जब हम अक्तूबर 2009 में शंघाई पहुंचे तो चीन में सर्दियां शुरु हो चुकीं थीं और आंतरिक राजनीतिक परिदृश्य भी शांत और ठंडा था। बीजिंग ओलंपिक की शानदार सफलता के बाद शंघाई एक्सपो के भव्य आयोजन की तैयारियां जोरों पर थी।
1982 में बनाए गए एक नियम के अनुसार चीन के राष्ट्रपति का कार्यकाल पांच-पांच साल की दो लगातार अवधियों के लिए सीमित कर दिया गया था (यह नियम शायद 2018 में निरस्त कर दिया गया है और शी जिनपिंग यदि चाहें, तो आजीवन राष्ट्रपति रह सकते हैं)। तदनुसार सन् 2002 में महासचिव / राष्ट्रपति बने हू जिन्ताओ का दस साल का कार्यकाल 2012 में खत्म होने वाला था।
जिन्ताओ के उत्तराधिकार का मामला लगभग तय हो चुका था। शी जिनपिंग सन् 2008 में ही गणराज्य के उपराष्ट्रपति चुन लिये गए थे और न सिर्फ पार्टी पोलितब्यूरो बल्कि पोलितब्यूरो की स्थायी समिति के भी सदस्य बन गए थे, जो चीनी राज्य तंत्र का सबसे ताकतवर अनुषंग है। सभी मान रहे थे कि वे ही चीन के भावी नियंता हैं।
लेकिन कम्युनिस्ट देशों में पूरी सत्ता तंत्र एक अबूझ पहेली, एक मकड़जाल से कम नहीं, और लोकतांत्रिक निर्वाचन लगभग एक खानापूरी, एक छद्म है। सब कुछ शीर्ष में बैठे समूहों की रस्साकशी से तय होता है और उस अभेद्य धुंध के पीछे कब क्या हो जाए, कुछ पता नहीं चलता।
सत्ता बंदूक की नली से निकलती है, जैसा कि यशस्वी चेयरमैन माओ फरमा गए। लेकिन चीन की सत्ता की बंदूक में कितनी नलियां हैं, यह समझ में नहीं आता। कभी पार्टी अध्यक्ष सर्वशक्तिमान हो जाते हैं , कभी पार्टी महासचिव। कभी राष्ट्रपति पद की कोई हैसियत नहीं रहती, कभी वह पद पार्टी महासचिव के लिए सुरक्षित हो जाता है ( सन् 82 से महासचिव ही राष्ट्रपति होते आए हैं)।
हर पांच साल में लगभग तीन हजार सदस्यों वाली संसद ( नेशनल पीपुल्स कांग्रेस) का परोक्ष चुनाव होता है, जो राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के अतिरिक्त एक प्रधानमंत्री और राज्य परिषद ( स्टेट काउंसिल) भी चुनती है, जिसके और जिसकी स्थायी समिति के पास राज्य के सभी कार्यकारी अधिकार होते हैं।
लेकिन सभी को मालूम है कि सत्ता की असली कुंजी पार्टी की पचीस सदस्यों वाली पोलितब्यूरो और सात से दस सदस्यों वाली उसकी स्थायी समिति के पास होती है। संसद या राज्य परिषद के पास इस सर्वशक्तिमान संस्था के निर्णयों पर ठप्पा लगाने और उन पर अमल करने के अलावा कोई उपाय नहीं। कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव ही पोलितब्यूरो के भी अध्यक्ष होते हैं, और राष्ट्रपति भी। वही पार्टी के केंद्रीय सचिवालय के अध्यक्ष भी होते हैं और वही राज्य और पार्टी, दोनों की केंद्रीय मिलिटरी कमीशन के प्रधान भी। पोलितब्यूरो को कम्युनिस्ट पार्टी की केंद्रीय समिति चुनती है।
वैसा तो सर्वशक्तिमान नेतागण अपने उत्तराधिकारी भी पहले से तय करके रखते हैं, लेकिन कभी-कभी और कोई अपनी महत्वाकांक्षा का झंडा बुलंद कर देता है, तो सत्ता संघर्ष अवश्यम्भावी हो जाता है। और जो सत्ता संघर्ष में पराजित होते हैं, उनकी सीताराम केसरी की तरह बस धोती ही नहीं उतरती, न ही उन्हें मार्गदर्शक मंडल में पेंशन देकर बिठा दिया जाता है। अक्सर उन्हें बाकी जिंदगी जेल की कोठरी में बितानी पड़ती है, या फिर अपनी महत्वाकांक्षाओं की कीमत जान से चुकानी पड़ती है। लियोन ट्राटस्की और लिन पियाओ के किस्से किसे नहीं मालूम।
शेष अगले अंक में.