कारू जीरा ( बोधगया) अलविदा कह गये। एक ऐसा कार्यकर्ता जो झोपड़ी- झुग्गी में रहते हुए भूमिहीनों के भूअधिकार के लिए जीवन पर्यंत संघर्ष करता रहा। उसका जाना बोधगया के परिवर्तनकारी जमातों के लिए ही नहीं बल्कि बिहार के साथियों की भी एक बडी़ क्षति है। गरीबी में जीते हुए भी इन्होंने जिस स्वाभिमान और साफगोई के साथ जीवन जिया वह काबिले तारीफ़ है।

यहाँ एक प्रसंग का जिक्र करने से मैं अपने को नहीं रोक पा रहा हूँ। बात सन् 20 10-11 की है । उन दिनों संवाद ने बोधगया के इलाके में वहाँ के वंचित समुदाय के बीच काम करना शुरू किया था ।इस काम में बोधगया भूमि आंदोलन के कुछ साथी जुड़े थे।एक फेलोशिप योजना के तहत तह काम शुरू हुआ था।कारू जीरा भी इसमें जुड़ गए थे । दो- तीन साल उन्होने बडी़ तन्मयता से काम की।इसका काफी अच्छा परिणाम आता दिख रहा था।उनके काम से सभी प्रभावित थे। वंचित समुदायों का एक मजबूत संगठन आकार ग्रहण कर रहा था।

एक बार एक कार्यशाला में कारू जीरा मधुपुर आये थे।कार्यशाला समापन के बाद कारू जीरा ने कार्यकर्ताओं की बैठक में बडे़ ही संकोच के साथ कहा – साथियों, मैं एक बात कहना चाहता हूं।बोलते हुए संकोच भी हो रहा है।लेकिन आज साहस पूर्वक कह रहा हूँ कि बिहार सरकार ने मुझे जेपी आंदोलन का सेनानी घोषित किया है और पेंशन की शुरुआत कर दी है। इसलिए मैं संवाद की फैलोशिप से मुक्त होने की इजाज़त चाहता हूं। यह राशि किसी ऐसे जरुरतमंद युवा को दिया जाए जिसे इसकी निहायत जरूरत है। मैं इस काम में साथियों की मदद करता रहूँगा। मुझे जितनी राशि सरकार से मिल रही है वह मेरे जीने के लिए पर्याप्त है।

कारू जीरा की इस साफगोई और ईमानदारी से सभी आश्चर्यचकित थे।मैं क्षणभर उन्हें निहारता रहा।वह लम्हा आज भी मुझे याद है। उस दिन मैंने अपने को बहुत बौना महसूस किया। मुझे लगा कार्यकर्ता हो तो ऐसा।सचमुच कारू जीरा गुदडी़ में छिपे लाल थे।हमें गर्व है कारू जीरा पर! उन्हें मेरा सलाम!!हूल जोहार!!!