पिछले आलेख पर कुछ टिप्पणियां आयी हैं । मेरा आशय यह नहीं था कि भारत को चीन के डर से युद्ध अथवा कूटनीति में कायरता दिखानी चाहिए। मैं सिर्फ सावधान कर रहा हूँ और हकीकत से वाकिफ़ करा रहा हूँ ।

याद रहे कि हम यहाँ फुल स्केल, जल-थल-नभ से आक्रमण की बात तो कर रहे हैं, किंतु विलम्बित और लम्बे भूभाग पर दूर तक कब्जे की बात नहीं कर रहे, क्योंकि उन परिस्थितियों में आज का जमाना आक्रमणकारियों के पक्ष में नहीं रहा, और भारी सैन्य शक्ति के बावजूद अक्सर उन्हें ही घाटा सहना पड़ता है।

यहाँ हम सीमित समय के लिए, लेकिन पूरी सीमा पर - लद्दाख से उत्तर-पूर्व तक पंद्रह बीस दिनों के लिए संपूर्ण युद्ध की बात कर रहे हैं। जिसमें मुझे प्रतीत होता है कि चाहे हमारी स्थिति सन् बासठ के जितनी बुरी नहीं है, लेकिन फिर भी हमें बेवजह एक अपमानजनक पराजय झेलनी पड़ सकती है, लद्दाख और अरुणाचल में अपना कुछ भूभाग गंवाना पड़ सकता है, और देश का मनोबल और टूट सकता है।

युद्धनीति कहती है कि रक्षात्मक युद्धों के लिए बराबरी अथवा उन्नीस बीस का फर्क होना आदर्श है। अठारह बीस भी चलेगा। आक्रमण के लिए दोगुनी शक्ति आदर्श मानी गयी है। चेयरमैन माओ की संहिता के अनुसार तिगुनी। मुझे लगता है कि चीन की सैन्य शक्ति भारत के मुकाबले निश्चित रूप से दोगुनी बल्कि ढाई गुनी है। युद्धनीति भी कहती है कि दुश्मन की ताकत को हमेशा थोड़ा बढ़ा चढ़ा कर आंकना चाहिए ।

यहाँ सामरिक शक्ति के अलावे चार और बिंदुओं का खयाल रखना चाहिए।

एक तो यह कि चीन का रूस के साथ पुराने मसलों को सुलझा लेने के बाद, अपनी सीमा पर भारत के अलावा कोई खतरा नहीं। न मंगोलिया, न उत्तर कोरिया, न ही कोई मध्येशियाई देश। ताईवान से उसका पुराना राड़ा है और जापान से भी। लेकिन वे समंदर पार हैं और चीन की साम्राज्यवादी आकांक्षाओं के लिए बाधा बने हुए हैं । अमरीका के कवच में सुरक्षित वे देश भारत चीन विवाद के बीच चीन पर कोई सैन्य दबाव डालेंगे, यह संभव नहीं दिखता।

इसके विपरीत भारत की अधिकांश सैन्य शक्ति पाकिस्तान की स्थायी आक्रामकता और कश्मीर पर उसकी बदनीयती से निबटने में लगी रहती है। कम्युनिस्ट नेपाल चीन की शह पर एक नयी कठिनाई पैदा कर रहा है।

दूजे, चीन के विपरीत भारत में आंतरिक शत्रुओं का बाहुल्य है। देश में ही सरकार और सेना के मनोबल को तोड़ने वाले और हाय तोबा करने वाले अनेक लोग हैं। चीन में आंतरिक विक्षोभ की चुनौतियां हैं हांगकांग में और शिनचियांग में, लेकिन वे भारत चीन युद्ध की परिस्थिति में जान बूझ कर चीन के लिए कोई कठिनाई पैदा करना चाहेंगे या कर पाएंगे, इसकी संभावना नगण्य है।

तीजे, युद्ध सैन्य-बल के अलावे धन-बल से भी लड़े जाते हैं । चीन और भारत की आबादी बराबर है। हमारी जीडीपी 3 ट्रिलियन होगी ( तीन हजार अरब), चीन की 14 ट्रिलियन। हमारी प्रति व्यक्ति आय 2300 डालर के आस पास है, चीन की 10000। हमारा रक्षा बजट 60 अरब डॉलर होगा, चीन का 200 के आस पास। हमारा विदेशी मुद्रा भंडार 500 अरब डॉलर है, चीन का 3000 अरब डॉलर से ज्यादा ।

चौथे, चीन और पाकिस्तान की दांत काटी रोटी है। भारत से शत्रुता दोनों की दोस्ती की टेक, और पाकिस्तान के लिए अमेरिकी दबावों के खिलाफ एक ठौर भी। इस बात की संभावना से बिल्कुल इनकार नहीं किया जा सकता कि चीन से युद्ध की स्थिति में पाकिस्तान भी एक मोर्चा खोल दे।

इन परिस्थितियों को संज्ञान में लें, तो मैं चीन की सैन्य शक्ति को भारत से कम से कम ढाई गुना मानता हूँ। देखते हैं, कैसे।

भारथीय थल सेना और पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के भूसैन्य दोनों में दस से बारह लाख सैनिक हैं । भारत के पास 4000-4500 टैंक हैं, चीन के पास लगभग 8000। दोनों देशों के टैंक रूसी तकनीक पर आधारित, लेकिन अपने अपने देश में ही बने हैं।

भारत के तोपखाने में राॅकेटों को मिला कल 5000 नग होंगे, चीन के पास 10000। भारत की राॅकेट प्रणालियों में कुछ अधुनातन हैं, और चीन ने भी बहुत पहले ही अपने नाभिकीय अस्त्रों को ले जाने वाली आधुनिक राॅकेट प्रणालियों को विकसित कर लिया था। हमारे 300 राॅकेटों के मुकाबले चीन के पास कोई 1800 होंगे ।

भारत के पास कोई 800-900 युद्धक विमान हैं, जिनमें लगभग आधे मिग श्रेणी के हैं, जिनमें शायद 45-50 मिग 29 होंगे, और 85-90 मिग 27। बाकी 250 के करीब जो मिग 21 हैं, उनकी उपादेयता थोड़ी संदिग्ध है। 125-130 जगुआर होंगे, वे भी काफी पुराने हो चले हैं ।

चाक चौबंद विमानों में लगभग 125 मिग 29 हैं , सुखोई 30 जो लगभग 225 + होंगे, और 50 के आसपास मीराज । राॅफाएल अभी शायद बेड़े में शामिल नहीं हुआ । तो कुल लगभग चार सौ। यह एक ताकतवर वायुसेना कही जाएगी।

चीन के पास लगभग 2000-2100 युद्धक विमान हैं, अधिकतर विमान रूसी तकनीक पर आधारित लेकिन उसके अपने उत्पादन हैं और अनुमान किया जाता है कि वे अत्यंत सक्षम और आधुनिक हैं। स्मरण रहे कि बराॅक ओबामा के नवम्बर 2009 में हुए चीन दौरे के ठीक एक दिन पहले चीन ने अपने स्टेल्थ विमान के परीक्षण उड़ान की घोषणा कर पूरे विश्व को चौंका दिया था । अभी तक घोषित रूप से यह तकनीक सिर्फ अमरीकी बी-52 बमवर्षक विमानों में है।

नौसेना की बात करें तो भारत के पास दो विमानवाहकों सहित 50-55 युद्धपोत और 15 पनडुब्बियां हैं । चीन के बेड़े में 135 युद्धपोत और 75 पनडुब्बियां। याद रहे, आज चीन का नौसैनिक बेड़ा खुले आम दक्षिण चीन सागर और जापान सागर के क्षेत्र में अमरीकी प्रभाव क्षेत्र को चुनौती देता हुआ फिलीपीनी और जापानी द्वीपों पर अपना दावा ठोक रहा है।

स्पष्ट कर दूँ कि मेरी जानकारी अद्यतन नहीं क्योंकि मैं न नियमित अखबार पढ़ता हूँ, न ही समाचार देखता हूँ । तो आंकड़ों में थोड़ा बहुत उलट फेर संभव है, पर मोटे तौर पर स्थिति वही होगी, जो मेरा अनुमान है। चीन की शक्ति ज्यादा ही हो तो कोई अचरज नहीं क्योंकि वह दुनियां को भ्रम में रखने के लिए सही सही आंकड़े बाहर नहीं आने देता।

एक सैन्य शक्ति के रूप में आज भी संयुक्त राज्य अमरीका अपनी विराट और अधुनातन वायु सेना और ताकतवर जहाजी बेडे के कारण एकमात्र महाशक्ति है। लेकिन आज उसको चुनौती देने की स्थिति में कोई है, तो वह चीन ही है।

हमारा उससे मुकाबला, सैन्य शक्ति की तुला पर अभी भी मिडलवेट और हेवीवेट का ही है, भले ही आज परिस्थितियां सन् बासठ जैसी नहीं हों और चीन को भी भारत के साथ मुकाबले में नाकों चने चबाने पड़ सकते हैं । लेकिन युद्ध से हमें कोई विशेष फायदा नहीं होने वाला है, यही मेरा आशय था। संभव है नुकसान ही हो। जान-ओ-माल का नुक्सान और आर्थिक कीमत के जो पहलू हैं, वे तो खैर हैं ही।

कुछ मित्रों ने सामान्य चीनी सैनिकों को आम भारतीय सैनिक के मुकाबले कमजोर बताया है ! यह इतना बड़ा भ्रम है जिसका जवाब नहीं । कद काठी को मजबूती का पैमाना मानने वाले लोगों को एक बार भारतीय सेना के दुर्दम्य गुरखाओं की ओर एक नजर फेरनी चाहिए, या फिर 1870 और 1945 के बीच जापानियों की कीर्ति पर।

फिर, सेनाओं की सफलता प्रशिक्षण पर निर्भर करती है। ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथों पराजय के बाद देसी रजवाड़ों ने यह सबक सीखा था, और मराठों से लेकर टीपू सुल्तान और महाराजा रणजीत सिंह ने अपनी सेनाओं का प्रशिक्षण यूरोपीय हाथों में सौंपा था। ऑटोमन सुल्तानों और मिस्र के मुहम्मद अली पाशा ने भी।

भारतीय सेनाओं का प्रशिक्षण अभी भी युरोप के उम्दा ढर्रे पर है। लेकिन चीनी सैनिकों को कम प्रशिक्षित या कमजोर मानना मेरे विचार में एक भूल होगी। चीनी सेनाओं की कुछ टुकड़ियों को मैने एकाध बार महत्वपूर्ण संस्थानों की सुरक्षा के लिए अथवा समारोहों में तैनात देखा है। उनकी स्थिरता देखते ही बनती है। उपर से मंगोलों की चींटियों की तरह सोचने और आचरण करने का जातिगत स्वभाव ।

कुछ मित्रों ने वियतनाम का उदाहरण दिया है, जहां से चीन को आखिरकार बिना कुछ हासिल किए लौटना पड़ा था। याद रहे कि इस युद्ध में वियतनाम ने चीन के मुकाबले अपने चार गुना ज्यादा सैनिक खोए थे, और यह बात सन् अठहत्तर की है जब कि चीन की जीडीपी शायद पांच सौ अरब डॉलर भी नहीं थी। उसने सन् 79 -80 में ही उदारीकरण के साथ विकास के पथ पर पांव धरे थे।

तो भारत को क्या करना चाहिए ? मेरा मानना है कि सावधानी से तनी हुई रस्सी पर चलना चाहिए । युद्ध कूटनीति का ही विस्तार है, कूटनीति युद्ध का ही एक रूप। सन् 1400 से 1945 के बीच युरोप में लगातार युद्ध हुए, और लगातार कूटनीतिक समझौते भी ताकि युद्ध टाले जा सकें, और बिना युद्धों के भी दुश्मन को नाथ कर अपना फायदा उठाया जा सके।

हम एक ऐसे शत्रु से जूझ रहे हैं कि चुप्पी और धोखाधड़ी जिसके सबसे बड़े हथियार हैं । जो हद दर्जे तक क्रूर और सनकी है। कूटनीतिक बिसात पर हमें आक्रामक मुद्रा अपनाते हुए भी किसी भी अतिरेक से बचना होगा।

अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में बहुत दबाव बनाने की स्थिति में हम नहीं हैं । जापान और दक्षिण कोरिया की किसी भी सुगबुगाहट की हवा अकेले चीन का पाला हुआ गुंडा उत्तर कोरिया ही निकाल देगा। ऐसा हुआ तो अमेरिका की मुख्य चिंताएं उस ओर चली जाएंगी। वैसे भी अमेरिका आज कल दूसरों के लिए तलवार उठाने में हिचकता है। न उसमें उतनी उर्जा बची है, न इच्छा। हम सीरिया में इसकी बानगी देख ही चुके हैं । रूस भी अभी हमारे फटे में टांग नहीं डालेगा।

फिर भी अमेरिका और रूस मिलकर चीन पर यथेष्ट दबाव बना सकते हैं कि भारत-चीन राड़ा गंभीर रूप न इख्तियार कर ले। पिछले दिनों पाकिस्तान से तनातनी के समय हमने मध्यस्थता के अमरीकी प्रस्ताव को बड़े ही रूखे ढंग से ठुकरा कर अपनी नयी हैसियत का इजहार किया था। लेकिन चीन से संधर्ष की स्थिति में संभव है कि हमें परोक्ष रूप से ही सही, अमेरिका और रूस की मध्यस्थता स्वीकार करनी पड़े ।

देश में एकता और आचरण में संयम जरूरी है। युद्ध की पूरी तैयारी रखनी चाहिए और हमले का या दबावों का मुंह तोड़ जवाब देना चाहिए । लेकिन मामले का हल कूटनीति से खोजना आवश्यक है। वर्तमान संकट की एक चाभी राजनाथ जी के पास है, दूसरी जयशंकर जी के पास । दोनों को आजमाईश करनी है।

व्यर्थ ताल ठोकने से बचना चाहिए। युद्ध न हो, यही श्रेयस्कर स्थिति है।