जैसे-जैसे आदिवासी हिंदुओं के स्कूल में शिक्षित होने लगे और उनके तथाकथित संस्कार का पाठ पढ़ने लगे, उन्होंने अपने घर की स्त्रियों को कंट्रोल करना शुरू कर दिया. जिस प्रकार हिंदू- मुस्लिम एक -दूसरे की स्त्रियों को एक -दूसरे से बचाने के लिए नियंत्रित कर रहे थे, हमने भी यही प्रक्रिया अपनाते हुए आदिवासी समाज के इज्जत का ठीकरा आदिवासी औरतों पर लाद दिया. हमने आदिवासी समाज के तथाकथित शुद्धता को बचाए रखने के लिए लड़कियों को दंडित करना शुरू कर दिया.
यह माना और देखा गया है कि आदिम आदिवासी समाज में बलात्कार जैसा कोई शब्द ही नहीं था, क्योंकि बलात्कार का मनोविज्ञान यह कहता है कि यह केवल सेक्स कुंठा, सत्ता, शक्ति और लिंग श्रेष्ठता की मानसिकता का नतीजा है. अर्थात, जिस समाज में व्यक्ति की शारीरिक जरूरतों को विभिन्न वर्जनाओं और अवैज्ञानिक नियमों द्वारा कंट्रोल करने की कोशिश की गई है, जहां पितृसत्ता का बोलबाला हो, स्त्री को दोयम दर्जे का माना गया हो, वहां स्त्रियों के साथ अपराध होने की संभावना बढ़ जाती है. इसके विपरीत आदिवासी समाज में स्त्री-पुरुष संबंधों को बहुत ही सहजता से लिया गया है. दो व्यस्क स्त्री- पुरुष के बीच आपसी सहमति से बनाए गए यौन संबंधों को आदिवासी समाज स्वाभाविक और सहज रूप से लेता है एवं यौन-शुचिता जैसी किसी अवधारणा पर विश्वास नहीं करता है. स्त्री के शरीर को इज्जत से नहीं जोड़ा जाता है.
क्योंकि आदिवासी समाज सामूहिकता और सामुदायिकता पर आधारित था, जहां व्यक्तिगत संपत्ति जैसा कुछ नहीं था. इस कारण से स्त्री-पुरुष के बीच लगभग शक्ति का संतुलन बना हुआ था, जिससे स्त्री के कमजोर होने की संभावना नगण्य थी. वह स्वतंत्र थी, अपना जीवन साथी चुनने के लिए और जरूरत पड़ने पर उसे छोड़ने के लिए भी.
अब सवाल उठता है कि आदिवासी समाज को क्या हो गया है जो आए दिन गैंगरेप की घटनाएं पेपर में पढ़ने को मिल जाती हैं?
सबसे पहले तो हमारी सामूहिक संपत्ति की परंपरा खत्म हुई. अंग्रेजों ने सबको पट्टे बांट कर जमीन पर पुरुषों का हक स्थापित किया, जहां स्त्रियों के हाथ कुछ नहीं लगा. स्त्रियों के दोयम होने की असली जड़ यही है. पुरुषों के नाम जमीन का हो जाने से उसमें श्रेष्ठता बोध आ गया. जिस प्रकार उसने जमीन को अपनी संपत्ति समझ लिया और उसका मालिक बन गया, वैसे ही उन्होंने स्त्रियों को भी अपनी संपत्ति समझना शुरू कर दिया. और जब हम किसी को अपनी संपत्ति समझते हैं तो उसका दोहन ही करते हैं.
दूसरा कारण है हमारा बाहरी समुदाय के संपर्क में आना. जहां हमने देखा कि स्त्रियों को घर में रखना, बाहर न घूमने देना, स्त्री योनि की शुचिता की रखवाली करना, पर-पुरुष गमन के कारण गंभीर दंड देना, पर्दे में रखना आदि को आदर्श स्थिति माना जाने लगा या ‘सभ्य’ होना माना जाने लगा.
जैसे-जैसे आदिवासी हिंदुओं के स्कूल में शिक्षित होने लगे और उनके तथाकथित संस्कार का पाठ पढ़ने लगे, उन्होंने अपने घर की स्त्रियों को कंट्रोल करना शुरू कर दिया. जिस प्रकार हिंदू- मुस्लिम एक -दूसरे की स्त्रियों को एक -दूसरे से बचाने के लिए नियंत्रित कर रहे थे, हमने भी यही प्रक्रिया अपनाते हुए आदिवासी समाज के इज्जत का ठीकरा आदिवासी औरतों पर लाद दिया. हमने आदिवासी समाज के तथाकथित शुद्धता को बचाए रखने के लिए लड़कियों को दंडित करना शुरू कर दिया.
हाल में घटित बोकारो- प्रकरण इसका ताजा उदाहरण है, जिसमें गैर आदिवासी के साथ शादी करने के कारण एक आदिवासी लड़की का श्राद्ध कर दिया गया. सितंबर 2017 में दुमका के दग्घी में गैंगरेप, एसपी महिला हॉस्टल कॉलेज में चोरी का इल्जाम लगाकर लड़की को निर्वस्त्र करने का मामला हो या लॉकडाउन के दौरान गोपीकंदर में 10 लड़कों द्वारा गैंग रेप की घटना, इस बात का प्रमाण है कि हमारा समाज किस कदर लड़कियों के प्रति घृणित होता जा रहा है.
इस तरह की घटनाएं इससे पहले भी हो रही थीं, लेकिन निर्भया कांड के बाद पूरे देश में जिस तरह से फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाने के लिए सरकार पर दबाव बनाया गया, उसका थोड़ा फायदा तो यह हुआ कि अब ऐसे मामले खुलकर सामने आने लगे हैं. इसके लिए सोशल मीडिया की भूमिका बहुत बढ़ जाती है जिस कारण से एसपी महिला हॉस्टल में घटित घटना वायरल होकर पुलिस तक पहुंच पाई. जबकि इससे पहले भी इस तरह की घटनाएं हॉस्टल के दबंग लड़कों और लड़कियों द्वारा अंजाम दिया जा रहा था. पुलिस सब कुछ जानने के बाद भी आदिवासियों का आंतरिक मामला कहकर आंखें मूंदे रहती थी. दुमका का प्रसिद्ध जनजातीय हिजला मेला में हर साल अलग-अलग कारणों से लड़कियों की हत्या आम बात थी. आदिवासी हास्टलो में लड़कियों को सर मुढ़वाकर नंगा कर घुमाने की चर्चा सुनने को मिलती थी. यह सब कुछ आदिवासी अस्मिता की रक्षा के नाम पर होता था.
आदिवासी समाज स्त्री पुरुष के सहज, सुलभ साहचर्य को भूलकर हिंदुओं द्वारा प्रायोजित आर एस एस की कट्टरता से प्रभावित होने लगा, जहां स्त्रियों को कंट्रोल करने के लिए धर्म, परंपरा और संस्कार का पाठ पढ़ाया जाने लगा.
आगे स्थिति और बुरी हो सकती है, अगर कहीं से कोई आवाज नहीं उठी तो. सोशल मीडिया बहुत बड़ा माध्यम बन गया है स्त्रियों के खिलाफ जहर उगलने का. आदिवासी पुरुष धड़ल्ले से हिंदी में दिए जाने वाले स्त्री-सूचक गालियां दे रहे हैं. और समाज के अगुआ जो बहुतायत में पुरुष ही हैं, चुपचाप इस बात को नजरअंदाज कर रहे हैं.
जब भी किसी आदिवासी लड़की के साथ रेप होता है तो पूरा आदिवासी समाज कड़ी निंदा में जुट जाता है और अपराधी को ‘फांसी दो’ का हल्ला शुरू हो जाता है. सवाल है कि क्या रेपिस्ट को फांसी दे देने से अपराध खत्म हो जाएगा?
समाजशास्त्री सदरलैंड से पहले लोग यह मानते थे कि अपराधी जन्मजात होते हैं. इस आधार पर अपराध की सजा अपराधी को ही मिलती थी. कुछ ‘नीच’ मानी जाने वाले जाति को तो अपराधी जाति ही घोषित कर दिया जाता था. लेकिन सदरलैंड ने पूरी दुनिया को यह बताया कि ‘अपराधी जन्मजात नहीं होते बल्कि किसी व्यक्ति हो अपराधी बनाने में समाज की सारी व्यवस्थाएं जिम्मेदार होती है’. जब हम अपराधी को फांसी दिलाने की बात करते हैं तो समाज अपनी नकारात्मक भूमिका की जिम्मेदारी से बच कर चालाकी से निकल जाता है. जबकि समाज में स्थापित परंपरा, प्रथा,रिवाज, संस्कृति और सभ्यता, यह सब मिलकर स्त्रियों के लिए पूरा माहौल बनाते हैं, स्त्रियों के खिलाफ अपराध को बढ़ावा देने में. समाज और परिवार में स्त्रियों को दोयम दर्जा दिया गया है. उसे पिता, पति और पुत्र के अधीन रखा गया है.वहां उसके साथ अपराध होना स्वाभाविक है.
जब तक हम समाज की प्रथाओं पर सवाल नहीं उठाएंगे तब तक फांसी फांसी का शोर समस्या की जड़ तक पहुंचने नहीं देगा. पूरे विश्व के 192 देशों में से 142 देशों ने फांसी की सजा को बैन कर दिया है जिसका परिणाम यह है कि वहां अपराध की दर कम हुई है.
भारत में हम हाल के दिनों में देख रहे हैं कि रेप के बाद जघन्य हत्या के मामले में बेतहाशा वृद्धि हुई है. इसका कारण फांसी का डर ही है.औसतन भारत में हर 15 मिनट में एक रेप केस दर्ज होता है. अधिकतर तो दर्ज ही नही हो पाते. किसी तरह दर्ज हों भी जाये तो ये केस सालों चलते हैं जो पीड़िता के लिए मेंटल ट्रामा से कम नहीं होता है. उपर से पुलिस का व्यवहार जेंडर सेंसिटिविटी के मामले में जीरो होता है. अर्थात पुलिस खुद ही पीड़िता को दोषी ठहराने पर तुली रहती है. हैदराबाद रेप केस में अगर पुलिस ने घरवालों की शिकायत के तुरंत बाद ही एक्शन लिया होता तो आज वो लड़की जीवित होती. पुलिस का ये रवैया हर जगह यही होता है. पुलिस और कोर्ट की टाल-मटोल नीति और उपर से समाज का स्त्रियों के साथ दोहरा व्यवहार जब तक इस मुद्दे पर काम नहीं किया जायेगा बलात्कार की घटनाओं को नियंत्रित करना आसान नहीं होगा.