पिछले दिनों रांची पुलिस ने पांच आदिवासी युवकों को शहर और आस पास के इलाकों में माओवादी पोस्टर साटने के आरोप में गिरफ्तार कर जेल भेज दिया है. पुलिस ने उनसे पूछताछ के बाद एक बोलेरो कार, एक मोटर साईकल और कुछ माओवादी पोस्टर भी बरामद किये. रांची के एसएसपी सुरींदर झा ने पत्रकारों को यह भी बताया कि ये लोग इन पांचों युवकों ने माओवादी संगठन तृतीय सम्मेलन प्रस्तुती कमेटी-टीएसपीसी- से पोस्टर साटने की एवज में पैसे भी लिये हैं. जाहिर है कि इन युवकों का कानून की गिरफ्त से छूटना आसान नहीं होगा. इनमें से एक उरांव समुदाय के हैं और अन्य मुंडा समुदाय के.
इन पोस्टरों में सार्वजनिक क्षेत्र की कोल कंपनी को चेतावनी दी गयी है कि वे विस्थापितों के ठीक से व्यवहार करें और सरकार को भी चेतावनी दी गयी है. इनमें जल, जंगल, जमीन को बचाने के लिए संघर्ष का भी आह्वान किया गया है. पुलिस का कहना है कि शहर और आस पास के इलाकों में पोस्टर साटने का उद्देश्य जनता के बीच नागर समाज के बीच दहशत फैलाना और अपनी उपस्थिति दर्ज करना हो सकता है. पता नहीं वे युवक अभी किस स्थिति में हैं.
कुछ लोगों को माओवादियों की इस कार्रवाई में कुछ भी गलत नहीं लगेगा, लेकिन सवाल उठता है कि क्या वास्तव में माओवादियों की दखलअंदाजी विस्थापन विरोधी आंदोलनों में है? क्या वे वास्तव में सरकार को चुनौती देने की स्थिति में हैं? झारखंड में पिछले कई दशकों से विस्थापन विरोधी आंदोलन चल रहा है. चांडिल डैम के खिलाफ आंदोलन, ईचा बांध के खिलाफ आंदोलन, तपकारा आंदोलन, मित्तल के खिलाफ खूंटी में चला आंदोलन, फायरिंग रेंज के खिलाफ नेतरहाट में चल रहा आंदोलन, पोटका में भूषण और जिंदल के खिलाफ चल रहा आंदोलन- किस आंदोलन में उनकी भूमिका है? जो झारखंड के बाहर रहते हैं, उन्हें भ्रम हो सकता है, लेकिन झारखंड के तमाम सामाजिक संगठन और विस्थापन विरोधी आंदोलन चलाने वाले लोग नजदीक से जानते हैं कि इन तमाम आंदोलनों का नेतृत्व वे लोग कर रहे हैं जो संघर्ष के खुले जनवादी तरीकों में विश्वास करते हैं, माओवादियों के गुरिल्ला हिंसक युद्ध में नहीं.
इन आंदोलनों का नेतृत्व कौन करते रहे हैं, इसे एक-एक कर गिनाया जा सकता है. सुवर्ण रेखा और ईचा डैम परियोजना के खिलाफ आंदोलन वाहिनी धारा के लोगों ने किया, भूषण और जिंदल के खिलाफ पोटका क्षेत्र में आंदोलनों का नेतृत्व कुमारचंद्र मार्डी और उनकी टीम करती रही है. खूंटी में दयामनी ने मित्तल के खिलाफ खुला संघर्ष किया. माओवादियों ने तो उल्टे दयामनी जी को एक बार अगवा कर लिया था. बगोदर क्षेत्र में माओवादी की हरकतों का विरोध दिवंगत नेता कामरेड महेंद्र सिंह करते थे और एक बार तो उन्होंने झूमरा पहाड़ के शिखर तक उनका पीछा किया था. और अंततोगत्वा माओवादियों ने उनकी हत्या कर दी.
माओवादी संगठन अब उतने मजबूत भी नहीं रहे. कई खेमों में बंट चुके हैं. यह खुला तथ्य है कि वे बेरोजगार युवकों को पैसा और हथियार देते हैं और क्रांति के खोखले नारे. लेकिन पिछले पांच दशकों के हिंसा-प्रतिहिंसा के बावजूद वे व्यवस्था परिवर्तन की दिशा में एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सके हैं. अब इन पांच युवकों का भविष्य क्या है? ये युवक जो अपने वृद्ध माता पिता का सहारा बनते, सामान्य लोगों की तरह जीवन बसर करते, मेहनत मशक्कत करके अपने बच्चों की परवरिश करते और सामाजिक सरोकार रहने की अवस्था में खुले जन आंदोलनों में भाग भी ले सकते, अब बरसों जेल के सीखंचों के पीछे रहेंगे.
उनकी विडंबना यह भी कि कोर्ट में बहस के दौरान बचाव पक्ष का वकील यही साबित करने की कोशिश करेगा कि ये निर्दोष हैं, बहकावे में आकर उन्होंने यह काम किया, या फिर उन्होंने यह काम किया ही नहीं. पुलिस बेवजह उन्हें फंसा रही है. बचाव पक्ष का वकील या फिर वे कभी यह तो नहीं ही कहेंगे कि वे माओवादी संगठन के सदस्य हैं और हिंसा की राजनीति में विश्वास करते हैं. ऐसा तो माओवाद का समर्थक बड़ा से बड़ा बुद्धिजीवी भी नहीं कहेगा कि माओवाद हिंसा से सत्ता-व्यवस्था परिवर्तन में विश्वास रखने वाला एक राजनीतिक दर्शन है और वे उसका समर्थन करते हैं. वह अधिक से अधिक सत्ता की हिंसा के मुकाबले उनकी हिंसा को जस्टीफाई करने की कोशिश करेगा.
अब आप इस पूरे प्रकरण पर कोई मार्मिक कविता लिख सकते हैं और उस कविता के लिए पुरस्कृत भी हो सकते हैं. या फिर उनके पक्ष में दलीलें देकर यह आत्मतोष प्राप्त कर सकते हैं कि आप जनवादी क्रांति के बहुत बड़े पैरोकार हैं. उन पांच आदिवासी युवकों का जीवन तो बर्बाद हो ही गया.