इस बार बिहार के चुनाव में न्यू भारत मिशन (नभामि) नये सपनों के साथ सामने आया है. यह विकास, लोकतंत्र और रोजगार का राजनीतिक मिशन है. नभामि की स्थापना 14 महीनों के अथक प्रयास से 25 जून 2020 को पटना में की गई. इसक संस्थापकों में ऐसे लोग हैं, जो तीन चार दशकों से जनता के बीच रह कर काम कर रहे हैं. खुद एकजुट हुए हैं और जनता को सही तरीके से एकजुट करने का प्रयास कर रहे हैं. इनकी सरकार ईमानदार लोगों को प्रोत्साहन देगी और बेइमान लोगों के लिए कठिनाइयां पैदा करेगी. उसके बाद ईमानदार लोगों की बढ़ती ताकत के बल पर बिहार का विकास होगा. ये ऐलान करते हैं - ना जातिवाद ना संप्रदायवाद, अब बिहार को चाहिए सिर्फ विकासवाद. इनकी घोषणा है कि हम हर बिहार वासी के लिए धर्मनिरपेक्ष और रोजगार देने वाला सुंदर बिहार बनाएंगे, जहां सबके लिए स्तरीय शिक्षा की व्यवस्था होगी. अस्पताल होंगे. स्त्रियों के लिए पूरी सुरक्षा के साथ उनकी प्रगति का रास्ता भी तैयार होगा. सबके लिए कम से कम बासगीत भूमि और गांव के प्रत्येक परिवार के लिए घर. बोलने की आजादी होगी, राजनीतिक बंदियों के खिलाफ झूठे मुकदमे वापस लिये जाएंगे.
इन सपनों के साथ नौजवान, बुजुर्ग सरकारी या प्राइवेट नौकरी करने वाले, किसान और मजदूर सबों का आह्वान किया गया है कि सभी इस नये दल से जुड़ें. मगर ठीक चुनाव के पहले जिस तरीके से भागम भाग मचती है, जातियों के समीकरण बैठाये जाते हैं और फूहड़ तरीके से एक दूसरे पर छींटाकशी होती है, ऐसे माहौल में ऐसे प्रयास बहुत आगे नहीं बढ़ पाते. सबको लगता है, हम कहीं पीछे न छूट जायें. अपवादों को छोड़ सबों का लक्ष्य है- भाजपा को हराना है या भाजपा को जिताना है. नभामि ने प्रयोग के तौर पर, जो आंदोलन के क्षेत्र है वहां अपने उम्मीदवार खड़े किये हैं. अब जनता को तय करना है कि हमें कुछ नया भी चाहिए या नहीं; या उसी दलदल में- इसको या उसको में लगे रहना है.
हम देख रहे हैं कि भ्रष्टाचार हर सरकार की स्थाई पहचान बन गई है. नीतीश कुमार 15 वर्ष पहले कथित जंगल राज के खात्मे और सुशासन/विकास के नाम पर सत्ता में आये थे. और बीते 15 वर्षों से विकास की बात करते रहे हैं. मगर ‘विकास’ का आलम यह है कि राज्य में बेरोजगारों की फौज बढ़ती गयी है. एक के बाद एक नवनिर्मित पुल उद्घाटन के पहले या बाद में टूट गये. बाढ़ की विभिषिका बढती जा रही है. पर अन्य दलों से भी भ्रष्टाचार को लेकर कोई उम्मीद नहीं की जा सकती. वंशवाद की जितनी आलोचना करते रहें, अब किसी भी सीटिंग विधायक या सांसद की मृत्यु हो जाये या वे जेल चले जाएं तो वह सीट उनकी पत्नी, उनके पुत्र या पुत्री के लिए आरक्षित रहती है. इसलिए कि वह उनकी संपत्ति है और जनता उनकी बंधुआ.
कोई शक नहीं कि आज व्यक्ति और परिवार केंद्रित दलों की बहुतायत है. राजद भी ऐसा ही दल है. कांग्रेस तो है ही. मगर सच यह भी है कि सबों को दूसरों का ही वंशवाद नजर आता है. वंशवाद की मुखर विरोधी भाजपा को अपने सहयोगी दलों- अकाली दल, शिव सेना (जो करीब तीन दशक तक उसके साथ रही), लोजपा आदि का वंशवाद कभी नहीं अखरता. खुद भाजपा नेताओं के बेटे-बेटियों की लंबी सूची है, जो अपने पिता के कारण ही ‘योग्य’ मान लिये गये और सांसद-विधायक बने. यानी प्रतिनिधित्व को उत्तराधिकार से जोड़ना अब सहज स्वीकृत है.
दो रोचक उदाहरण भी सर्वविदित है. अमित शाह का बेटा बीते वर्ष बीसीसीआई का सचिव चुन लिया गया- निर्विरोध. इस वर्ष अरुण जेटली (अबदिवंगत) का पुत्र डीडीसीए का सचिव निर्वाचित हुआ- निर्विरोध. लेकिन शायल उनकी नजर में यह वंशवाद या पिता की हैसियत का बेजा लाभ मिलना नहीं है!
तो आज की राजनीति भ्रष्टाचार, वंशवाद और सर्व।सत्तावाद को अनिवार्य मानती है. कांग्रेस इसी से ग्रस्त थी. एक बड़े आंदोलन और एकजुट संघर्ष से उसे हटाया जा सका. अब इतने सालों बाद भाजपा उससे कई गुणा ज्यादा आक्रामक होकर भारत की जनता को ललकार रही है- चाहे कितना भी विरोध करो, हमें फर्क नहीं पड़ता. कांग्रेस भी विरोधियों को जेल में बंद कर रही थी. भाजपा गरीब, दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक के पक्ष में बोलनेवालों को देशद्रोही बता कर प्रताड़ित कर रही है.
आज उसके खिलाफ प्रगतिशील लोग एकजुट हो रहे हैं. ऐसे में हम उन्हीं पारंपरिक गठबंधनों पर भरोसा करते हैं. मगर कब तक हम वर्तमान दलों में चयन को मजबूर रहेंगे? भूत के भय सेएक नये विकल्प से आंखें बंद रखेंगे? आज नहीं तो कल, हमें इस सवाल से टकराना होगा. इसका जवाब खोजना होगा.