जवाब यह है कि भाजपा से अपमानित होकर निकलने के बाद भी बाबूलाल राजनीति में कोई खास जगह नहीं बना सके. उनकी सीमा और शक्ति एक संथाल नेता होने की थी. लेकिन संथालों में वे शिबू सोरेन जैसे नेता के सामने बेहद बौने बने रहे हमेशा. यह सही है कि एक बार वे शिबू सोरेन को हराने में सफल रहे और इसी के पुरस्कार स्वरूप उन्हें वाजपेयी जी के केंद्रीय मंत्रिमंडल में जगह मिली और वे झारखंड के पहले मुख्यमंत्री भी बन सके, लेकिन उस एक चुनावी सफलता के बाद वे कोई बड़ी चुनावी सफलता हासिल नहीं कर सके. एक बार वे झारखंड विधान सभा में कांग्रेस की मदद से 11 विधायकों के साथ और दूसरी बार 8 विधायकों के साथ पहुंचे जरूर, लेकिन उनकी पार्टी का इस्तेमाल नीति-सिद्धांतविहीन अधिकतर नेताओं ने सत्ता तक पहुंचने की सीढ़ी की तरह किया. और संकट यह था कि भाजपा से अलग होकर भी वे कोई अन्य वैकल्पिक राजनीति नहीं दे सके, क्योंकि उनके पास कोई वैकल्पिक अर्थनीति नहीं थी. इसलिए मोदी के राजनीति में आने के बाद जब राजनीतिक ध्रुवीकरण तीव्र हुआ तो वे अप्रासांगिक हो कर रह गये. लगता तो यह है कि इस बार के चुनाव के पहले ही उनकी भाजपा से सांठगांठ हो चुकी थी. उनके पास चुनाव प्रचार के लिए दो-दो हेलिकाप्टर होना, सभी सीटों पर चुनाव लड़ने की उनकी मुहिम इसी बात की तरफ संकेत करती है. लेकिन महज तीन सीटों पर सिमट जाने के बाद उनके पास कोई चारा नहीं रह गया था कि वे ‘झाड़ू लगाने’ के लिए ही सही, भाजपा में चले जायें. लेकिन वहां भी उन्हें रघुवर दास और अर्जुन मुंडा जैसे नेता चैन से रहने देंगे, इसकी कम ही उम्मीद है.

अब आयें दूसरे सवाल पर. भाजपा उन जैसे पिटे नेता से क्या हासिल करना चाहती है. दरअसल, वह आदिवासी समाज का सर्वनाश आदिवासी नेताओं से ही करना चाहती है. भूमि कानूनों में संशोधन, डोमेसाईल, और संथालों में हिंदूकरण की प्रक्रिया का लाभ वह बाबूलाल के मार्फत उठाना चाहती है. इस चुनाव में झामुमो गठबंधन की जीत जरूर हुई है, लेकिन वोटों के प्रतिशत में भाजपा बहुत पीछे नहीं, बल्कि आगे ही दिखती है. आप कल्पना करें कि यदि भाजपा ने पिछला चुनाव आजसू के साथ मिल कर लड़ा होता तो चुनाव के नतीजे क्या होते? बाबूलाल अगले चुनाव में थोड़ा बहुत आदिवासी वोट उनके पक्ष में लेकर आये तो उससे भाजपा को मदद मिलेगी. साथ ही बाबूलाल के रूप में एक ऐसा आदिवासी नेता उन्हें मिल गया है जो उनके भूमि अधिग्रहण कानून, उनकी डोमेसाईल नीति, उनके सांप्रदायिक एजंडें को पूरा करने के लिए भोंपू बन कर काम करेगा. बाबूलाल भाजपा के पहले से सीएनटी एक्ट जैसे भूमि कानूनों में संशोधन की बात करते रहे हैं. वे सीएए, एनआरसी जैसे कानूनों का खुल कर समर्थन कर रहे हैं. भाजपा में शामिल होने के बाद उन्होंने खुल कर कहा कि सनातन हिंदू धर्म सर्वश्रेष्ठ है और उसी की वजह से देश में धर्मनिरपेक्षता बची हुई है. साथ ही उन्होंने सीएए और एनआरसी का समर्थन किया. बाबूलाल के रूप में उन्हें एक और ऐसा आदिवासी नेता मिल गया जो उनके भगवा झंडे को लेकर झारखंड में अगले चुनाव तक घूमेंगा.

अब रहा अंतिम सवाल- बाबूलाल के प्रति झारखंडी जनता का रूख क्या रहेगा? निर्विवाद है यह तथ्य की बाबूलाल ने अपने इस कदम से अपनी रही सही प्रतिष्ठा भी खो दी है. अब शायद ही कोई उनका सम्मान कर सके. विभीषण एक धर्मात्मा और परम राम भक्त थे. लेकिन भारतीय समाज उन्हें हमेशा थोड़ी नफरत से ‘घर का भेदी लंका ढ़ाये’ जैसे शख्स के रूप में याद करता है. बाबूलाल भी ‘राम’भक्त हो गये हैं, वे झारखंड के अनेक नेताओं की तुलना में प्रबुद्ध भी हैं, लेकिन उनके व्यक्तित्व से यह ‘विभीषण’ वाली छवि हमेशा के लिए चिपक कर रह जायेगी. विडंबना यह कि विभीषण को तो तत्काल लंका का राजपाट भी मिल गया था, बाबूलाल को शायद ही कभी झारखंड की बागडोर मिले. हां, वे भाजपा विधायक दल के नेता और ढ़लती उमर में वे कभी किसी राजभवन में शिफ्ट किये जा सकते हैं. फिलहाल तो भाजपा उनसे अपना भगवा झंडा टुलवायेगी झारखंड में.