अगस्त महीने में सरकार ने अपनी नई शिक्षा नीति की घोषणा की. मानव संसाधन मंत्रालय का नाम बदल कर शिक्षा मंत्रालय कर दिया. शिक्षा नीति के मसौदे से तो यह लगता है कि प्राईमरी शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक में जो बदलाव किये गये हैं, वे पुरानी शिक्षा नीति का आमूलचूल परिवर्तन हैं. नई शिक्षा नीति के उद्देश्यों में यह दर्शाया गया है कि समय के साथ देश की राजनीतिक सामाजिक, आर्थिक स्थितियों में जो बदलाव आये हैं, उसके अनुरूप शिक्षा में बदलाव अनिवार्य है. यह परिवर्तन इसलिए भी आवश्यक माना गया क्योंकि अब मनुष्य देश की सीमाओं में बंध कर नहीं रह गया, बल्कि विश्व मानव बन रहा है. इसलिए शिक्षा नीति उसके इस उड़ान को पंख लगायेगी. विद्यार्थी का बहुमुखी विकास कर उसे एक आदर्श नागरिक के साथ-साथ आत्मनिर्भर व्यक्ति भी बनायेगी. इतना ही नहीं, उसे अपने देश की परंपराओं, वैदिक गणित तथा दर्शन का भी पूर्ण ज्ञान करायेगी जो वैज्ञानिकता की कसौटी पर खरे उतरते हैं. इस शिक्षा नीति के तहत शिक्षा पर जीडीपी का व्यय 4.4 फीसदी से बढ़ा कर 6 फीसदी करने का निश्चय किया गया. 2021-22 के सत्र से शुरु होने वाली इस नीति से यह आशा की जा रही है कि 2030 तक सकल नामांकन अनुपात 100 फीसदी हो जायेगा. उच्च शिक्षण संस्थाओं में 2018 का नामांकन जो 28.3 फीसदी था, वह बढ़ कर 2025 तक 50 फीसदी हो जायेगा. इसके लिए भारतीय विश्व विद्यालय ही नहीं, बलिक 100 विदेशी विवि को भी अपनी शाखायें यहां खोलने के लिए आमंत्रित किया जायेगा.
हमारे देश में शिक्षा सुधार की नीति आजादी के बाद से ही शुरु हो जाती है. 1948 ईवी में सर्वपल्ली राधाकृष्णन की अध्यक्षता में विवि शिक्षा आयेाग की स्थापना की गयी जो देश में विविद्यालयों की स्थापना, उसके पठन- पाठन की नीतियां तय करती थी. 1952 में लक्ष्मण स्वामी मुदलयार की अध्यक्षता में गठित माध्यमिक शिक्षा आयोग माध्यमिक शिक्षा के लिए शिक्षा नीति तय करती थी. अंत में 1964 में दौलत सिंह कोठारी की अध्यक्षता में गठित शिक्षा आयोग ने समग्र रूप से भारत में शिक्षा की क्या नीति होगी, इसके क्या उद्देश्य होंगे और इन नीतियों को लागू करने की क्या प्रक्रिया होगी पर विचार किया. इसी के आधार पर 1968 में भारत की प्रथम शिक्षा नीति बन कर लागू हुई. इस शिक्षा का मुख्य उद्देश्य राष्ट्रीय विकास के प्रति वचनबद्ध, चरित्रवान तथा कार्य कुशल युवक युवतियों को तैयार करना था. बदलते समय की मांगों को पूरा करने के लिए कुछ परिवर्तनों के साथ 1986 में दूसरी शिक्षा नीति बनी और लागू हुई. 1990 में आचार्य राममूर्ति की अध्यक्षता में गठित एक समिति ने 1986 की शिक्षा नीति की समीक्षा कर इसकी कमियों को दूर करने का प्रयास किया. इसीलिए 1992 में शिक्षा नीति में कुछ संशोधन हुए. 1993 में गठित यशपाल समिति ने भी कुछ और संशोधन किये.
हर शिक्षा नीति में घोषित महान उद्देश्यों के बावजूद अंततोगत्वा शिक्षा का उद्देश्य नौकरी पाना ही रह गया. अब विगत छह वर्षों में राजनीतिक परिवर्तनों के फलस्वरुप बनी नई सरकार ने अपने राजनीतिक हितों को ध्यान में रख कर कई नीतियों में परिवर्तन लाया है. नई शिक्षा नीति 2020 उसी की कड़ी है. इसे एक विशिष्ट नीति की तरह पेश किया जा रहा है. लेकिन अंत में इस नीति का भी मुख्य उद्देश्य नौकरी करने योग्य शिक्षा देना है.
आजादी के 72 साल बाद हम देश की साक्षरता पर ध्यान दे ंतो पाते हैं कि 2011 की जनगणना के अनुसार पुरुष साक्षरता 74.04 हैं और महिला साक्षरता 65.44 फीसदी है. यानि, हर पांच पुरुष में से एक पुरुष अनपढ़ है और दो तिहाई औरत अशिक्षित है. 2018 की एक रिपोर्ट के अनुसार अभी भी हमारे देश में छह करोड़ बच्चे बेसिक शिक्षा से भी वंचित हैं. अपनी शिक्षा नीति की खामियों को ढ़ूढ़ने जाते हैं तो सबसे पहले दिखती है, दोहरी शिक्षा व्यव9स्था. कुव्यवस्थित सरकारी स्कूल गरीब बच्चों के लिए माने जाते हैं जहां निःशुल्क शिक्षा दी जाती है. गांव में प्राईमरी तथा माध्यमिक स्कूलों में स्कूल है तो शिक्षक नहीं, शिक्षक हैं तो पाढ़ाई के साधन नहीं वाली स्थिति है. हर वर्ष बच्चों की गिरती संख्या के बीच इन स्कूलों को जैसे-तैसे चलाया जाता है. इन स्कूलों में पांचवीं क्लास का बच्चा दूसरी कक्षा की किताबों की दो पंक्तियां शुद्ध नहीं पढ़ पाता है. सारी शिक्षा नीतियों और उनके महान उद्देश्यों के बीच इन सरकारी स्कूलों में ज्ञान और निपुणता नहीं मिलती. दूसरी ओर हर सुविधा से युक्त वे स्कूल जहां साधन संपन्न बच्चे मोटी फीस देकर पढ़ने जाते हैं, वहां पढ़ाई का स्तर भी ठीक होता है और बच्चे का सर्वांगीन विकास भी होता है. पैसा लगाने वाले माता पिता भी बच्चों की शिक्षा की जिम्मेदारी लेते हैं.
सरकार ने जो नई शिक्षा नीति लायी है, वह इस समय के अनुकूल है, यह भी सोचना जरूरी है. पहली बात तो विश्व महामारी के चलते पांच महीने से स्कूल कालेज विवि सब बंद हैं. सरकार आॅन लाईन पठन- पाठन का दावा कर रही है, लेकिन शिक्षण के इस माध्यम को गांवों तक नहीं ले जा पा रही है. गांव के बच्चों के पास लैपटाॅप, स्मार्ट फोन का अभाव है. इस तरह 26 फीसदी बच्चे आॅन लाईन शिक्षा ग्रहण नहीं कर पा रहे. इस दौरान सरकार ने सिलेबस बारह महीने की जगह आठ महीने का कर दिया है. कोरोना काल के पहले से ही देश की आर्थिक स्थिति का ग्राफ नीचे की ओर आ रहा था. इसका कारण नोटबंदी, जीएसटी और उन नीतियों को बताया जा रहा है जो असमय में लागू की गयीं. इनके चलते कई व्यापारिक संस्थान और कारखाने बंद हो गये. असंगठित क्षेत्र के लाखों मजदूरों के साथ-साथ लगभग 50 लाख कुशल लोगों की भी रोजगारी चली गयी. अब ऐसी विषम आर्थिक स्थिति में नई शिक्षा नीति लाकर सरकार सोच रही है कि कुशलता प्राप्त युवक युवतियां देश की आर्थिक स्थिति सुधार देंगे, तो यह दिवास्वप्न ही होगा. इसलिए सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन में काल और कार्य का समन्वय बहुत जरूरी है. अन्यथा इन योजनाओं का विपरीत प्रभाव भी पड़ सकता है.
चूंकि शिक्षा नीति को रोजगार से जोड़ते हैं तो शिक्षा नीति के पहले आर्थिक सुधार भी जरूरी है. 2020 के प्रथम तिमाही की जीडीपी दर में 23.9 फीसदी की गिरावट को देखते हुए किसी भी नई नीति के बारे में नहीं सोचा जा सकता है.
शेष अगले अंक में.