झारखंड अलग राज्य का गठन हो गया और झारखंडियों का राजसत्ता पर कब्जा भी. झारखंड आंदोलन से जुड़े लोगों और युवा झारखंडियों का अगला सपना वृहद झारखंड ही हो सकता है. झारखंड से सटे बंगाल के आदिवासीबहुल इलाकों में, जिसमें पुरुलिया, बाकुड़ा, पूर्वी और पश्चिमी मिदनापुर आदि इलाके आते हैं और जो इतिहास में जंगलमहल के रूप में विख्यात है, सामाजिक, सांस्कतिक और भाषायी आंदोलन तेज हुए हैं. आप कह सकते हैं कि जंगलमहल करवट ले रहा है.
आपको याद होगा कि झारखंड अलग राज्य आंदोलन के नेताओं, कार्यकर्ताओं ने कभी 18 जिलों, जो बढ़ कर अब 24 हो गया है, का सपना नहीं देखा था. उनका सपना तो 28 जिलों का वृहद झारखंड था, जिसमें पश्चिम बंगाल के पुरुलिया, बाकुड़ा और मिदनापुर जिले, ओड़िसा के मयूरभंज, क्योझर और सुंदरगढ़ जिले और मध्यप्रदेश के सरगुजा और रायगढ़ा जिले शामिल थे. लेकिन कारपोरेट लूट को आसान बनाने और झारखंड आंदोलन को राजनीतिक रूप से कमजोर करने के लिए वृहद झारखंड के सपने की भ्रूण हत्या कर दी गयी. भाजपा ने आननफानन तीन नये राज्य- झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड का गठन कर दिया. और वृहद झारखंड की जगह 18 जिलों का झारखंड अलग राज्य बन गया.
फौरी तौर पर तो लोगों ने इसे स्वीकार कर लिया, लेकिन वृहद झारखंड के नक्शे में शामिल अन्य आदिवासीबहुल इलाकों को इस बात का मलाल रह गया है कि उनके साथ नाइंसाफी हुई. खास कर झारखंड से सटे पश्चिम बंगाल के आदिवासी जिलों में यह बेचैनी ज्यादा है. पिछले कुछ दशकों से माओवादी हिंसा के लिए चर्चित इन इलाकों में सामाजिक, सांस्कृतिक और भाषाई आंदोलन तेज हुए है. 1-2 फरवरी को जंगलमहल के रानीबांध विधानसभा क्षेत्र के धोजुड़ी गांव में दो दिन का विराट सम्मेलन हुआ, जिसमें झारखंड के साथी कुमार चंद्र मार्डी और हरीश जी अपने कुछ अन्य साथियों के साथ गये थे. इन दो दिनों के सम्मेलन में नाच गान हुए, स्वदेशी वाद्ययंत्रों का ही भरसक उपयोग किया गया और आदिवासी समाज के ब्राह्मणीकरण के खिलाफ मजबूत स्वर उभरे.
यह पूरा इलाका भूमिज और संथाल आदिवासी बहुल है. इसके अलावा महतो और अन्य दलित पिछड़ी जातियां. किसी जमान में यह पूरा क्षेत्र खौफनाक जंगलों से आच्छादित था. इसकी प्रकृति को देखते हुए 1805 में इस जिले की स्थापना हुई और ब्रिटिश हुक्मरानों ने इसे जंगलमहल का नाम दिया. यह इलाका आदिवासीबहुल है, लेकिन इसे पांचवी अनुसूचि में न रख, दावे को कमजोर करने के लिए बंगाल का हिस्सा बने रहने दिया गया. भीषण शोषण और उत्पीड़न की वजह से साठ के दशक में यहां नक्सलबाड़ी आंदोलन शुरु हुआ और जंगल संथाल उसके नेता बने. लेकिन बाद में आदिवासी प्रतिरोध के रूप में पैदा हुए नक्सलबाड़ी मूवमेंट पर भी कब्जा गैर आदिवासियों का हो गया और जंगल संथाल के बाद कोई शीर्ष नेता नक्सलबाड़ी मूवमेंट में आदिवासी नहीं हुआ.
माओवादियों का वाम मोर्चे की सरकार से, खासकर माकपा से लगातार विरोध रहा. नक्सल मूवमेंट को कुचलने में वाम मोर्चे की सरकार ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी, प्रतिहिंसा में जंगलमहल क्षेत्र में 2009-11 के बीच 500 से अधिक लोगों की हत्या हुई, जिसमें बड़ी संख्या में सीपीएम के लोग शामिल थे. आज नक्सली हिंसा में मारे गये लोगों की कम से कम 300 विधवायें सरकारी मुआवजे के लिए दफ्तर-दफ्तर भटक रही हैं. कहा जाता है कि माओवादियों के साथ ममता की सांठगांठ थी, लेकिन सत्ता में आने के बाद तृणमूल की सरकार के ही दौर में माओवादियों के शीर्ष नेता किसन जी एक एनकाउंटर में मारे गये. उसके बाद से इलाके में भारी पुलिस बंदोबस्त है. और माओवादी हिंसा काबू में बतायी जा रही है.
लेकिन हिंसा-प्रतिहिंसा के इस खूनी खेल में सबसे ज्यादा आदिवासी पिस रहे हैं. पूरा इलाका आज भी मध्ययुग में जी रहा है. पानी, बिजली, सड़क- सबका अभाव है. आदिवासियों की अपनी भाषा मिटने के कगार पर पहुंच गयी है. लेकिन पढ़े लिखे कुछ आदिवासी युवाओं के प्रयास से आदिवासी समाज में नई राजनीतिक चेतना जन्म ले रही है. वह यह कि किसी बहिरागत पार्टी के पीछेे नहीं जायेंगे. उनकी अपनी पार्टी होगी. पिछले चुनावों में कुछ लोग लड़े भी, वे जीत नहीं पाये. अगले विधानसभा में वे अपने दम पर चुनाव लड़ने की योजना पर काम कर रहे हैं.
राजनीतिक चेतना से ज्यादा महत्वपूर्ण है सामाजिक, सांस्कृतिक और भाषाई क्षेत्र में आई चेतना. ब्राह्मणवाद का मुखर विरोध. भूमिज समुदाय हो या संथाल- दोनों में ब्राह्मणों का प्रवेश विवाह आदि कार्यों में होने लगा था. अब उस दिशा में विरोध भाव सामने आ रहे हैं. नये संकल्प के साथ आदिवासी चेतना प्रकट हो रही है. एक अच्छी बात यह हुई है कि आपस में लड़ने वाले भूमिज और संथालों के बीच की दूरी घट रही है. वे इस बात को समझ रहे हैं कि उनकी आपसी फूट से सिर्फ बाहरियों को फायदा होता है.
झामुमो के लिए यह एक अवसर है कि वह इस बदलाव का फायदा उठाये और वृहद झारखंड के सपने को साकार करने की दिशा में आगे बढ़े.