भाजपा सरकार का दावा है कि उन्होंने सत्ता में आने के बाद माओवादियों का खत्मा कर दिया. बावजूद इसके वे अपनी उपस्थिति दर्ज करते रहते हैं. हर दो चार दिन के अंतराल पर कही न कहीं कोई बारदात कर देते हैं. इससे व्यवस्था परिवर्तन की दिशा में तो वे बढ़ते कही से नहीं दिखते, सरकार को आंतरिक अशांति और उग्रवाद को काबू करने के नाम पर जनता के सवालों पर बोलने और खुले जनवादी तरीके से संघर्ष करने वालों को पकड़ कर जेल में बंद करने का बहाना मिल जाता है, जैसा उन्होंने अभी— अभी स्टेन स्वामी के साथ किया है.
खैर, अभी तो हम झारखंड में उनके रक्तरंजित इतिहास को याद कर रहे हैं. जिन घटनाओं की हम चर्चा कर रहे हैं, वे सभी अखबार के पन्नों की सुर्खियां बन चुकी है. मसलन, हर झारखंडी यह जानता है कि माओवादियों ने अब तक कम से कम तीन राजनीतिक हत्या झारखं डमें की है और तीनों मारे जाने वाले झारखंडी नेता थे जिनमें शामिल हैं झामुमो के सांसद रहे सुनील महतो, विधायक रहे रमेश सिंह मुंडा और कामरेड महेंद्र सिंह. जिसे भी वे मारते हैं, उसे पुलिस का मुखबिर या ग्रामीण जनता को लूटने वाला महाजन-दलाल बताते हैं. क्या जिन तीन नेताओं का जिक्र हमने किया, वे पुलिस के मुखबिर या दलाल थे?
शुरुआती दौर की एक बड़ी कार्रवाई टुंडी का खुखरा कांड है. खुखरा कांड टुंडी की भीषणतम घटनाओं में से एक है जिसमें कम से कम नौ लोग मारे गये थे. खुखरा गांव में मंडल, ब्राह्मण, वर्णवाल, अग्रवाल समुदाय के लोगों की संख्या अधिक है. हरलाडीह में हुए एक बंदूक लूट कांड के बाद ये लोग इस बात को लेकर परेशान थे कि इस तरह के हादसों को कैसे रोका जाये. उन लोगों ने हरलाडीह, खरपोका, भूमिहार बहुल सिमरकोढ़ी और संताल बहुल अरबेका और नूतनडीह सहित उस क्षेत्र के अन्य गांवों के लोगों के साथ बैठक की. प्रारंभिक कुछ बैठकों में यह तय हुआ कि अपनी रक्षा का उपाय हमे खुद करना होगा. वे सनलाईट सेना के तर्ज पर इस क्षेत्र में अपनी निजी सेना बनाना चाहते थे. इसके लिये पलामू क्षेत्र में सक्रिय सनलाइट सेना वालों से संपर्क भी किया गया और अंत में 13 अप्रैल 90 को पारसनाथ पहाड़ के समीप के गांव खुखरा के मैदान में एक सभा बलायी गयी. लोग जोश में भरे हुये थे. संताल गांवों के लोगों को खास तौर पर बैठक में तवज्जो दी गयी. जिनका सर्वाधिक शोषण महाजन करते थे, उन्हें ही एमसीसी के खिलाफ उकसाया जा रहा था.
और फिर अंधेरा घिरने लगा. अचानक मैदान के चारो तरफ से एमसीसी के हथियार बंद दस्ते के सदस्य घिरते अंध्ेारे से पैदा हुये और उन्होंने उस मैदान को चारो तरफ से घेर लिया. लोगों को मौका भी नहीं मिला और अंधाधुंध गोलियां चलने लगी. बैठक में भाग लेने वाले लोग भागे. जिन्हे जिस ओर मौका मिला, उसी ओर भागते चले गये. लगभग आधे घंटे तक यह कार्रवाई चलती रही. कुल नौ लोग मारे गये जिनमे से कुछ की मौत तो घटना स्थल पर ही हो गयी और कुछ घायल अस्पताल ले जाते वक्त मारे गये. इस घटना के बाद तो हत्याओं का सिलसिला ही शुरु हो गया उस इलाके में. झामुमो के कैडरों को चुन-चुन कर मारा गया जिसमें तिलैया के गोवर्धन महतो, भूषण महतो, परमेश्वर बेसरा, चांदो लाल, श्यामलाल मुरमू सहित अनेकों लोग थे.
दरअसल, एमसीसी के व्यूहकार यह समझते थे कि जब तक झामुमो का इस क्षेत्र से नामोनिशान नहीं मिट जाता, तब तक वे इस क्षेत्र में काम नहीं कर सकते. झामुमो से नाराज कुछ लोग भले ही एमसीसी में शामिल हो गये थे, लेकिन आदिवासियों में उनकी पैठ नहीं बनी थी और इस समुदाय को आतंकित करने के लिये उन्होंने झामुमो के लोगों को चुन-चुन कर मारा. कुछ वर्ष पूर्व पोखरिया आश्रम के मुख्य कर्ताधर्ता श्यामलाल को और हाल में, वर्ष 2005, मनियाडीह बाजार से हाट के दिन शिबू सोरेन के कमांडेट रहे कृपाल सिंह, जो सिख था, को कुछ लोग बुला कर ले गये और कुछ फर्लांग की दूरी पर सैकड़ों लोगों के सामने उनकी क्रूरता पूर्वक हत्या कर दी.
श्यामलाल मुरमू की हत्या के बाद उसके समर्थकों और गांव वालों ने मिल कर पोखरिया आश्रम में उनकी वेदी बनाई थी. लेकिन एमसीसी के लोगों को यह बर्दाश्त नहीं था कि पोखरिया आश्रम में पुराने दिनों की कोई स्मृति भी रह जाये. इसलिये एक रात वे वहां पहुंचे और श्यामलाल मुरमू की वेदी को नष्ट कर दिया. पोखरिया आश्रम में तब रह गयी श्यामलाल की अति वृद्धा मां और उसकी बहू. पोखरिया आश्रम, जहां से तीन दशक पहले एक ऐतिहासिक आंदोलन का नेतृत्व हुआ था, में अब दिन भर सन्नाटा पसरा रहता है. उस पूरे इलाके पर अब एमसीसी का कब्जा है. यह सब बातें भी कुछ वर्ष पूर्व की हैं. अब वहां का क्या हाल है, यह नहीं जानता. बस इतना जानता हूं कि जो टुंडी कभी महाजनी शोषण के खिलाफ संघर्ष का ऐतिहासिक गवाह बना, वही झारखंड में माओवादियों के प्रवेश का द्वार बन गया.
उसके बाद की कहानी तो यह कि एमसीसी का नक्सली संगठन पार्टी युनीटी और आंध्र प्रदेश के पिपुल्स वार ग्रुप में विलय हो गया और उसका एक बड़े वनक्षेत्र में विस्तार हो गया. बंगाल, बिहार, झारखंड, ओड़िसा, छत्तीसगढ़ से लेकर आंध्र प्रदेश तक. यही समझिये कि जो देश की हरी पट्टी है, वनक्षेत्र है, वही रेड काॅरिडोर ‘रेड जोन’ भी है.
अगले कड़ी में माओवाद के अंतरविरोध और झामुमो के महाजनी शोषण के खिलाफ चले आंदोलन से उसके फर्क पर संक्षिप्त चर्चा कर इस श्रृंखला को समाप्त करेंगे.