दूर तक फैले हरे भरे धान के खेत, धरती से मिलता आकाश. सामने चरती कुछ बकरियां. और उन्हें निहारती दो आदिवासी लड़कियां. लगता है सब कुछ मिल कर एकरूप हो गया है. वे दोनों कुछ बातें भी कर रही होगी. लेकिन वह सब नीरव एकांत में घुल जाता है. इस तरह के दृश्य अब दुर्लभ हैं, वह भी रांची जैसे महानगर में. लेकिन यकीन मानिये कि यह चित्र यहीं का है. दो तीन दिन पहले का. मैं इससे रोज रूबरू होता हूं.
वे दोनों लड़कियां उरांव समुदाय की हैं. उनके माता पिता अपनी जमीन खो कर दिहाड़ी मजदूर बन चुके हैं. फिर भी उन्हें पढ़ा रहे हैं. एक बीए आनर्स राजनीति शास्त्र में कर रही है. दूसरी ने हाल में मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास किया है. लेकिन दोनों सुबह शाम बकरी चराती हैं. भाई यह काम करता है. उसे किसी माल में काम मिला है. इसलिए वह अब यह नहीं कर पाता. दोनों बहनों ने बकरी चराने का काम संभाल लिया है. यह उनका शौक नहीं, जीवन का आधार है.
इस तरह की अनगिनत आदिवासी लड़के और लड़कियां बेहद कठिन परिस्थितियों में पढ़ कर जीवन में कुछ बनने के सपने देखती हैं. आप किसी भी आदिवासी इलाके—ग्रामीण क्षेत्र में घूम आईये. इस तरह के पढ़े लिखे युवक युवतियां आपको मिल जायेंगी. क्रशर उद्योग में काम करते, किसी भवन निर्माण के कार्यस्थल पर बोझा ढ़ोते. किसी के घर में सेविका के रूप में काम करते. वे कभी भी अपनी स्थिति से असंतोष व्यक्त नहीं करते.
लेकिन यह सवाल तो अनुत्तरित रह जाता है कि उन्हें नौकरी या रोजगार क्यों नहीं मिलता? वह इसलिए नहीं मिलता कि उच्च स्तर पर कड़ी प्रतियोगिता से होने वाली परीक्षाओं में वे पिछड़ जाती हैं और सामान्य कोटि की जो सरकारी नौकरियां हैं, उन्हें भी वे हड़प लेते हैं जो चतुर हैं, जो नौकरी प्रापत करने के लिए पैसे दे सकते हैं, जिनका राजनीतिक लोगों से संपर्क है. जो संगठित हो कर लड़ सकते हैं. हल्ला कर सकते हैं.
सिपाही, आंगनबाड़ी, प्रखंड स्तर पर काम करने वाली सेविकाएं, पारा शिक्षक आदि आदि अनुबंध पर काम करने वाले लोगों में भी अधिकांश कौन हैं? झारखंड बनने के बाद पिछले बीस वर्षों में से अधिकतर समय भाजपा का शासन रहा है. आरोप यह है कि इस दौरान अनुबंध पर बहाल होने वालों में भी अधिकतर बहिरागत ही हैं. उन्हें भी जीने का अधिकार है.
लेकिन हक उनका भी है जो इस मनोरम चित्र का हिस्सा हैं. वे मुखर नहीं, इसलिए उनका अधिकार कम नहीं हो जाता. इसलिए पहले स्थानीयता की नीति तय होनी चाहिए, इसके बाद ही नियमित बहाली होनी चाहिए. कमसे कम तृतिये व चतुर्थ श्रेणी के पदों पर.