संसदीय राजनीति में झामुमो के प्रवेश के साथ सूरज मंडल का राजनीति में अविर्भाव हुआ और एक लंबे अरसे तक वे झामुमो के सबसे प्रभावशाली नेता बने रहे. कुछ लोगों का मानना है कि झामुमो के बहुत सारे अंदरुनी कलह के लिए वे ही ज्म्मिेदार थे जिसका असर अलग झारखंड राज्य के आंदोलन पर भी पड़ा, वरना झारखंड राज्य पहले बन गया होता. अब यह तो उसी तरह की बात हुई कि यदि क्लियोपेट्रा की नाक थोड़ी छोटी होती तो दुनिया का नक्शा कुछ और होता क्योंकि तब वह इतनी सुंदर नहीं होती और उसके लिए लगातार युद्ध नहीं होते जिसने दुनिया के नक्शे को बदल दिया था.
लेकिन यह बात बहुत हद तक सही है कि सूरज मंडल एक धूमकेतु की तरह झारखंड की राजनीति में उदित हुए और फिर खामोशी से विदा भी हो गये. और उन्होंने अपनी भूमिका बखूबी निभाई जिसके लिए कांग्रेस नेता ज्ञानरंजन ने उन्हें झामुमो को तोहफे के रूप में दिया था. वे जब तक पार्टी में रहे, झामुमो में भारी अंतरविरोध के कारण बने रहे. सूरज सिंह बेसरा, साईमन मरांडी, शैलेंद्र महतो और बिनोद बिहारी महतो जैसे शक्तिशाली झामुमो नेता तक उनकी वजह से क्षुब्ध रहते थे. दरअसल, झामुमो के भीतर गुरुजी तो सर्वमान्य थे और उनके नेतृत्व को कोई चुनौती नहीं देता था, लेकिन नंबर दो की स्थिति सूरज मंडल की हो, यह किसी को मान्य नहीं था. लेकिन चूंकि शिबू सोरेन की कृपादृष्टि उनपर बनी रही बहुत दिनों तक, इसलिए वे अपनी मनमानी करते रहे.
दरअसल, आदिवासी नेताओं में वह खूबी या वे अतिरिक्त गुण नहीं रहते जो आज की राजनीति के लिए जरूरी है. राजनीतिक दांवपेंच, कूटनीति, पार्टी चलाने के लिए धन की उगाही, ब्यूरोक्रैशी को हड़काने की कला, यह वे नहीं जानते. अन्य राजनीतिक दलों के नेताओं से कम्यूनीकेट करना उनके वश की बात नहीं. धीरे-धीरे वे इन सब कलाओं में पारंगत हो रहे हैं, लेकिन जब गुरुजी ने संसदीय राजनीति में कदम रखा तो वे इन अतिरिक्त गुणों से मुक्त थे. और उनके अधिकतर सहयोगी आदिवासी नेता भी. इसलिए वे पूरी तरह सूरज मंडल पर निर्भर थे.
सूरज मंडल ही पार्टी के लिए फंड जुटाते थे, लालू से कूटनीतिक संबंध बनाना या फिर केंद्र में सत्तारूढ राव सरकार से कम्यूनिकेट करना आदि का काम उनकी बदौलत ही संभव हुआ. राष्ट्रीय नेताओं को भी गुरुजी से बात करने या सादेबाजी करने मे दुविधा और सूरज मंडल के साथ सुविधा होती थी. क्योंकि सूरज मंडल ‘दिकू राजनीति’ के दांवपेंच बेहतर समझते थे.
मैंने गुरुजी से इस संबंध में वर्षों पूर्व बोकारो के उनके आवास पर बात चीत की थी. उस समय योगेश्वर महतो बाटुल, जो अब भाजपा में हैं, उनके करीबी हुआ करते थे और उनके एक एक अन्य सचिव थे पांडे जी. सूरज मंडल एक बार बोकारो स्टील के गेस्ट हाउस में आये और उनका स्वागत सत्कार ठीक से नहीं हुआ तो खूब हुंगामा किया. अब कोल सेक्टर में तो सूरज मंडल की चलती ही थी, स्टील सेक्टर में भी उनके इस हस्तक्षेप से सभी परेशान थे. शिकायत गुरुजी से भी की गयी. गुरुजी ने हंस कर कहा- ‘बड़का नौटंकीबाज है.’
मैंने उनसे पूछा, सूरज मंडल को लेकर इतना असंतोष पार्टी में है, आप उन्हें इतना महत्व क्यों देते हैं? उनका जवाब मजेदार था - ‘ कोल इंडिया का अधिकारी मेरी बात सुनता ही नहीं, वह बोलता है तो हग देता है.’ तो यह थी सूरज मंडल की ताकत का राज. लेकिन पानी सर से जब उंचा हो गया तो उनका खिलाफ गुरुजी ने कार्रवाई की.
हुआ यह कि लालू यादव के मुख्यमंत्रित्व काल में बिहार विधानसभा में झामुमो विधायक दल के नेता सूरज मंडल को बनाया गया और वे छाया मुख्यमंत्री बन झारखंड में घूमा करते थे. यह बात झामुमो के अन्य नेताओं को सहज नहीं लगा. वे विधायक दल के नेता तो थे ही, अगले लोकसभा चुनाव में संसदीय सीट से लड़ना भी चाहते थे और साथ ही अनुसूचित जाति व जनजाति समिति के अध्यक्ष भी. लालू को भी यह लगता था कि सूरज मंडल को साध कर वे झामुमो को साधे रहेंगे. लेकिन असली ताकत तो गुरुजी थे, यह वे नहीं समझ पाये. 91 के संसदीय चुनाव के पहले पटना में आयोजित झारखंड मुक्ति मोर्चा की कार्यकारिणी की बैठक में उन्हें विधायक दल के नेता पद से हटा दिया गया.
आशंका थी कि वे कुछ हंगामा न करें, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. हां, 91 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने मनमानी की. विपक्ष का राष्ट्रीय गठबंधन के तहत समझौते में धनबाद सीट कामरेड एके राय को दिया गया था, लेकिन उन्होंने वहां से झामुमो के टिकट पर अकलू राम महतो को खड़ा कर दिया परिणाम यह हुआ कि कामरेड एके राय चुनाव हार गये और उस सीट से भाजपा की रीता वर्मा चुनाव जीत गयी.
उस चुनाव के दौरान ही राजीव गांधी की हत्या हो गयी थी जिसका फायदा कांग्रेस को मिला और नरसिंह राव प्रधानमंत्री बने. उस चुनाव में पहली बार झामुमो के छह सांसद झारखंड में बने. इसकी क्रेडिट सूरज मंडल को दी जा सकती है. लेकिन नरसिंह राव के जमाने में ही राव रिश्वत कांड भी हुआ जिसमें झामुमो सांसदों पर राव सरकार के विश्वास मत का समर्थन करने के एवज में छह करोड़ का रिश्वत लेने का भी आरोप लगा. हां, साथ में झारखंड को ‘कौशिंल’ का दर्जा भी मिला.
आरोप तो यह भी लगता था कि गैर झारखंडी राजनीति की साजिशों की वजह से जब एक दो बार गुरुजी को जेल जाने की नौबत आयी तो कुछ लोग जमानत की प्रक्रिया को धीमी करवा देते थे ताकि गुरुजी जेल में रहे हैं और वे बाहर मनमानी कर सकें. यह सब बातें छुपती नहीं. सूरज मंडल गुरुजी का विश्वास खो देने के बाद धीरे-धीरे झामुमो से अलग कर दिये गये. शायद उनकी राजनीतिक भूमिका पूरी हो चुकी थी.