बिहार विधानसभा चुनाव आसन्न है. मगर चुनाव आयोग चुनाव की घोषणा को तब तक के लिए टाल रहा है, जब तक प्रधानमंत्री ‘बिहार के हित’ में सारी जरूरी घोषणाएँ, उद्घाटन और शिलान्यास आदि नहीं कर लेते. जब भी हो, विचारणीय यह है कि हर बार चुनाव को लेकर जो धारणाएं बनती हैं, उस लिहाज से यह चुनाव कैसा होगा? प्रत्येक चुनाव के अपने कुछ मुद्दे होते हैं. जन सरोकार से जुड़े और आम लोगों के मन में एक उम्मीद बनती है. क्या इस चुनाव से किसी सकारात्मक बदलाव की अपेक्षा है?
हम 30 साल पूर्व से शुरू करते हैं. तब, वर्ष 1990 में लालू प्रसाद के साथ नीतीश कुमार भी थे. भ्रष्टाचार मुक्त शासन, सामाजिक न्याय और धार्मिक सद्भाव जैसे मुद्दे प्रमुखता के साथ उभरे थे. कहा जा सकता है कि सामाजिक न्याय ने उसी दौरान अपनी हैसियत बनायी. और मनना होगा कि लालू प्रसाद ने इसे न सिर्फ ताकत दी, कमजोर/कथित पिछड़ी जातियों को राजनैतिक महत्वाकांक्षा भी दी. यह सही है कि जातियां बनी रहीं, मगर उस दौर में दबी जातियों की मजबूत हुई राजनैतिक हैसियत से उनकी सामाजिक हैसियत में भी बिना शक इजाफा हुआ.
इसी तरह बिहार में धार्मिक उन्माद को भी एक हद तक रोका जा सका. तो उस चुनाव में कुछ सपने भी थे. उन्होंने एक हद तक आकार भी लिया. बाद के चुनावों ने बेशक उन सपनों को कुंद ही किया. सामाजिक न्याय ‘विकास’ के खिलाफ चल पड़ा. और फिर जातिवाद की राजनीति और उससे आगे बढ़ कर वंशवादी राजनीति ही तरक्की पर रही. एक समय सामाजिक न्याय और गैर संप्रदायवाद के रथ के सारथी जातिवाद और परिवारवाद के रथी बन गये. एक हद तक कुव्यवस्था और अराजकता का आलम भी रहा.
ऐसे में लालू प्रसाद से अलग हो चुके नीतीश कुमार उनके विकल्प बन गये. साथी बनी भाजपा. सपना और मुद्दा बना लालू/राबड़ी राज, यानी ‘जंगल राज’ का खात्मा. जाहिर है, यह बांझ सपना बिना किसी उम्मीद के था. यह कितने दिनों तक चलता. तो नीतीश कुमार के दूसरे कार्यकाल में ‘विकास’ मुद्दा बना. बड़ी बड़ी बातें की गयीं. पर हर बार चुनाव आते ही ‘जंगल राज’ की याद भी दिलाई जाने लगती है. यानी बहुप्रचारित ‘सुशासन’ में हुए विकास के नाम पर वोट मिलने का पूरा भरोसा नहीं रहता. इस बार भी नहीं है.
फिलहाल याद करें कि पिछला चुनाव नीतीश कुमार ने लालू प्रसाद के साथ मिल कर लड़ा था. तब प्रकट मुद्दा भाजपा को सत्ता से बाहर रखना था. वैसे ‘बिहारी अस्मिता’ के भावनात्मक सवाल को भी उठाया गया था. हालाँकि मूल कारण यह था कि ’14 का संसदीय चुनाव अकेले लड़ कर नीतीश कुमार पराजित हो चुके थे, साथ में राजद भी. सो दोनों साथ हो गये. लेकिन इस तरह की वक्ती राजनीति में जो होता है, वही हुआ. कुछ महीनों बाद ही, राजद और जदयू में अलगाव हो गया. भाजपा के समर्थन से सरकार बच गयी और चलती रही. ‘जनादेश’ की व्याख्या अपने अपने हिसाब से होती रही.
इस तरह आज फिर नीतीश कुमार भाजपा के साथ हैं. पुनः जोर-जोर से राजद के 15 साल के शासन को जंगल राज बता रहे हैं, जिनके साथ 5 साल पहले उन्होंने चुनाव लड़ा था.
रही बात विकास की, तो किसी भी सरकार के लिए 15 वर्ष कम नहीं होते. कोरोना काल में बिहार का ‘विकास’ और ‘सुशासन’ खूब दिखा. दूर-दूर से जैसे तैसे लौटते बिहारी मजदूर और उनकी दुर्दशा किसी से छिपी नहीं रही. रोजगार के लिए बाहर जाने में हर्ज नहीं. पर पेट की भूख मिटाने के लिए इतनी बड़ी संख्या में पलायन ने विकास के दावे की धज्जियां उड़ा दीं. सच यह है कि लॉकडाऊन के दौरान वापस आये श्रमिक काम के अभाव में फिर लौटने लगे हैं. यह बेरोजगारी विकास के दावे की खिल्ली ही तो उड़ा रही है. इस दौरान स्वास्थ्य सुविधाओं की भी भारी कमी दिखी.
बाढ़ में हर वर्ष होने वाली क्षति और लोगों के बेपनाह दुख तो हर वर्ष सामने आते रहे हैं. अभी भी दिख रहा है. तो ‘विकास’ कहां गया? कथित सुशासन के 15 वर्ष में से बीते छह साल के दौरान कुछ महीनों को छोड़ कर तो केंद्र का भी साथ पूरा मिला, फिर कमी कहाँ रह गयी? तो हम समझ सकते हैं कि ‘विकास’ का नारा कितना बड़ा झूठ है. और बिहार को जाननेवाले बताते हैं कि सड़क, पुल, स्कूल-अस्पताल आदि का निर्माण तो हुआ, मगर उनमें हर जगह से भ्रष्टाचार की जो शिकायतें आयीं, उससे तो यही लगता है कि बिहार ने भी ‘भ्रष्टाचार के लिए विकास’ के मुहावरे को ही चरितार्थ किया है.
शुरुआती समय में शराबबंदी ने आशा जगाई थी. पंचायतों/स्थानीय निकायों में महिलाओं के आरक्षण के बाद नौकरियों में भी महिलाओं को आरक्षण मिला. उम्मीद बनी कि विभिन्न क्षेत्रों में चल रहे आंदोलनों के साथ भी सरकार सकारात्मक रुख अपनायेगी. जैसे वनाधिकार कानून को लागू करने के लिए, जंगल के भूमि पर वहां रह रहे, बसे हुए दलितों, आदिवासियों को अधिकार के लिए व पश्चिम चंपारण में चल रहे पट्टाधारी भूमिहीनों का आंदोलन. हजारों भूमिहीन भूमि का पट्टा पाकर भी उस पर कब्जा नहीं पा सके. नीतीश सरकार ने न सिर्फ उदासीनता बरती, बल्कि आंदोलनों की सक्रिय विरोधी भी साबित हुई. इसी तरह कृषि सुधारों की बात भी किसी सरकार के लिए महत्व नहीं रखती..
बहरहाल, इस वर्ष होने वाले चुनाव में कोई सपना, कोई मुद्दा नहीं है. लगता है, जिस कथित जंगल राज को नीतीश कुमार 15 वर्ष पहले ही मिटा चुके थे, उसकी बात करने और उसके आ जाने का डर दिखाने के अलावा उनके पास कोई और फार्मूला नहीं है! या फिर भाजपा के आजमाये नुस्खों के हिसाब से देशद्रोहियों की बात करें, मंदिर निर्माण का श्रेय लेने की बात करें और अंत में सुशांत सिंह की ख़ुदकुशी या हत्या का मुद्दा. और अब उनके पास कंगना राणावत भी तो है.
पर राजद के पास भी क्या मुद्दा है? क्या वह जनता की आकांक्षाओं का एक छोटा-सा प्रतिनिधित्व भी करता है? उसके पास जनता को दिखाने के लिए कोई सपना भी है? उसने तो सामाजिक न्याय को सिर्फ़ जातिवादी दलदल बना छोड़ा है. इसीलिए सारा दारोमदार जातीय गणित पर टिका है.
राष्ट्रीय मुद्दों की बात करें, यानी एनडीए के बड़े घटक भाजपा की, तो देश को बांटने और बेचने का एजेंडा है. जो विरोध करें, उन पर देशद्रोह का आरोप लगा कर जेल में लम्बे समय तक रखने का भी पक्का इरादा है. ऐसे काले कानूनों का जम कर ‘इस्तेमाल’ हो भी रहा है. मगर राजद के चरित्र और नेतृत्व ने भी बहुत निराश किया है. इस बार भी अनेक छोटे दल मैदान में हैं. ज्यादातर एनडीए और राजद की बी टीम जैसे.
तय है कि एनडीए और राजद के लिए जनता के मुद्दे महत्वहीन हैं. मुजफ्फरपुर महिला आवास में बच्चियों के यौन शोषण जैसा गंभीर मुद्दा भी पीछे छूट चुका है. पर ऐसे मामलों में असली अपराधियों को जल्द सजा दिलाने के साथ आगे के लिए ऐसी घटनाओं के प्रति सख्त रोक की नीति बनानी है. सामाजिक ताकतों को इन्हें जोरशोर से उठाना होगा. सामाजिक न्याय के वास्तविक लक्ष्य तय करने होंगे. सांप्रदायिकता के खिलाफ संघर्ष को आम लोगों तक ले जाना होगा. बिहारी अस्मिता के मायने समझाने होंगे. भ्रष्टाचार मुक्त विकास का झंडा बुलंद करना होगा. बाढ़ के साथ जीने के लिए मजबूत संसाधनों को तैयार करना है और जमीन के मामलों के समयबद्ध हल का दृढसंकल्प लेना है. और भी मुद्दे हो सकते हैं. ये सारे मुद्दे हमारे सामने हैं. लेकिन कौन है, जो इन मुद्दों को बहस और राजनीति के केंद्र में लाएगा? फिलहाल तो परिदृश्य निराशाजनक ही है. ‘न्यू भारत मिशन’ नामक एक नये दल का आगाज तो हुआ है, जिसमें जन संघर्षों के तपे हुए और ईमानदार लोग हैं, लेकिन क्या यह दल अपनी उपस्थिति दर्ज भी करा पायेगा?
चुनावों में सही दिशा के लिए सबों को मिल कर वर्तमान मुद्दों को उठाना होगा और उस पर सभी दलों को परखना होगा. हमेशा इसकी जरूरत रहती है. और इस बार तो यह और भी जरूरी है. क्योंकि वर्तमान ताकतें चुनाव को मुद्दों से अलग करने में सफल हो रही हैं. अभी का परिदृश्य यही है और खुद को जागरूक माननेवालों का दायित्व इस दुरभिसंधि को रोकना है.