नयी खोज के अनुसार बिरसा मुंडा के जन्म की असली और सही तारीख 18 जुलाई है! या फिर 25 जुलाई। झारखंड राज्य की स्थापना 15 नवम्बर, 2000 को हुई। माना गया कि बिरसा का जन्म 1875 ई. में उसी तारीख को हुआ। हालांकि उनके जन्म दिन, जन्म वर्ष और यहां तक कि उनके जन्म स्थान पर विवाद बना हुआ है।
उनका जन्म वृहस्पतिवार को हुआ, इसलिए उनका नाम मुंडा प्रथा के अनुसार उस दिन पर ‘बिरसा’ रखा गया। लेकिन 15 नवम्बर की तारीख 1875 में ‘सोमवार’ को पड़ती है। इस हिसाब से 15 नवम्बर उनके जन्म की सही तारीख नहीं हो सकती।
अब तक के शोध-अध्ययन से यह स्पष्ट हुआ है कि बिरसा का जन्म 1872 में हुआ। बर्लिन में प्राप्त गोस्सनर मिशन के दस्तावेज (बिरसा मुंडा और उनका आंदोलन: कुमार सुरेश सिंह) के अनुसार बिरसा का जन्म 22 जुलाई, 1872 को हुआ। लेकिन 22 जुलाई को सोमवार था। बिरसा मुंडा के अनन्य साथी भरमी मुंडा द्वारा लिखित एक ‘पांडुलिपि’ के अनुसार बिरसा मुंडा के जन्म का साल 1872 है। इसलिए यह सही माना जा सकता है कि बिरसा का जन्म 1872 में हुआ लेकिन वृहस्पतिवार के हिसाब से उनका जन्म दिन 18 या 25 जुलाई रहा होगा।
सत्ता पर काबिज होने के लिए बेचैन प्रभुवर्गों ने नये झारखंड राज्य की स्थापना के लिए 15 नवम्बर ही चुना और वह भी बिरसा के जन्म दिन के नाम पर! यानी झारखंड राज्य की स्थापना के साथ भी यह ऐतिहासिक विडम्बना जुड़ गयी है कि उसका भी वही इतिहास सही और प्रामाणिक करार दिया जाएगा, जो शासकों की इच्छा और फैसला के अनुरूप होगा। यहां तक कि किसी इतिहास पुरुष का जन्म दिन और जन्म वर्ष भी वे ही तय कर देंगे!
जनता के नाम पर राज करने को व्याकुल शासक तो जनता से पूछने-जानने तक का धीरज नहीं रखते। तब क्या इतिहास की वही व्याख्या सही नहीं मानी जायेगी, जो सत्ता पर काबिज वर्तमान शासकों को रास आयेगी? अब तक ऐसा होता रहा है कि हर शासक ने अपनी सत्ता को मजबूत करने और उसकी वैधता के लिए उसे सम्बद्ध क्षेत्र के इतिहास की धारावाहिकता के प्रमाण के रूप में पेश किया है। इसके लिए उसने इतिहास की धारा को मोड़कर अपने वर्तमान और वांछित भविष्य के अनुरूप ढालने का प्रयास किया है।
नये झारखंड का प्रथम शासक है राजग गठबंधन! प्रथम मुख्यमंत्री थे भाजपा के बाबूलाल मरांडी। वह दो साल मुख्यमंत्री रहे। क्या उनके दो साल के कार्य-कलाप को झारखंड की उस ‘सांस्कृतिक अस्मिता और राजनीतिक स्वायत्तता’ की अगली कड़ी या अभिव्यक्ति माना जा सकता है, जो बिरसा के उलगुलान का मूल मंत्र था? वैसे, यह सवाल उन सभी प्रभुओं के लिए होना चाहिए, जो झारखंड की सत्ता-राजनीति में अपनी पैठ या पहचान बनाने में शमिल हैं।
इस सवाल को और सही परिप्रेक्ष्य में रखें तो सवाल यह होगा कि आज झारखंड में बिरसा को ‘पूजनेवाले’ बहुत हैं लेकिन क्या उनको ‘बरतनेवाला’ भी कोई है? कोई व्यक्ति, संगठन या पार्टी? वैसे, यह तो आज सबके मुंह से सुना जा सकता है कि उनका आदर्श बिरसा ही हैं और उनकी नीतियों और कार्यक्रमों की प्रेरणा और आधार भी बिरसा का वह उलगुलान ही है, जिसने देश को गुलामी की जंजीरों में जकड़नेवाली ब्रिटिश हुकूमत की चूलें हिला दी थीं।
तो क्या आज झारखंड में जो भी संघर्ष-रचना या विकास-विनाश का प्रयास चल रहा है - उसे बिरसा को बरतने का प्रमाण माना जा सकता है? वह बिरसा को महज प्रतीक-पूजा तक सीमित रखने की साजिशाना हरकत तो नहीं?
इन सवालों के जवाब के लिए जरूरी है कि हम वर्तमान झारखंड के चेहरे को उसके इतिहास के आईने में देखें। यानी यह देखें कि वर्तमान झारखंड विकास के किस रास्ते पर है? उसका वर्तमान विकास क्या उसकी ऐतिहासिक परम्परा, संस्कृति, संघर्ष और उपलब्धियों का ही विस्तार है? इस सिलसिले में हमें बिरसा के व्यक्तित्व और कृतित्व को नये सिरे से रेखांकित करना होगा, उनके उलगुलान की भी व्याख्या करनी होगी और उसके रू-ब-रू आज के झारखंड के चेहरे की पहचान करनी होगी।
कुमार सुरेश सिंह की किताब ‘बिरसा मुंडा और उनका आंदोलन’ के लिए ‘दो शब्द’ में स्कूल ऑफ ओरियंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज, लंदन युनिवर्सिटी के क्रिस्टोफर फॉन फ्यूरेर हैंमेनडोर्फ ने लिखा है – “जनजातियों के संघर्ष प्रतिरक्षात्मक रहे हैं। उनके माध्यम से जनजातियों ने अपनी भूमि या आर्थिक स्रोतों को बाहरी लोगों द्वारा हड़पे जाने से बचाने के लिए एक प्रकार से अत्यंत निराश मनःस्थिति में आखिरी कोशिश की। ये दुखद विद्रोह कदापि नहीं होते, यदि तत्कालीन सरकारों ने जनजातियों की शिकायतें समझ ली होतीं और उनको दूर करने के लिए समय-समय पर कदम उठाये होते। अधिकांश स्थितियों में विद्रोह के पूर्णतः असफल हो जाने के बाद (सरकारी मशीनरी द्वारा पूरी तरह से दबा दिये जाने के बाद!) ऐसे कदम उठाये गये।
“अधिकांश मामलों में जनजातियों की स्थिति में गिरावट का प्रत्यक्ष और प्रमुख कारण वैसी विधि-व्यवस्था का शासन कायम होना था, जिसने बाहरी लोगों को जनजातीय क्षेत्रों में प्रवेश करके स्थानीय जनता का शोषण करने दिया और इन नये आगंतुकों को एक शक्तिशाली प्रशासन का संरक्षण दिया।
“ब्रिटिश काल के पूर्व अधिकांश आदिवासी क्षेत्र किसी भी केंद्रीय सत्ता के प्रभावकारी नियंत्रण से बाहर थे। उस वक्त भी जनजातियों के बीच बाहरी जातियां प्रवेश करती थीं और उनके बीच बसती थीं लेकिन वे एक संगठित शासन की सहायता पर निर्भर नहीं कर सकती थीं। इसलिए उन बाहरी शक्तियों द्वारा स्थानीय जनता का शोषण और दमन सीमित होता था।
न्यायालयों और पुलिस बल के अभाव में साहूकार और भूमि हड़पने वाले लोग स्थानीय जनजातियों के खिलाफ अपने दावे कानूनन मनवा नहीं सकते थे। उन्हें जनजातियों के बीच रहना था, सो उन्हें उन स्थानीय लोगों की सद्भावना पर ही निर्भर रहना पड़ता था। एक संगठित प्रशासन की (ब्रिटिश हुकूमत की) स्थापना ने जनजातियों को अपनी प्रभावकारी सुरक्षा से वंचित कर दिया। स्थानीय जनजातीय आबादी अब बाहरी लोगों और भावी शोषकों द्वारा अपने हितों पर आक्रमण से अपनी रक्षा नहीं कर सकती थी, क्योंकि अब उन बाहरी तत्वों को अपनी हथियाई गयी सम्पत्तियों को रखने के लिए संगठित प्रशासन के तहत कानूनी व्यवस्था हासिल हो गयी।”
श्री क्रिस्टोफर ने डॉ. कुमार सुरेश सिंह की किताब को बिरसा मुंडा पर ‘सहानुभूति’ के साथ किया गया अध्ययन बताते हुए लिखा है – “बिरसा आंदोलन के इस अध्ययन से जो सबक मिलता है, उसे आधुनिक प्रशासन भूल न जाये। उनमें से कुछ अभी भी इस गलतफहमी के शिकार हैं कि अधिक पिछड़ी जनजातियों की एक पीढ़ी के लोगों को जोर-जबर्दस्ती या डरा-धमकाकर अपना दृष्टिकोण या जीवन-पद्धति बदलने को बाध्य किया जा सकता है। बिरसा मुंडा का उद्देश्य विफल हो गया, पर वे अपनी जनता के सामने एक ऐसी शौर्यपूर्ण गाथा और प्रेरणा छोड़ गये हैं, जिसके बल पर उन्हें उन शक्तियों के विरुद्ध अपनी सांस्कृतिक विशिष्टिता कायम रखने में मदद मिलेगी, जो जनजातीय वर्गों को स्थानीय स्तर पर मुख्य समुदायों में विलीन करने के प्रयास में लगी हुई हैं।”
तो यह सवाल आज भी विचारणीय है कि सत्ता-राजनीति के नाम पर वर्तमान झारखंड में जो कुछ हो रहा है, वह झारखंड के शासकों, खास कर आदिवासी शासकों, के ‘सबक’ सीखने का सबूत है या ‘गलतफहमी’ के शिकार होने का?