इस वर्ष सितंबर माह में केंद्र सरकार द्वारा तीन कृषि कानून पारित किये गये. सरकार इसे ऐतिहासिक और किसानों के उन्नयन के लिए अति आवश्यक कानून बताती है, लेकिन देश के किसान इन्हें काला कानून कहते हैं और इसका प्रबल विरोध सड़कों पर हो रहा है. किसानों का कहना है कि इन कानूनों के द्वारा सरकार कारपोरेट को लाभ पहुंचाना चाहती है. फसलों के न्यूनतम मूल्य और मंडियों को समाप्त करना चाहती है.

सबसे पहले हम संक्षेप में इन तीन कानूनों को समझे. पहला कानून है- कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य विधेयक 2020. इस विधेयक के द्वारा सरकार किसानों की उपज को बेचने के विकल्पों को बढ़ाना चाहती है. किसान अब अपनी उपज को मंडियों के बाहर भी बेच सकते हैं. इस तरह सरकार ने मंडियों के क्रियाकलापों को सिमित कर दिया है. खुले बाजार में व्यापारियों को किसानों से उपज को मनमाने दर पर खरीदने की छूट दी है. किसानों का कहना है कि जब मंडियों के समानांतर एक बाजार खड़ा किया जा रहा है, तो धीरे-धीरे मंडिया खत्म हो जायेंगी और किसान व्यापारियों के रहमों करम पर रह जायेगा. जैसे निजी शक्तिशाली टेलिकाॅम कंपनियों के आने से सरकारी टेलीकम कंपनी बीएसएनएल का खात्मा हो रहा है.

इसे एक दूसरे ठोस उदाहरण से हम समझ सकते हैं. बिहार में न्यूनतम मूल्य कानून 2006 में ही खत्म कर दिया गया था. 2020 में बिहार सरकार ने गेहूं की फसल का मात्र एक प्रतिशत खरीदा. इस तरह कृषि आय वाले राज्यों में बिहार सबसे निचले स्थान पर पहुंच गया. कहा जाता है कि अन्य राज्यों के व्यापारी यहां की स्थिति का फायदा उठा कर यहां से सस्ते दामों में अनाज खरीदते हैं और न्यनतम मूल्य वाले राज्यों को बेच कर मुनाफा कमा रहे हैं, जबकि यहां सरकार भी घाटे में हैं और किसान भी.

‘कृषि कीमत आश्वासन तथा कृषि सेवा करार विधेयक 2020’ के अनुसार सरकार किसानों तथा निजी कंपनियों के बीच समझौते वाली खेती के लिए अवसर प्रदान करेगी. इसे हम कंट्रैक्ट फार्मिंग भी कह सकते हैं. ठेकेदार या पूंजीपति किसान की जमीन को कंट्रैक्ट पर लेकर उस पर अपनी इच्छा से फसल उगा सकता है. इस तरह जमीन का मालिक किसान अपनी ही जमीन पर बंधुआ मजदूर बन कर रह जायेगा. यहां गौर करने की बात यह है कि बड़े किसान, जिनके पास बड़े-बड़े भूखंड हैं, वे इस कानून का विरोध कर रहे हैं. उनको डर है कि ठेकेदार उनके खेतों पर अपना अधिकार करना चाहते हैं. इस कानून के तहत किसान और ठेकेदार के बीच कोई विवाद हो तो किसान को सेशन कोर्ट तक जाने का अधिकार नहीं है. एक निस्तारण कमेटी बनायी जायेगी जिसमें दोनों पक्षों के लोग शामिल होंगे और एक एडीएम रैंक के अधिकारी उनके विवाद का फैसला करेंगे. सबसे पहले तो किसान अशिक्षित होने के कारण कंट्रैक्ट में लिखी बातों को ठीक से पढ़ नहीं पाता है. इसके अलावा उसके पास साधन नहीं होता न समय, इसलिए निश्चित रूप से इस विवाद का फैसला ठेकेदार के पक्ष में ही जायेगा.

‘आवश्यक वस्तु संशोधन बिल 2020’ के अनुसार अनाज, दलहन, तेलहन, खद्य तेल, प्याज तथा आलू को आवश्यक वस्तुओं की सूची से बाहर कर दिया गया है. अब इन वस्तुओं के संग्रह की कोई सीमा निश्चित नहीं होगी. विशेष परिस्थितियों में ही सरकार इनकी सीमा तय करेगी. यह किसानों के लिए ही नहीं, उपभोक्ताओं के लिए भी घातक होगा, क्योंकि व्यापारी वस्तुओं को जमा करता जायेगा और बाजार में मांग के कारण इन वस्तुओं का मूल्य बढ़ जायेगा. किसान के पास अपनी उपज के भंडारण की कोई व्यवस्था नहीं होती है. वह जल्द से जल्द अपनी फसल को बेच कर पैसा प्राप्त करना चाहता है. यह कानून जमाखोरी को बढ़ावा देगा.

यह विडंबना ही है कि एक कृषि प्रधान देश होते हुए भी कृषि और किसान सरकार के लिए महत्वपूर्ण नहीं होते हैं. उनके लिए जो भी योजनाएं बनती हैं, उसके लिए सरकार उनसे पूछना तक जरूरी नहीं समझती है. आजादी के बाद प्रथम पंच वर्षीय योजना ही कृषि प्रधान योजना रही जिसने किसान और देश दोनों को आत्म निर्भर बनाया है. उसके बाद तो प्रभु वर्ग का सारा घ्यान उद्योग-व्यापार पर ही लगा रहा जिसे वे विकास का साधन मानते हैं. और अब तीन नये कृषि कानून किसानों की सलाह के बिना बना दी गयी और और जब वे इसका विरोध कर रहें हैं तो उन्हें सड़को पर पीटा जा रहा है.