बिहार विवि चुनाव की अपनी अंतिम चुनावी सभा (5.11) में ऐसा कहने का एक सहज अर्थ तो यही है कि उन्होंने अपनी हार मान ली है. हालांकि उनके विद्वान मुरीद और सिपहसालार इस घोषणा में एक उच्च आदर्श देख-बता रहे हैं- कि नीतीश जैसा महान और नि:स्वार्थ नेता ही ऐसा कह सकता है. मगर यह तो पूछा ही जाना चाहिए कि सत्ता से विरक्ति या उसके मोह से मुक्त होने जैसी यह घोषणा विवि चुनावों के अंतिम चरण का प्रचार खत्म होने के दिन ही क्यों? इससे तो यही लगता है कि दो चरणों के मतदान होने तक वे यह फैसला नहीं कर सके थे.
इसका जो भी निहितार्थ हो, पर एक कुशल नेता की तरह नीतीश जी ने यह कहते हुए वोट पाने की एक मार्मिक/भावुक (गिड़गिड़ाते हुए न भी कहें तो) अपील कर डाली. उक्त घोषणा करने के साथ उन्होंने ‘अंत भला तो सब भला’ का नारा लगाते हुए श्रोताओं से पूछा- अब तो वोट दीजिएगा ना?
नेताओं के बयान बहुधा बहुअर्थी होते हैं. वैसे भी किसी कथन की कई तरह से व्याख्या हो सकती है; और जाहिर है, इस पर उनके समर्थकों और विरोधियों की राय भिन्न होगी. वैसे लगता यही है कि नीतीश कुमार यह बयान हारती बाजी पलटने के इरादे से, सोच समझ कर दी है और संभव है इसका उन्हें कुछ लाभ भी मिले.
लेकिन अजीब बात यह कि कोई नीतीश कुमार और उनके मुरीदों से यह नहीं पूछ रहा कि पिछली बार विधानसभा के किस चुनाव में वे कहां से खड़े हुए थे. सच तो यह है कि वे लगातार विधान परिषद (जिसे, राज्यसभा सहित, उनके गुरू डॉ लोहिया चोर दरवाजा कहते थे) के रास्ते विधायक और मुख्यमंत्री बनते रहे हैं. तो यह उनका ‘अंतिम चुनाव’ कैसे होगा.
अब देखना यह है कि नाउम्मीदी के कयासों के बीच बिहार के मतदाता अंतिम चरण के मतदान में नीतीश जी की भावुक (या चालाक) अपील पर कितना ध्यान देते हैं.