भारतीय समाज में स्त्री को हमेशा से निःसहाय और अबला के रूप में चित्रित किया जाता रहा है. लेकिन देखा यह गया है कि जन्म से लेकर मृत्युपर्यंत वह अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ते हुए पुरुषों के समकक्ष खुद को खड़ा किया है. उसने बार-बार सामाजिक गैरबराबरी, दुराचार के साथ-साथ अपनों की बेरुखि को भी झेला है और अपने आंसुओं को खुद ही पोंछा है और जिंदा रही है. ऐसी कई महिलाओं की कहानियां प्रकाश में आयी, लेकिन कुछ ऐसी भी हैं जो अनकही रह गयीं. यहां इसलिए कह रही हूं ताकि हम जाने की ‘देवी’ बनने के लिए भारतीय महिलाओं को कितनी भारी कीमत चुकानी पड़ी है.
ऐसी ही दो महिलाओं को मैं जानती हूं. दक्षिण भारत के गोदावरी के किनारे सुदूर गांव में ब्राह्मण खेतिहर परिवार में उनका जन्म हुआ. सुंदर, सुशील ये दोनों बहनें ऐसे समय में पैदा हुई जब परिवार में बेटी का पैदा होना कोई महत्वपूर्ण घटना नहीं होती थी. लेकिन बेटियां तो पिता की इज्जत होती हैं. बाल्य अवस्था में उनकी शादी करना ही उनके पिता का प्रमुख कर्तव्य था. यह इसलिए कि हिंदू परंपरा के अनुसार रजस्वला होने के पहले बेटी का विवाह कर पिता पुण्य का भागी बनता था और अपनी जाति में अपना स्थान सुरक्षित रखता था. यह बात 1953 के पहले की है जब हिंदू कोड बिल नहीं बना था. हिंदू कोड बिल बनने के बाद लड़कियों की शादी की उम्र 18 वर्ष तय की गयी. अब बाल विवाह करना बाध्यता नहीं रही, लेकिन इसका मतलब यह नहीं था कि परिवार में बेटी का महत्व बढ़ गया हो या उसकी चाहत होने लगी हो.
खैर, ये दो बहनें अपने उम्र में दो तीन वर्ष का अंतर रखती थी. बड़ी बेटी के दस वर्ष की होते-होते पिता को उसकी शादी की चिंता हो गयी. आनन फानन में ऐसा व्यक्ति, जो बेटी की उम्र के चैगुना उम्र का था, से उसकी शादी कर दी गयी. उस व्यक्ति का एकमात्र गुण जो इस शादी का आधार बना, वह उसकी संपन्नता थी. शादी के बाद पति के घर वे दो वर्ष भी नहीं रही होंगी कि किसी बिमारी से पति की मृत्यु हो गयी. और इस तरह बड़ी बेटी पिता के घर वापस हो गयी. पति की संपत्ति का हिस्सा तो मिला, लेकिन उसकी रंगीन साड़ी उतर गयी और लंबे काले केश मुंड़ा दिये गये. बारह वर्ष की उम्र में ही उजली धोती पहले, मुड़ाये हुए सर को आंचल से ढके वह एक बाल बिधवा थी.
इनसे तीन वर्ष छोटी बहन की कहानी इससे बस थोड़ा सा ही अलग है. छोटी बहन बड़ी वाली से अधिक सुंदर थी. लंबी, गोरी और घुंघराले बालों के साथ. दस वर्ष की होते ही पिता ने उसके लिए एक वर खोज ही लिया. वह व्यक्ति भी लड़की की उम्र के चैगुना उम्र वाला दुहाजू संतानविहीन, लेकिन संपन्न व्यक्ति था. इसके साथ-साथ वह रोगग्रस्त भी था. शादी के दो-तीन वर्षों में ही पत्नी को अपनी संपत्ति की मालकिन बना कर उसने इस संसार से विदा ले ली. छोटी तो ससुराल का मुंह भी नहीं देख पायी. मैयके में ही रह गयी. उसकी भी रंगीन साड़ी उतर गयी. हां, इस बेटी के केश मुंड़ाते पिता और भाईयों का हृदय कांपा होगा, इसलिए उसके घुंघराले केश बच गये.
अब आप कह सकते हैं कि यह कहानी तो भारत के बहुतेरे परिवारांे की है. इसमें नयापन क्या है? नयापन तो यही होगा कि इन्हें देखने का हमारा दृष्टिकोण क्या है. महिला विधवा हो गयी तो क्या मथुरा वृंदावन जाकर भीख मांग कर भी जी लेगी वाला दृष्टिकोण शायद इन दो महिलाओं के जीवन से बदल सकता है. बिधवा का तरस्कृत जीवन जीते हुए इन दोनों को अपार दुःख हुआ होगा. जीने की लालसा होते हुए अपनी अनगिनत इच्छाओं को दबा कर ये जिंदा रहीं. जिंदा रहना उनकी मजबूरी नहीं थी. वे मर भी सकती थी और उनके मरने से किसी को बहुत दुःख भी नहीं होता. लेकिन इन दोनों बहनों ने एक दूसरे के आंसू पोंछे, एक साथ एक घर में रहते हुए पूरी दृढ़ता से उन्होंने जीवन को बिताया, क्योंकि उन्होंने महसूस किया था कि उनका जिंदा रहना औरत के अस्तित्व के लिए जरूरी है. वे निराश्रय या पराश्रय नहीं थीं. पति की दी हुई संपत्ति थी, जिससे वे दूसरों को भी खिला सकती थी. उनकी आंखों में निराशा नहीं, बलिक एक जिद दिखती थी कि समाज से और अपने से लड़ कर भी जिंदा रहना है.
लेकिन मेरी आंखों में तो यह याद कर आंसू आ जाते हैं कि पूरा जीवन उन दोनों औरतों ने उपेक्षित वस्तु की तरह एक घर में रूखा सूखा खा कर और भूमि पर चटाई बिछा सो कर बिता दिया. स्त्री की महानता की कितनी भारी कीमत उन्होंने चुकायी.